सच्ची बात यही है कि ‘आरक्षण’ निदान नहीं, मर्ज ही बढ़ाएगा…
आरक्षण पर बहस होती है और बिना निष्कर्ष के खत्म भी हो जाती है। माजरा वहीं पर मात खा जाता है, जहां पर राजनीतिक हितों का स्वार्थ राजनेताओं के दिमाग पर भारी पड़ उन्हें सत्ता से दूर होने का खौफ दिखा मूर्छित करने लगता है। और सबसे बड़ी बात यह कि क्रांतिकारी फैसले करने वाली मोदी सरकार भी यहां पर मात खाती नजर आ रही है। याद आता है कि संघ की तरफ से बिहार चुनावों के समय आरक्षण का राग अलापा गया था, तो मतदाताओं के ट्रेंड का जो भूचाल आया था…उसने मुद्दे को वही रफा-दफा करने पर मजबूर कर दिया था। उसके बाद ही आरक्षण के मसले पर मोदी सरकार का चेहरा क्या रहेगा, यह साफ हो गया था। यह पढ़कर कांग्रेस, आम आदमी पार्टी या किसी अन्य राजनैतिक दल के नेताओं को फीलगुड करने की जरूरत कतई नहीं है…क्योंकि उनकी बाजुओं में भी उतना दम नहीं है कि आरक्षण जैसे बाहुबली से खली बनकर निपटने का वह मन भी बना सकें। यहां पर सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दल अपने स्वार्थ के लिए जीतते हैं और राष्ट्र हार जाता है। ऐसा नहीं है कि क्रांतिकारी कदम उठाने वालों को हमेशा खामियाजा ही भुगतना पड़ता है। मोदी सरकार गवाह है कि जीएसटी, नोटबंदी, अग्निवीर जैसे कितने ही क्रांतिकारी फैसले लेने का साहस या दुस्साहस बिना माथे पर सिकन लाए ले लिए गए और जनता ने भाजपा को समर्थन का अपना फैसला और ज्यादा उत्साह दिखाते हुए बरकरार रखा। पर एक आरक्षण के मुद्दे पर सभी सरकारें राजनैतिक लाभ के संसार में गुम होती नजर आती हैं।
तकलीफ इस बात की कतई नहीं है कि सवर्णों को नौकरियों में आरक्षण आर्थिक आधार पर मिलने की सौगात दी जा रही है या ओबीसी को मिल रहे आरक्षण में बढ़ोतरी का मसला पार्टियों की प्राथमिकता है या फिर एससी, एसटी को आरक्षण का तोहफा सात दशक से ज्यादा समय से जारी है। यह हमारी खुशनसीबी है कि आजादी के 75 साल बाद अमृतकाल में देश में अब तो हर जाति, वर्ग, संप्रदाय में सर्व सुविधासंपन्न वर्ग तैयार हो चुके हैं। यदि मानवता और समाज-जाति विशेष का होने के नाते भी अगर मन में स्वबंधुओं के प्रति सद्भाव, प्रेम और भाईचारा पैदा हो जाए, तब भी हर समाज के लोग जीवन की सारी समस्याओं से मुक्ति पा लें। पर इंसान होने के नाते यह बहुत दूर की कौड़ी है, क्योंकि कभी संयुक्त परिवार के ताने-बाने में गुंथे भारतीय समाज में अब हम और हमारे दो या हम और हमारा एक या हम दो…के अलावा कोई राग नजर नहीं आता। मुझे एक कस्बे का वह दृश्य याद आ जाता है कि मैं किसी मंत्री के साथ उनके क्षेत्र के कस्बे में था। एक बड़े मकान में स्वागत था। उसके बगल में एक अति गरीब की झोपड़ी थी। बाकी सब मकान बड़े-बड़े थे और समृद्धि का अहसास करा रहे थे। और सब समृद्ध लोगों की मानवीयता देखो कि मंत्री जी से सब गुहार लगा रहे थे कि झोपड़ी में एक वृद्ध महिला, उसका दिव्यांग बेटा और दिव्यांग बहू रहते हैं। बारिश का पानी पूरी झोपड़ी में भर जाता है। इसकी मदद करो आप, ताकि प्रधानमंत्री आवास में इसकी मदद हो जाए। मैंने वहां के लोगों से पूछा कि क्या समृद्ध लोगों की बस्ती एक-एक हजार की मदद कर भी इन गरीबों की स्थिति नहीं सुधार सकती। जवाब मिला कि लोगों को यह समझाने वाला नहीं है। तो आरक्षण के मुद्दे पर भी कोई वास्तव में समझाने वाला नहीं है ताकि सही स्थिति सामने आए। लोग खुद ही अपनों की मदद कर समाज और राष्ट्र के उन्नयन में सहभागी बन सकें।
खैर आरक्षण पर भी लंबी-चौड़ी बहसें हो चुकी हैं कि जिन परिवारों को आरक्षण का लाभ मिल चुका है, उन्हीं के परिजन और उत्तराधिकारी आरक्षण के लाभ का फायदा उठा रहे हैं…बाकी सभी वंचित हैं और दुर्दशा का शिकार हैं। तब भी सरकार रूपी विक्रम की पीठ खुद को आरक्षण रूपी बेताल के बोझ से मुक्त होने के दृश्य की कल्पना कर ही कांपने लगती हैं? आरक्षण खत्म करने से हारकर अब नया विकल्प सवर्णों में आर्थिक कमजोर वर्ग को आरक्षण के रूप में सामने आया है। ताकि इस वर्ग के मतदाताओं को भी प्रीति की मजबूत डोर का हवाला दिया जा सके। जबकि यह सभी को पता है कि नौकरियों में आरक्षण किसी भी सूरत में समस्या का निदान नहीं है, बल्कि मर्ज को बढ़ाना ही है। राष्ट्र के साथ तो दूर यह हितग्राहियों के साथ भी न्याय की बात कतई नहीं है। यदि सरकार न्याय ही करना चाहती है तो ‘हर हाथ को रोजगार’ का संवैधानिक प्रावधान लागू कर दे। जिस व्यक्ति का रुझान जिस तरह के काम में हो और जैसी उसकी योग्यता हो, वह काम उसे योग्यता हासिल करने के मुताबिक देने की गारंटी सरकार की हो। तब आरक्षण जैसे मुद्दे खुद ही गौण हो जाएंगे और सरकार के सामने मुफ्त राशन, मुफ्त गैस कनेक्शन और मुफ्त आवास देने जैसी बाध्यता नहीं रहेगी। जो बजट बचेगा, उसमें ही हर परिवार के हर व्यक्ति को रोजगार जैसा प्रावधान आसमान छू लेगा। सरकार बहुत ही नेक इरादा रखती हो तो मुफ्त शिक्षा, मुफ्त इलाज जैसी सौगातें देश के हर नागरिक को मुहैया करा दे, जिस दिशा में किसी न किसी तरह से सरकार आगे बढ़ ही रही है। वैसे भी नौकरियों में आरक्षण जैसा लॉलीपॉप सौ में से पांच को भी संतुष्ट करने जैसा नहीं है।
और ईडब्ल्यूएस जैसा जिन्न तो समाज के लोगों को आपस में ही लड़ाएगा। जिस तरह बीपीएल की सुविधाएं हासिल करने के लिए लाखों अमीर गरीबी का सर्टिफिकेट पाकर मूंछों पर तांव देने से नहीं थकते, उसी तरह सवर्ण नौकरियों में आरक्षण पाने के लिए अमीरी पर पर्दा डालकर गरीबी का चौंगा ओढने का कोई अवसर नहीं गंवाना चाहेंगे। और राजनेता प्रोत्साहन और हरसंभव मदद देने के सारथी भी बने बिना नहीं रहेंगे। यही हाल दिव्यांगों का भी है। यदि जांच करा ली जाए तो आधे छद्म दिव्यांग आरक्षण की नौकरियों से मुक्त हो जाएं। हो सकता है कि ईडब्ल्यूएस के आधार पर सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण सरकार का दूरगामी फैसला हो। इस आधार पर भविष्य में हर जाति-वर्ग में आरक्षण की धुरी ईडब्ल्यूएस के चारों तरफ घूमती नजर आए। पर एक बात तय है कि आरक्षण न तो राष्ट्रवासियों की रक्षा करने में समर्थ है और न ही राष्ट्र की। यह निदान वाली बात नहीं, मर्ज बढ़ाने वाली काली रात ही साबित होगी। उजाला जब होगा, तब तक मंजिल को हम हजारों मीलों दूर आगे खिसका चुके होंगे।