अपनी भाषा अपना विज्ञान -‘विज्ञान – कितना सार्वभौमिक,कितना स्थानीय ?’

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अपनी भाषा अपना विज्ञान-‘विज्ञान – कितना सार्वभौमिक,कितना स्थानीय ?’

 

 

 

रिचर्ड डाकिन्स(UK) मेरे प्रिय विज्ञान लेखक हैं। उनकी अनेक पुस्तके मैंने पढ़ी है। The selfish Gene, The Extended Phenotype, The Blind Watchmaker, The God Delusion, The Greatest show on Earth, The Magic of Reality, An Appetite for wonder, Out growing god, Brief candle in the dark, Science in the soul

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चित्र – रिचर्ड डाकिन्स

डार्विन के विकासवाद के तथा वृहत्तर रूप से संपूर्ण समग्र विज्ञान के घनघोर समर्थक हैं। समग्र स्वरूप के घनघोर समर्थक हैं। उनके द्वारा प्रतिवर्ष एक प्रमुख नास्तिक को पुरूस्कार दिया जाता है। पिछले वर्ष जावेद अख्तर को चुना गया था।

उनसे जुड़े विवादों की कड़ी में नया अध्याय अभी जुड़ा। रिचर्ड डाकिन्स न्यूज़ीलैंड गए और वहां की सरकार की शिक्षा नीति के अंतर्गत एक निर्णय की कड़ी आलोचना करी।

शुरू में न्यूज़ीलैंड का थोडा सा इतिहास।

आस्ट्रेलियाँ महाद्वीप के दक्षिण पूर्व में, प्रशांत महासागर में स्थित दो बड़े द्वीपों से बना न्यूज़ीलैंड तेरहवीं शताब्दी तक वीरान था।

प्रशांत महासागर में छितरे हुए छोटे छोटे द्वीपों में रहने  वाले पालीनीसियन लोगों ने यहाँ बसना शुरू किया। उनकी जाति का नाम पड़ा “माओरी”। सभ्यता विकसित होने लगी। ज्ञान व् परम्पराएं पनपने लगी । शेष दुनियां से कटे हुए थे। 18वीं 19 वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने पहले आस्ट्रेलियां और फिर न्यूज़ीलैंड में कब्जा करना शुरू किया। मूल निवासियों का नरसंहार करा, जैसा कि उन्होंने उत्त्तरी अमेरिका में रेड-इन्डियन्स के साथ किया था।

आज की तारीख में न्यूज़ीलैंड की आबादी सिर्फ 51 लाख है जिसमें 72% गोरे यूरोपियन्स और 17% माओरी हैं।

पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी यूरोपियन और अमेरिकी गोरे लोगों में वामपंथी-उदार विचारधारा का प्रभुत्व बढ़ा है।

उपनिवेशवाद के प्रति नाराजगी, दुःख विरोध और अपराध बोध का भाव है। विभिन्न कालोनीज के मूल निवासियों की संस्कृति,इतिहास व जीवन मूल्यों के प्रति सम्मान की भावना जागृत हुई हैं।

इस उदार दृष्टि के सुपात्र बने है इस्लामिक जगत, अफ़्रीकी मूल के अश्वेत लोग, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका के “इंडियन्स”, आस्ट्रेलिया के “अबोरिजनीज” और न्यूज़ीलैंड के “माओरी”।

कुछ माह पूर्व न्यूज़ीलैंड शासन के शिक्षा विभाग ने फैसला किया कि स्कूल-कॉलेजों में विज्ञान शिक्षण  की आधुनिक परिपाटी के साथ-साथ पारंपरिक “माओरी-विज्ञान” भी पढ़ाया जावेगा।

माओरी जाति के अग्रणी विद्वानों और नेताओं द्वारा लम्बे समय से दावा किया जाता रहा है अंग्रेजों का उपनिवेश बन जाने के कारण हम मूल निवासियों की सोच प्रक्रिया और चिंतन शैली को कुचल दिया गया, हमारे ज्ञान को दकियानूसी और अन्धविश्वास कह कर नकार दिया गया। जबकि सच्चाई यह है कि विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं में सैकड़ों-हज़ारों वर्षों के अनुभव द्वारा ज्ञान-विज्ञान, कला और साहित्य का कलेवर बनता है, बढ़ता हैं, परिष्कृत होता है।

गोरे वामपंथी-उदार चिन्तक इस तरह के विचारों का समर्थन करने लगे। उनका एक प्रिय शब्द बना “Multi-culturalism”.

बहु-संस्कृतिवाद। इसके अनुसार प्रत्येक सभ्यता-संस्कृति अपने आप में श्रेष्ठ है। कोई उच्च और कोई निम्न नहीं है। हम गोरे यूरोपियन लोगो का अधिकार नहीं बनता है कि हम अपने सांस्कृतिक और दार्शनिक मूल्यों से दूसरी नस्लों, धर्मों और राष्ट्रीयताओं का आकलन करें।

न्यूज़ीलैंड शासन के शिक्षा विभाग ने माना कि आधुनिक विज्ञान पश्चिमी गोरी सभ्यता का उत्पादन है। कुछ भी जानने के लिए वहीँ एक मात्रा पैमाना  या तरीका नहीं हो सकता। बहुसंस्कृतिवाद के अनुसार ज्ञान विज्ञान सापेक्ष होते है, निरपेक्ष नहीं।  “रिलेटिव” होते है, “एब्सोल्यूट” नहीं।

देश-काल के सापेक्ष।

उदार वामपंथी शिक्षाविद मानते है कि  There is a “Maori way of Knowing”, which is different then “Western way of Knowing”.

जानने के “पश्चिमी तरीके” से परे “माओरी तरीका” है जानने का ।

रिचर्ड डाकिन्स और अनेक वैज्ञानिकों ने इसका विरोध किया और कहा कि विज्ञान सार्वदैशिक, सार्वभौमिक, सर्वकालिक होता है।

डीएनए की कार्यप्रणाली समस्त जीवन पर लागू होती है । न्यूटन के भौतिकी के नियम पूरे ब्रह्मांड के लिए हैं । वृक्ष से टपक कर सेबफल सब जगह भूमि पर गिरता है ।

पानी सदैव हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से मिलकर बनता है। सभी महाद्वीपों में भूकंप, ज्वालामुखी और सुनामी का भूगर्भ विज्ञान एक जैसा है। विज्ञान पश्चिमी या पूर्वी नहीं होता।

“ सबै भूमि गोपाल की” की तर्ज पर मैं कहना चाहूँगा कि सबै ज्ञान इंसान का”

विज्ञान समय के साथ बदलता है। जो नहीं बदलता वह विज्ञान नहीं है। विज्ञान को “प्राचीन” नाम के विशेषण से परहेज है।

जानने के “माओरी तरीके” या “चीनी तरीके” या “वैदिक तरीके” या “अरेबिक तरीकें” या “तिब्बती तरीके” आदि का सिर्फ एतिहासिक महत्व है ।

उन्हें आधुनिक व् सतत परिवर्तनशील युनिवर्सल साइंस के साथ एक तराजू में तौलना नितांत गलत है।

अमेरिका में दक्षिणपंथी रुढ़िवादी ईसाइयों को डार्विन के विकासवाद पर घोर आपत्ति है। जिन राज्यों में उनकी सरकारे है वहां के स्कूलों में बाईबिल में वर्णित “Creation” पढाया जाता है कि God ने छ: दिन में दुनियां रची और सातवें दिन sunday को आराम किया।

दुःख की बात है कि NCERT ने किन्ही कारणों से डार्विन के सिद्धांत का स्थान कम कर दिया है।

मैं अपने आप को दो पक्षों में बंटा हुआ पाता हूँ।

आर्थिक विचारधारा से मैं दक्षिणपंथी हूँ और स्वतंत्र-उद्यमपूंजी का पक्षधर हूँ। राजनैतिक-सांस्कृतिक दृष्टि से मैं हिंदुत्व व राष्ट्रवाद का समर्थक हूँ।

लेकिन जब विज्ञान की बात आती है तो मैं अपने आपको Rationalist Liberal, Humanist  – उदार, मानवतावादी, तर्कवादी कैम्प में खड़ा पाता हूँ। इस मुद्दे पर मेरी स्थिति श्री अरविन्द नीलकंदन जैसी है जो ‘स्वराज्य पत्रिका’ के प्रमुख लेखक है और उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है।

माओरी जाति के विज्ञान (Matauranga = माताउरंगा) ने अनेक शताब्दियों तक उनके कबीलों के लिए उपयोगी भूमिका निभाई। आधुनिक वैज्ञानिक स्वीकार करते है कि जड़ी बूटियों की पहचान और तारामंडलों के अवलोकन के आधार पर समुद्र यात्रा जैसे अनेक क्षेत्रों में आज भी माओरी-पारम्परिक ज्ञान बड़े काम का है। लेकिन ऐसे ज्ञान की एक सीमा होती है । वह जड़ व् स्थिर होता है। परिवर्तनशील नहीं होता। उसे वैज्ञानिक कसौटियों पर कठोरता से परखा नहीं जाता। वामपंथी व् पुरातन पंथी दोनो तरह के विचारक अलग अलग कारणों से प्रायः Folk-Wisdom (लोकबुद्धि) की बहुत तारीफ़ करते है लेकिन भूल जाते है कि Folk wisdom अनेक अवसरों पर गलत और हानिकारक होती है।

अंततः मै रिचर्ड डाकिन्स का समर्थक हूँ। विज्ञान मुख्य रूप से सार्वभौमिक है। उसमें स्थानिकता का गौण स्थान हो सकता है।

यदि किसी विशिष्ट देश-काल में विज्ञान के एकाधिक अंश निर्मित हुए हैं और यदि उनमें सत्य का दम है जो “सब-जगह-सब-समय” लागू होता है, तो वह “स्थानीय विज्ञान” नहीं रह जाता है।

यदि आयुर्वेद में या भारतीय वास्तुशास्त्र में कुछ ऐसा है जो विज्ञान की कसौटियों पर खरा उतरता है तो वह पूरी मानवता की धरोहर बन जाता है।

जैसा कि ‘योग’ के साथ हुआ है।