निष्ठा पर भारी राजनैतिक भविष्य…!

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परिवारवाद की राजनीति से परहेज करने का फरमान सुना चुकी भारतीय जनता पार्टी में नेतापुत्र अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर चिंतित हैं। इसकी बानगी दमोह में भाजपा का प्रतीक रहे मलैया परिवार के चिराग सिद्धार्थ मलैया के पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा देने में दिख रही है। दमोह उपचुनाव में मलैया परिवार की भूमिका पर सवालिया निशान लगे थे। अनुशासनात्मक कार्यवाही के दायरे में सिद्धार्थ भी आए थे।
पर पार्टी छोड़ने का फैसला कोई इतनी आसानी से नहीं ले सकता। खास तौर पर ऐसा परिवार जिसे पार्टी ने सब कुछ दिया हो और जिसने पार्टी के लिए भी बहुत कुछ किया हो। पर मध्यप्रदेश में शायद सिद्धार्थ ने जिस राह पर कदम बढ़ाया है, हो सकता है कि 2023 विधानसभा चुनाव से पहले वह सभी नेतापुत्र यह रास्ता अख्तियार करते दिखें…जिनके पिता का राजनैतिक कैरियर अस्तांचल की ओर है और पुत्र को विरासत हस्तांतरित होने के दरवाजे पार्टी ने पूरी तरह से बंद कर दिए हैं।
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मध्यप्रदेश भाजपा में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के बेटे को टिकट न मिलना, जुगल किशोर बागरी के परिवार का टिकट से वंचित होना संकेत थे कि पार्टी परिवारवाद को ढोने का काम नहीं करेगी। यह तब सौ टका साफ हो गया, जब ज्योतिरादित्य सिंधिया का बयान आया कि उनके परिवार में हमेशा एक ही व्यक्ति राजनीति में रहा है यानि कि परिवार में जब तक वह सक्रिय राजनीति में हैं, तब तक बेटा राजनीति में टिकट की दौड़ से दूर है। और राजनीति में वैसे तो अवसरवादिता की झलक हमेशा मिलती रही है, लेकिन 21वीं सदी की राजनीति तो ताल ठोककर मैदान में चिल्ला रही है कि “निष्ठा से पेट नहीं भरता साहब, जहां राजनैतिक भविष्य दिखे वही डगर चलना मजबूरी है और हम ताल ठोककर वही राह चलेंगे”।
पूर्व वित्त मंत्री जयंत मलैया के पुत्र सिद्धार्थ मलैया ने जहां भारतीय जनता पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दिया है, तो पार्टी का दामन थामने वाले नेताओं की कमी नहीं है। बीएसपी के भिंड विधायक संजीव सिंह कुशावह के दो विधायकों के साथ भाजपा में शामिल होने की खबर करीब-करीब पुख्ता है। सो जाने वालों की पार्टी को चिंता नहीं है और आने वालों के लिए पार्टी के दरवाजे हमेशा खुले हैं।
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जाने वाले को कोई रोक नहीं पाया और आने वाला आकर ही रहता है…चाहे फिर कुछ भी हो जाए। जहां तक बात विचारधारा की है, तो सिद्धार्थ ने भी दावा किया है कि भाजपा की विचारधारा को वह नहीं छोड़ेंगे। भाजपा के लिए यह गर्व की बात है कि दूसरे दलों से आने वाले नेता जल्दी ही भाजपा की विचारधारा में ढल जाते हैं और पार्टी छोड़ने वाला विचारधारा से अलग नहीं हो पाता। पूर्व मंत्री सरताज सिंह ने 2018 में पार्टी छोड़ कांग्रेस का दामन थामा था, लेकिन जब भी उनसे बात हुई तब उन्होंने यही कहा कि भाजपा संगठन जैसी बात कहीं और नहीं।
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बाद में उन्होंने वापस भाजपा का दामन थाम भी लिया। या भाजयुमो के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे धीरज पटैरिया जैसे नेता भी हैं, जो अल्प समय के लिए कांग्रेस में गए लेकिन कांग्रेस जल्द ही छोड़ भी दी और अब पार्टी में वापसी का इंतजार लंबे समय से कर रहे हैं। वजह यही कि भाजपा की विचारधारा से अलग नहीं हो पाए। इसके उलट कांग्रेस से भाजपा में आने वाले नेताओं की लंबी फेहरिस्त है कि वह पूरी तरह से पार्टी के होकर रह गए। तो भाजपा छोड़कर नई पार्टी बनाने वाले नेताओं को भी तब चैन मिला, जब वापस लौट आए। यानि कि साहब कुछ तो है भाजपा में और इस कैडर बेस पार्टी की विचारधारा में।


पर अभी बात हो रही है उन नेतापुत्रों की, जो पार्टी की परिवारवाद को ठेंगा दिखाने वाली गाइडलाइन आने और उसका सख्ती से पालन होने के बाद निराश हैं। और उनकी भाजपा से निष्ठा पर राजनैतिक भविष्य की लालसा भारी पड़ रही है। सिद्धार्थ ने 2023 विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी छोड़कर शायद यही जताया है। सतना सांसद गणेश सिंह के भाई ने भी भाजपा को आइना दिखाने की कोशिश की है।
हालांकि इससे पहले पार्टी में परिवारवाद की लंबी फेहरिस्त है। इनमें वर्तमान नेता भी शामिल हैं, जो पदों पर आसीन हैं। जिन्होंने खूब दिल खोलकर फायदा उठाया है और कई काबिल कार्यकर्ताओं का हक भी मारा है। पर देर आयद दुरुस्त आयद कहें या फिर यह कहें कि हुजूर आते-आते बहुत देर कर दी, लेकिन भाजपा का परिवारवाद से मुंह मोड़ना आम कार्यकर्ताओं के साथ-साथ पार्टी के हित में है।
“अवसरवादिता” के लिए सौ दरवाजे खुले मिल सकते हैं, जो बार-बार निष्ठा बदलकर राजनैतिक भविष्य तरासने का अवसर भी बन सकते हैं… लेकिन ऐसे राजनैतिक भविष्य संवारने के लिए निष्ठा बदलने वाले नेताओं का नाम भाजपा में अटल, आडवाणी या पंडित दीनदयाल उपाध्याय और कुशाभाऊ ठाकरे की सूची में शामिल नहीं हो सकता। जिनका नाम पार्टी कार्यकर्ता हमेशा सम्मान से लेते हैं और जब तक पार्टी है, तब तक लेते रहेंगे।