न्याय और कानून: न्यायाधीशों की नियुक्ति और राष्ट्रपति के अधिकार

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भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में यह प्रावधान है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की संख्या जिसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए आवश्यक समझे, उन सबसे परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। लेकिन, सिर्फ यही नहीं होता। इतिहास गवाह है कि इसके अलावा और भी बहुत से फैक्टर होते हैं, जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में शामिल होते हैं।

अनुच्छेद 217 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधिपति और राज्य के राज्यपाल के परामर्श से की जाएगी। मुख्य न्यायाधीश के अलावा किसी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से भी परामर्श किया जाएगा। यदि किसी वकील को उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत किया जाता है तो सरकार की भूमिका इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) द्वारा जांच कराने तक ही सीमित है। यह कॉलेजियम की पसंद के बारे में आपत्तियां उठा सकता है और स्पष्टीकरण भी मांग सकता है। लेकिन अगर कॉलेजियम उन्हीं नामों को दोहराता है तो सरकार संविधान पीठ के फैसलों के तहत उन्हें न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने के लिये बाध्य है।

इस व्यवस्था की खामियों के बारे में समय-समय पर मुद्दे उठते रहे हैं। कामकाज के लिए लिखित मैनुअल का अभाव, चयन मानदंड का अभाव, पहले से लिए निर्णयों में मनमाने ढंग से उलटफेर, बैठकों के रिकॉर्ड का चयनात्मक प्रकाशन कॉलेजियम प्रणाली की पारदर्शिता की कमी को साबित करता है। कोई नहीं जानता है कि न्यायाधीशों का चयन कैसे किया जाता है। इस प्रकार की नियुक्तियों ने औचित्य, आत्म-चयन तथा भाई-भतीजावाद जैसी चिंताओं को जन्म दिया है। न्याय जगत में कुछ लोग यह भी मानते हैं कि यह प्रणाली कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी करती है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अनुचित राजनीतिकरण से न्यायिक नियुक्ति प्रणाली की स्वतंत्रता की गारंटी दे सकता है। नियुक्तियों की गुणवत्ता को बेहतर कर सकता है। साथ ही इस प्रणाली में जनता के विश्वास का पुनर्निर्माण कर सकता है। जब स्वर्गीय प्रसिद्ध वरिष्ठ अधिवक्ता राम जेठमलानी जब कानून मंत्री थे तब उन्होंने इस आयोग की वकालत की थी तथा उन्होंने इसके लिए काफी प्रयास भी किए।

केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थानांतरण के लिए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था। इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप है। उल्लेखनीय है कि शीर्ष न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली में व्यापक पारदर्शिता लाने की बात लंबे समय से होती रही है। सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना है कि जजों की योग्यता का निर्धारण/आकलन करना न्यायपालिका का जिम्मा है।

अभी हाल ही में सेवानिवृत्त हुए मुख्य न्यायाधिपति एनवी रमन्ना ने एक समारोह में कहा था कि भारत में न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, यह धारणा गलत है। ये नियुक्तियां एक लंबी परामर्श प्रक्रिया के माध्यम से होती है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने कॉलेजियम व्यवस्था का बचाव किया। कॉलेजियम प्रणाली जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है। इसमें कई हितधारकों के साथ विचार-विमर्श किया जाता है। उन्होंने कहा कि न्यायिक नियुक्तियों पर उच्चतम न्यायालय के फैसले पीछे जनता के विश्वास को बनाये रखने का उद्देश्य होता है। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि चयन की प्रक्रिया आज से ज्यादा लोकतांत्रिक नहीं हो सकती है।

भारत के संविधान में इस बात की व्यवस्था नहीं है कि देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कैसे की जानी चाहिए या कैसे की जा सकती है। अनुच्छेद 124 (1) कहता है कि भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा, जिसमें भारत के एक मुख्य न्यायाधीश होंगे। लेकिन, इस अनुच्छेद में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की योग्यता और उसकी नियुक्ति क्या होगी इस पर विस्तार से चर्चा नहीं की गई है। भारत के मुख्य न्यायाधिपति की नियुक्ति को लेकर संवैधानिक प्रावधान न होने की वजह से ही सर्वोच्च पद की नियुक्ति के लिए अभी तक पिछली परंपराओं का सहारा ही लिया जा रहा है। मौजूदा मुख्य न्यायाधिपति के सेवानिवृत्त होने पर वरिष्ठ न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के स्थान पर उनकी जगह लेंगे। यहां पर मुख्य न्यायाधीश का चयन उनकी उम्र से नहीं बल्कि इस बात से तय किया जाता है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज कब नियुक्त किया गया। लेकिन, इसमें सबसे रोचक तथ्य यह है कि वही जज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश होंगे जो लंबे समय से सुप्रीम कोर्ट में है। वो उतने ही वरिष्ठ माने जाते हैं।

कई बार दो जज एक ही दिन शपथ लेते हैं। तब कुछ उलझन होती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की सुप्रीम कोर्ट में नियुक्ति उसी दिन हुई थी, जिस दिन जस्टिस चेलमेश्वर नियुक्त किए गए थे। लेकिन, उम्र में 4 महीने छोटे होने के बावजूद दीपक मिश्रा अगस्त 2017 को भारत के मुख्य न्यायाधीश बने। ऐसी स्थिति में वरिष्ठता तय करने के लिए कई और चीजें भी काम करती है। इस दौरान यह भी देखा जाता है कि किस जज को पहले शपथ दिलाई गई थी। इसी को आधार बनाकर जस्टिस मिश्रा और चेलमेश्वर में से जस्टिस मिश्रा का चुनाव मुख्य न्यायाधीश के लिए हुआ था। साल 2000 में इसी आधार पर न्यायमूर्ति रूमा पाल और न्यायमूर्ति वायके सभरवाल के बीच फैसला हुआ था। इसके साथ यह भी देखा जाता है कि किस जज ने हाईकोर्ट में ज्यादा वक्त तक सेवा दी है।

यह भी देखा जाता है कि किस जज को सीधे बार ने नॉमिनेट किया गया है। यह भी देखा जाता है कि किसने पहले हाईकोर्ट के जज के रूप में काम किया है। ऐसी स्थिति में हाईकोर्ट में काम करने का अनुभव रखने वाले जज को भारत के मुख्य न्यायाधिपति पद के लिए प्राथमिकता दी जाती है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए ये परंपरा पुराने समय से चली आ रही है। इसकी सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रकरण में पुष्टि भी की थी। इसमें बहुमत की राय के साथ कहा गया था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते हुए सबसे वरिष्ठ जज को ही इसके लिए उपयुक्त माना जाना चाहिए।

जिस प्रकार इस बार केंद्र सरकार ने मुख्य न्यायाधीश से उनके उत्तराधिकारी के बारे में पूछा है, ठीक उसी प्रकार हर बार केंद्रीय कानून, न्याय और कंपनी मामलों का मंत्रालय मुख्य न्यायाधीश से राय मांगता है। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठतम जज के नाम की सिफारिश करते हैं जिसमें उन्हें मुख्य न्यायाधीश बनाने की योग्यता को लेकर कोई संदेह नहीं होता है। यही नहीं मुख्य न्यायाधीश आगामी मुख्य न्यायाधीष के लिए काॅलेजियम से भी बात करते हैं और राय लेते हैं। मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश के बाद कानून मंत्रालय इसे आगे बढ़ाता है और वह नाम प्रधानमंत्री के पास जाता है। वहां से यह जानकारी राष्ट्रपति तक पहुंचाई जाती है। इस पूरी प्रक्रिया के बाद इस पद पर मुहर लगती है और फिर राष्ट्रपति उन्हें शपथ दिलाते हैं। मुख्य न्यायाधीश के चयन की प्रक्रिया में कानून मंत्री और प्रधानमंत्री की भागीदारी के साथ कॉलेजियम का भी अहम रोल होता है। सरकार कॉलेजियम के फैसले पर दोबारा विचार के लिए वापस भेज सकती है। अगर कॉलेजियम दोबारा उसी नाम को भेजती है तो सरकार फिर उसका विरोध नहीं कर सकती है।

सुप्रीम कोर्ट की स्थापना 1950 में हुई थी। अब तक देश में 45 मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किए जा चुके हैं। हर बार वरिष्ठता की परंपरा को ही अपनाया गया है। लेकिन, हर काम में अपवाद होता ही है। सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश के चयन को लेकर भी ऐसे अपवाद रहे हैं। इसमें प्रमुख रही है न्यायाधीश एएन रे और न्यायाधीश एमएच बेग की नियुक्ति। न्यायाधीश एएन रे की नियुक्ति 25 अप्रैल 1973 को हुई थी। एसएम सीकरी के रिटायर होने के बाद सारे नियमों को ताक में रखकर मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किए गए थे। न्यायमूर्ति एएन रे को न्यायाधीश जेएम शेलट, जस्टिस केएस हेगड़े और न्यायाधीश एएन ग्रोवर की वरिष्ठता को ताक पर रखकर यह पद दिया गया था। हमारे देश में कहा जाता है कि मुख्य न्यायाधीश के चयन में प्रधानमंत्री का कोई रोल नहीं होता है। लेकिन, जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और मुख्य न्यायाधीश एएन रे रिटायर होने वाले थे, तब न्यायपालिका की सारी परंपराओं और वरिष्ठता को नजरअंदाज करके एमएच बेग को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था। बताते हैं कि परंपरा के लिहाज से उस समय के सबसे वरिष्ठ जज एचआर खन्ना थे। लेकिन, वह श्रीमती गांधी को पसंद नहीं थे।