By-election
हांडी के चावल की तरह देखा जाए तो मध्य प्रदेश में सत्ता और विपक्ष की राजनीति बचकाना स्तर तक जाती हुई दिख रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उम्रदराज हुए पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ को बुज़ुर्ग, बीमार और थका हुआ बताया तो जवाब में वे कहते हैं शिवराज सिंह चौहान चाहे तो मेरे साथ रेस लगा के देख लें। पता नही मुख्यमंत्री चौहान कमलनाथ की यह चुनौती स्वीकार करते हैं या नही लेकिन इतना तो तय है कि प्रदेश की राजनीति में सरकार को जनहित के मुद्दों पर घेरने के बजाय स्कूली बच्चों जैसे बयानबाजी हो रही है।
सबको पता है कि शिवराज सिंह कमलनाथ की सरकार को गिराकर सत्ता की रेस में चौथी बार मुख्यमंत्री बन बाजी अपने नाम कर चुके हैं। अच्छा होता कि पंद्रह महीने मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ भाजपा सरकार की बहुत सी कमियों से वाकिफ हैं और वे उन्हें मुद्दा बनाकर जनता के बीच जाते और सरकार को जनहित के निर्णय करने के लिए विवश करते। लेकिन जनता के बीच उनकी ग़ैरहाज़री को भाजपा ने कांग्रेस नेतृत्व की कमज़ोरी का विषय बनाकर मजे लेना शुरू कर दिया है।
कमलनाथ की कांग्रेस कार्यकर्ता से संवादहीनता और फील्ड के बजाय चैम्बर पॉलिटिक्स के साथ ज़्यादातर प्रदेश के बाहर रहना कांग्रेस के लिए कमज़ोर कड़ी साबित हो रहा है। यह अलग बात है की दमोह उपचुनाव में ज़बरदस्त जीत हासिल कर टीम कमलनाथ ने भाजपा को चारो खाने चित्त कर दिया है। हालांकि इस पराजय पर भाजपाई कांग्रेस को श्रेय देने के बजाय पार्टी के असंतोष को बड़ी वजह बताते हैं।
प्रदेश की जनता तो प्रभु से यही कामना करती है कि कमलनाथ जी 100 साल तक सक्रिय रहे, चिर युवा बने रहें, वेटरन के ओलम्पिक में रेस लगाकर भारत के लिए गोल्ड लेकर आएं…लेकिन इन उपलब्धियों के साथ वे सूबे की सियासत में सदन से लेकर सड़क तक सक्रिय रहें, जनसंघर्ष करें। बयानबाजी के साथ उस जनता के सुख-दुख में साथ रहें जिसके वे 15 महीने तक मुख्यमंत्री रहे थे।
दूसरी तरफ कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ज़रूर भाजपा को नोटबन्दी के नफे नुकसान से लेकर महंगे होते डीज़ल पेट्रोल और बढ़ती बेरोज़गारी के साथ फाइटर प्लेन राफेल की खरीदी पर सरकार को जमकर घेरते हैं। लेकिन अल्पसंख्यक वर्ग की तरफदारी की कोशिश में संघ परिवार और राम मंदिर निर्माण के मसले पर हमला कर बहुसंख्यक वर्ग में खुद के साथ कांग्रेस को भी आलोचना की वजह बना लेते हैं। श्री सिंह की सक्रियता को लेकर ज़रूर आम धारणा यह है कि वे भारतीय राजनीति में 74 वर्ष के युवा हैं। इन दिनों वे राजस्थान और गुजरात से लेकर दिल्ली तक की यात्रा कर रहे हैं।
By-election : भाजपा के लिए मुश्किल के मैदान…
इकतालीस साल की भाजपा मध्यप्रदेश में अब तक के सबसे मुश्किल दौर में दिख रही है। सबसे अहम बात विधानसभा के तीन और एक खंडवा लोकसभा उपचुनाव में प्रत्याशी चयन और प्रबंधन की है। दरअसल पार्टी दमोह उपचुनाव में जिस कांग्रेस को मरगिल्ली बताती थी उससे करीब 18 हजार वोटों से पटखनी खा चुकी है। इसके बाद मसला अब अक्टूबर में होने वाले उप चुनाव को लेकर उलझा हुआ है। सरकार और संगठन की साख दांव पर लगी है। मात मिलने के हालात में एकदूसरे पर आरोपों की तैयारी भी चल रही है। जो सीन है उस हिसाब से सिरफुटौव्वल के नजारे दिखे तो किसी को हैरत नही होगी। कुल मिलाकर अनाड़ी का खेलना और खेल का सत्यानाश वाले हालात है।
Also Read: CMO को हटाने के लिए अध्यक्ष व पार्षदों ने किया निंदा प्रस्ताव पारित
पीढ़ी परिवर्तन के प्लान को जिस तरह से अमली जामा पहनाया जा रहा है उसे लेकर पार्टी में खासा असन्तोष है। बड़े पैमाने पर पुराने जमीनी कार्यकर्ताओं को दरकिनार किया जाना पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं। पुराने कार्यकर्ता हाशिए पर हैं। नए पदाधिकारी पुरानों को और पुराने नए कर्णधारों को जान- समझ नही पा रहे हैं। ज्यादतर एकदूसरों को पहचान नही पा रहे हैं।
ऐसे में जिन दिग्गजों को पहचान की यह पहेली हल करना है उनके लिए ये तो पिछले दस सालों से यह सब ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे सवालों की तरह लग रहा है। खास बात यह है कि उनकी लाइफ लाइनें नही बची हैं। जो प्रभारी रहे हैं उनके पास भी बताने के लिए शायद कुछ नही बचा। भाजपा नेतृत्व ने पिछले पन्द्रह वर्षों में बतौर सुधार दवा के तौर पर जो भी प्रभारी भेजे वे बेचारे ही साबित हुए। दमोह उपचुनाव की करारी शिकस्त ने पहले ही पार्टी के तोते उड़ा रखे हैं।