BJP’s New leadership strategy: ये नये भारत की भाजपा है
हाल ही में संपन्न मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,राजस्थान के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली अनपेक्षित सफलता ने जिस तरह से राजनीतिक पर्यवेक्षकों और विपक्षी राजनीतिक दलों को चौंकाया था,उससे कई गुना ज्यादा हैरत हुई इन तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद के लिये नामों के सामने आने पर। जब जनता से लेकर तो राजनीति में रुचि रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति किसी चिर-परिचित चेहरे की आस लगाये बैठा था, तब भाजपा नेतृत्व ने लगभग अजनबी विधायकों के हाथ में प्रदेश की कमान सौंप दी। थोड़ा तसल्ली से विचार करेंगे तो पायेंगे कि भाजपा की यह कार्य शैली कोई आजकल की अपनाई हुई नहीं है, बल्कि इक्कीसवीं सदी के आरंभ से ही वह इसी तरीके से काम कर रही है। मुश्किल यह है कि हमारी आदत 70 साल से जाने-पहचाने चेहरे को देखने की हो चली है तो जब भी कोई नया चेहरा सामने आता है तो हम असहज या हतप्रभ रह जाते हैं ।
थोड़ा पीछे चलते हैं। जब गुजरात भाजपा में अस्थिरता और बगावत का दौर था, तब 7 अक्टूबर 2001 को नरेंद्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री मनोनीत किया गया। तब वे विधायक भी नहीं थे। वे भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महामंत्री-संगठन थे। उन्होंने कुशाभाऊ ठाकरे के बाद यह पद संभाला था। बाद में 24 फरवरी को राजकोट से उप चुनाव जीतकर विधायक बने । इसके बाद 2013 का भाजपा का गोवा अधिवेशन याद कीजिये, जब इन्हीं नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया गया था, जो भाजपा में एक और नई पहल थी। तब लालकृष्ण आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी,नितिन गडकरी,राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र सरीखे अनेक वरिष्ठ भाजपा नेता मौजूद थे। भाजपा का यह नवाचार सफल रहा और देश-दुनिया ने देखा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने कितनी ऊंचाइयां तय कीं। बहरहाल।
इसके बाद भी अनेक घटनाक्रम है, जब तयशुदा मानकों से परे जाकर भाजपा ने फैसले लिये और समय ने उन्हें सही ठहराया। हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर मुख्यमंत्री बनाये गये, जो संघ से आये थे। मध्यप्रदेश में साध्वी-सह-राजनेता उमा भारती को 2003 में पहले मप्र का प्रभारी बनाकर भेजा गया और प्रचंड जीत के बाद मुख्यमंत्री बनाया गया। कर्नाटक की अदालत से गैर जमानती गिरफ्तारी वारंट जारी होने पर जब उन्हें खड़े दम पद छोड़ना पड़ा, तब स्वाभाविक दावेदार कैलाश विजयवर्गीय थे, लेकिन तब बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बनाया गया। वे 23 अगस्त 2004 से 29 नवंबर 2005 तक मुख्यमंत्री रहे। बीच कार्यकाल में जब उन्हें हटाकर शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनाया गया, तब शिवराज सिंह भी विधायक नहीं विदिशा से सासंद थे। याने एकदम से नया नाम ही था। तब भी विक्रम वर्मा,लक्ष्मीनारायण पाण्डेय,जयंत मलैया,रघुनंदन शर्मा वगैरह वरिष्ठजन थे ही।
इस तरह से देखें तो यह स्वाभाविक तरीका लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अब उन नये नेताओं को अवसर देना चाहती है, जो परंपरा के चलते दरकिनार कर दिये जाते थे। हम किसी भी राजनीतिीक दल में निगाह दौड़ायें तो सभी दूर वे ही 4-6 चेहरे सामने दिखते हैं, जो कभी सत्ता में तो कभी संगठन में प्रमुख पदों पर बैठे दिखाई देते हैं। परिवारवाद और अपने चहेतों को मौके देने के इस अनवरत सिलसिले को नरेंद्र मोदी ने तोड़ा है। टिकट वितरण से लेकर तो मंत्री पद और मुख्यमंत्री तक के चयन में भाजपा यह प्रयास कर रही है कि जो लोग कहीं नैपथ्य में अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं, जिन्हें उचित प्रतिसाद नहीं मिल पाता, कम ही मिलता है या कभी तो मिल ही नहीं पाता,उन्हें बड़ी जिम्मेदारी दी जाये,ताकि वे खुद को साबित कर सकें। साथ ही उनकी तरह दूसरे कार्यकर्ताओं के बीच यह संदेश जाये कि कभी वे भी बेहतर पद पा सकते हैं।
आप पिछले कुछ बरसों के पद्म पुरस्कारों पर भी निगाह दौड़ा लें तो पायेंगे कि दूरदराज के कर्मठ लोग, दशकों से समाज में अनेक नवाचार करने वाले इन सम्मान से नवाजे जा रहे हैं। इनमें ऐसे लोग भी हैं, जिनके बदन पर पूरे कपड़े भी नहीं होते या पैर में पादुका दुभर रही। पहले रूपहले परदे के चमकते चेहरे,राजनीति के सूरमा,खेलों के जमावट बाज,फर्जी तरीके से गैर सरकारी संगठन चलाकर करोड़ों का अनुदान लेने वालों की भरमार इस सूची में रहती थी। अब इस तरह की प्रवृत्ति अतीत हो चुकी है। कुछ ऐसी ही नई पहल राजनीति में भी की जा रही है।
मप्र,छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों के नामों को देखा जाये तो तीनों नाम लीक से हटकर हैं। भाजपा इन्हें किस तरह से नेतृत्व क्षमता में पारंगत करेगी, यह देखना ही होगा। तीनो्ं राज्यों में ऐसा एक भी नाम नहीं आया, जो राजनीतिक अड्डों,मीडिया,बुद्धिजीवियों के बीच तैर रहा था। राजस्थान में तो ऐसे विधायक भजनलाल शर्मा को जिम्मेदारी दी गई, जो पहली बार निर्वाचित हुए हैं। हालांकि वे तीन दशक से अधिक समय से सगंठन में काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी पृष्ठभूमि बेहद साधारण हैं। वे हाल ही तक बस में सफर करते रहे हैं और घर में फर्श पर बैठकर भोजन करते रहे हैं।
एक बात और हमें ध्यान रखना होगा कि भारतीय जनता पार्टी की तैयारी अगले 10-20 साल के लिये नेतृत्व खड़ा करने की है। यह एक ऐसा दूरदर्शी फैसला और पहल है, जहां किसी को यह कहने का अवसर नहीं दिया जायेगा कि भाजपा चंद लोगों की जेबी पार्टी है। जब देश में कमोबेश तमाम राजनीतिक दल अपने उत्तराधिकारी परिवार से ही तैयार करने में लगे हैं, तब भाजपा आम कार्यकर्ता के बीच से नेतृत्व संवारने-उभारने में लगी है। संभव है,इस प्रक्रिया में कभी कोई चयन गलत या कमतर हो जाये, किंतु इतना तय है कि अगले दशकों में जब दूसरे राजनीतिक दलों के सामने सक्षम नेतृत्व का संकट होगा, तब भाजपा में लंबी कतार होगी।