कैसे एक मिशनरी हिन्दी की अहर्निश सेवा में जुट कर रामभक्त बना
आपने भी बचपन में हिंदी सीखने के लिए और कठिन अंग्रेजी शब्दों के हिंदी मायने समझने के लिए फादर कामिल बुल्के की डिक्शनरी का उपयोग किया होगा। आज उन्हीं अहिन्दीभाषी हिन्दी सेवी फादर कामिल बुल्के का पुण्यतिथि है। आज से 40 साल पहले उन्होंने हिंदी की अहर्निश सेवा करते हुए नई दिल्ली में प्राण त्याग दिए थे।फादर कामिल बुल्के ( Father Kamil Bulcke 1 सितंबर 1909 – 17 अगस्त 1982) बेल्जियम से जब भारत आये तो थे एक मिशनरी के रुप में यानी भारत में ईसाइयत का प्रचार प्रसार करने।पर भारत आकर उन्होंने मृत्यु पर्यन्त हिंदी की सेवा की और तुलसी और वाल्मीकि के भक्त हो गए। ईसाई होने के बावजूद वे संस्कृत महारानी मानते थे और हिन्दी को बहूरानी और अंग्रेजी को नौकरानी। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में एक गांव रामस्केपेल में हुआ था।इनके पिता का नाम अडोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन बिताने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी।
बुल्के ने पहले से ही ल्यूवेन विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी डिग्री हासिल कर ली थी। 1930 में ये एक जेसुइट बन गए। नीदरलैंड के वलकनबर्ग, (1932-34) में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण करने के बाद, 1934 में वे भारत की ओर निकल गए और नवंबर 1936 में मुम्बई पहुंचे। दार्जिलिंग में एक संक्षिप्त प्रवास के बाद, उन्होंने गुमला (वर्तमान झारखंड) में पांच साल तक गणित पढ़ाई। वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी। 1938 में, सीतागढ़/हजारीबाग में पंडित बद्रीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। उन्होंने एक लेख में लिखा था- 1935 में मैं जब भारत पहुंचा, मुझे यह देखकर आश्चर्य और दुःख हुआ, मैंने यह जाना कि अनेक शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से अंजान थे और इंग्लिश में बोलना गर्व की बात समझते थे। मैंने अपने कर्तव्य पर विचार किया कि मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा।
इन्होंने ब्रह्मवैज्ञानिक प्रशिक्षण (1939-42) भारत के कुर्सियॉन्ग से किया,1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की। 1941 में इन्हें पुजारी की उपाधि दी गयी । भारत की शास्त्रीय भाषा में इनकी रुचि के कारण इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय (1942-44) से संस्कृत में मास्टर डिग्री और आखिर में इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1945-49) में हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, इस शोध का शीर्षक था राम कथा की उत्पत्ति और विकास ।
1950 में वे पुनः रांची आ गए। संत जेवियर्स महाविद्यालय में हिंदी व संस्कृत का विभागाध्यक्ष का पद संभाला। सन् 1950 में बुल्के ने भारत की नागरिकता ग्रहण की। इसी वर्ष वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुए। सन् 1972 से 1977 तक भारत सरकार की केंद्रीय हिन्दी समिति के सदस्य बने रहे। वर्ष 1973 में इन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया।
पेशे से इंजीनियर रहे बुल्के का ब्योरेवार तार्किक वैज्ञानिकता पर आधारित शोध संकलन “रामकथा: उत्पत्ति और विकास” स्थापित करता है कि राम वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं, इतिहास पुरूष थे। तिथियों में थोड़ी बहुत चूक हो सकती है। बुल्के के इस शोधग्रंथ के उद्धरणों ने पहली बार साबित किया कि रामकथा केवल भारत में नहीं, अंतर्राष्ट्रीय कथा है। वियतनाम से इंडोनेशिया तक यह कथा विस्तारित है। इसी प्रसंग में फादर बुल्के अपने एक मित्र हॉलैन्ड के डा. होयकास का हवाला देते थे। डा० होयकास संस्कृत और इंडोनेशियाई भाषाओं के विद्वान थे। एक दिन वे केंद्रीय इंडोनेशिया में शाम के वक्त टहल रहे थे। उन्होंने देखा एक मौलाना जिनके बगल में कुरान रखी है, इंडोनेशियाई रामायण पढ़ रहे थे।
होयकास ने उनसे पूछा, मौलाना आप तो मुसलमान हैं, आप रामायण क्यों पढते हैं। उस व्यक्ति ने केवल एक वाक्य में उत्तर दिया- और भी अच्छा मनुष्य बनने के लिये! रामकथा के इस विस्तार को फादर बुल्के वाल्मीकि की दिग्विजय कहते थे, भारतीय संस्कृति की दिग्विजय!
17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गयी थी।