साँच कहै ता! जो कबिरा (Kabira) काशी मरै रामहि कौन निहोर।
मेरे कई मित्र स्नेहवश अक्सर कहा करते हैं कि आप जैसे आदमी को तो किसी महानगर में होना चाहिए दिल्ली, मुम्बई छोड़ के यहाँ कहाँ रीवा में घुसे रहते हैं। ऐसे मित्रों को आभार के साथ कबीर का ये दोहा सुना दिया करता हूँ- जो कबिरा काशी मरै रामहि कौन निहोर..! कबीरदास मरने के लिए काशी छोंड़कर मगहर चले गये थे। किस्सा मशहूर है, कि मगहर में जो मरता है उसे रौरव नरक मिलता है, काशी में मरने वाले को सीधे सरग का दरवाजा खुल जाता है। कबीर कहते हैं कि काशी में मर के स्वर्ग जाने में ईश्वर की क्या बड़ाई है, वो तो काशी का महात्म है। इसीलिए देश भर के पापी चाहते हैं कि उनके प्राण यहीं छूटें। मगहर में मरने से स्वर्ग मिले तब तो ईश्वर की महत्ता है, पुरषार्थ का कोई मतलब है।
अपने देश के महानगर कवि, कलाकारों, मीडियाकरों के लिए काशी ही है। कस्बे से निकलकर दिल्ली पहुँचे सीधे राष्ट्रीय हो गए। दिल्ली की छींक भी राष्ट्रीय प्रभाव डालती है। छह-सात साल पहले दिल्ली में निर्भया कांड हुआ, देश हिल गया। हमारे शहर की भी किट्टी पार्टी वाली मैडमों ने कैंडल जुलूस निकाला था। हमारे अपने शहर-कस्बे गाँव में निर्भया जैसी कितनी ही बालिकाएं आए दिन दुराचार की शिकार होती हैं। कुएं-बावड़ी-तलाबों में रोज-ब-रोज लाशें मिलती हैं।
हाल ही मैहर(सतना) में मजूरी माँगने गई महिला को एक ठेकेदार ने इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई। डाक्टरों ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि उसके पेट में इतने लात-घूँसे पड़े कि आँतें फट गई। बेचारी पेट के वास्ते मजूरी माँगने गई थी उसका पेट ही फाड़ दिया..ले मजूरी। ऐसे मुसीबत के मारों के लिए लिए कैंडल जुलूस नहीं निकलते।
अभी एक अखबार पढ़ रहा था कि अपने मध्यप्रदेश में 11 प्रतिशत की ग्रोथरेट से दुराचार बढ़ रहे हैं। अपराधों का भी ग्रोथरेट से वास्ता होता है। बाजार और अपराध दोनों की ग्रोथरेट रेलपटरी की भाँति समानांतर चलती है।
काशी और मगहर की परंपरा आजादी के बाद और भी पुख्ता होती गई। इस हिसाब से देखें तो गाँव मगहर हैं और शहर काशी। इसीलिए गाँव का हर समर्थवान शहर में चैन से मरना चाहता है। गाँव वीरान होते जा रहे हैं। अब बच रहे हैं खेती से निष्कासित हो चुके बैल या कि वो किसान जिनका कोई घनीघोरी नहीं।
आजादी के बाद गाँधी ने कहा सुराज मगहर पहुँचे तभी तो असली आजादी का स्वाद मिलेगा। नेहरू ने सुराज को शहरों के परकोटे में घेर दिया। आर्थिक हदबंदी तो हुई ही साहित्यिक और साँस्कृतिक केंद्रीकरण भी हो गया। अपने गाँव अर्थव्यवस्था भर के ही कच्चामाल नहीं हैं, वे अब राजनीति, साहित्य, सँस्कृति के लिए भी हैं। गाँवों की दुर्दशा कथा, कविताओं, नाटकों, फिल्मों में परोसने से वाहवाही भी मिलती है दाम और इनाम भी। ओटीटी पर पंचायत सीरीज को कितनी वाहवाही मिल रही है। हमारे देश का प्रभुवर्ग काशी और मगहर की परंपरा को और भी संपुष्ट बनाए रखना चाहता है। काशी में रहने का सुख तभी तक सुख है जबतक नरक भोगने वालों के लिए मगहर साबुत बचा रहे।
गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में भी बड़े और रचनात्मक काम हो रहे हैं पर वे चर्चाओं से खारिज रहते हैं। उनके हिस्से का यश महानगर हड़प लेते हैं। मध्यप्रदेश के कटनी जैसे छोटे शहर में भी लिटफेस्ट और पुस्तकमेला भरा करता है तो सीधी में सौ दिन का महाउर उत्सव होता है। मुझे वहां जाने, भाग लेने और कुछ टूटेफूटे शब्द बयान करने का सौभाग्य मिलता रहता है। पुस्तकों और रंगकर्म के प्रति इन छोटे से नगरों के लोगों का प्रेम स्तुत्य होता है।
गाँवों में रहकर रचना व रंगकर्म करने वाले कवि-कलाकारों ने अपनी-अपनी प्रस्तुतियाँ देते हैं। मैं पक्के यकीन के साथ कह सकता हूँ- यदि इन लोगों की प्रस्तुतियाँ जयपुर या दिल्ली के लिटफेस्ट में होता तो ये भी राष्ट्रीय हो जाते। जयपुर के लिटफेस्ट में जयपुर का महात्म है साहित्य का नहीं। वो एक साहित्यिक पर्यटन है जिससे नामाजादिक साहित्यकार और विचारक खिंचे चले आते हैं। रात में दारूपार्टी और सुबह खुमारी में राष्ट्र और समाज के नैतिक पतन पर गंभीर चिंतन। इन चिंतनों में हर साल जानबूझकर कुछ ऐसी कलाकारी कर दी जाती है कि वे विवाद के रूप में महीनों खबरों में छाए रहते हैं।
खबरों में छाने के लिए विवाद जरूरी है और ये पहले से ही फिक्स रहते हैं। आयोजन होते हैं विमर्श के लिए, बाहर निकलकर आते हैं विवाद। सो मेरी दृष्टि में कटनी ज्यादा अहम् है बनिस्बत जयपुर के। ऐसे आयोजन शहर की पहचान बनाते हैं। दूसरे कस्बों को भी कटनी से प्रेरणा लेना चाहिए।
देश का अत्यंत पिछड़ा जिला है सीधी। जमीन के भीतर विपुल कोयला भंडार और घने जंगल न होते तो इस जिले को कोई जानने की जरूरत भी नहीं समझता, सरकार भी नहीं। जाने के लिए खास साधन भी नहीं। उखड़ी सड़कें और धूल धक्कड़ से अटा पड़ा कस्बेनुमा जिला जिसे राजनीति में अर्जुन सिंह के कारण जाना जाता रहा है। इसी सीधी में रंगमंच के क्षेत्र में बड़ा काम हो रहा है। बड़ा याने विश्वस्तर का। पिछले सालों 111 दिन के रंगमंच का अनुष्ठान महाऊर रचा जा रहा है। पूरे देशभर से कलामंडलियाँ आईं। हर दिन दर्शक उमड़े और दूसरी भाषाओं के भी नाटक देखे। संभवतः इस आयोजन को गिनीज बुक में भी जगह मिल चुकी है या मिलने की प्रक्रिया में है।
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सीधी के सीधेसाधे तीन छोकरे मिलकर प्रयास कर रहे हैं। इनके खजाने में हजारों की संख्या में लोकगीत,लोकनाट्य, लोककथाएं, संस्कृति और परंपरा के आख्यान हैं। ये वो काम कर रहे हैं जिनके लिए सरकारें कला अकादमियाँ खोला करती हैं। बड़ा काम छोटी जगह भी हो तो ज्यादा दिन दबाए नहीं दबता। आज स्थिति यह है कि जो भी रंगमंच जानता है वह सीधी को अवश्य ही जानता है। इस जानने के पीछे सीधी का महात्म नहीं है, रंगकर्म और यहां के कलाकारों का परिश्रम है। इसलिए सीधी का महाउर रंगजगत की सुर्खियाँ बने न बने लेकिन यह भारत भवन और एनएसड़ी की प्रतिष्ठा से किसी भी सूरत में कम नहीं।
कभी-कभी छोटे शहरों के ये काम बड़े लोगों को अखरने लगता है। उसका परिणाम भी सीधी जैसी निंदनीय घटना सा होता है। यहां के एक नेता जी उन रंगकर्मियों से इसलिए गुस्सा गए कि वे अब पहले की तरह सिर्फ उनके लिए ही क्यों नहीं गाते बजाते। शहर हमारा, रसूख हमारा और कोई दूसरा मुख्य अतिथि बने, भाषण दे यह कैसे संभव है। नेता जी ने पुलिस को लखा दिया सो पुलिस ने उन्हीं रिकार्डधारी रंगकर्मियों की नंगी परेड़ निकाल दी। फोटो खींची और सोशल मीडिया में निपर्द कर दिया। मगहर को ऐसे खतरों से प्रायः बबास्ता होना ही पड़ता है। पर मगहर की महत्ता यूँ ही तो खारिज नहीं की जा सकती।
मेरी मूल चिंता काशी और मगहर की संस्कृति के बने रहने की है। आजादी और अँग्रेजों के पहले यह नहीं था। मध्ययुग के प्रायः सभी कवि, कलाकार, सर्जक छोटी जगहों के थे। तुलसी को काशी के पंडों ने तंग किया तो वे चित्रकूट आ गए। रामचरित मानस यहीं पूरी की। सूर भी किसी महानगर में नहीं रहे। पर तब गुन के गाहक थे, इसलिए ये और इनके समकालीन आज तक चलते चले आए। अब जगह का महत्व ज्यादा है। जो जितने बड़े शहर में रहे, वो उतना बड़ा कलाकार। इसीलिए मैं अक्सर ये विनती करता हूँ- हे दिल्ली के देवों अपनी-अपनी काशी पर प्रमुदित तो रहो पर हम मगहर वासियों की भी सुधि ले लिया करो कभीकभार।