

Chhindwara: छींद नाम से जाना जाने वाला हमारा छिंदवाड़ा मध्य प्रदेश के सबसे बड़े जिले के रूप में जाना जाता है!
Chhindwara;आया मौसम मीठी मीठी छींद का: महसूस कीजिये सुहानी यादें उस दौर की जब कोई पेड़ किसी गाँव या शहर की पहचान बन जाता था। सच कहूँ तो छींद से ही हमारा छिंदवाडा है…
करेंगे छींद के विषय मे ढेर सारी बात, और जानेंगे कि आखिर इस पेड़ में ऐसा क्या था जो मध्य प्रदेश के सबसे बड़े जिले का नाम इसके नाम पर रखा गया। आप सभी ने एक दोहा तो जरूर पढ़ा या सुना होगा-
बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नही, फल लागे अतिदूर ।।
लेकिन ठहरिये, ये खजूर नही है। यह है जंगली खजूर जिसे हम छींद कहते हैं। हमारे यहाँ छींद झाड़ू ही इसका सबसे खास उत्पाद है।
गाँव के खेल:
ऐसा नही है कि छींद सिर्फ साफ सफाई वाला बोरिंग सा इतिहास अपने आप मे संजोये है, बल्कि यह तो बचपन के चटपटे किस्से अपनी बाहों में समेटे हुए है। याद है आपको छींद का वो फर्रा (पत्ती का डंठल) जिसे लेकर यहाँ से वहाँ सरपट दौड़ लगाई जाती थी। तो चलिये फर्रे के साथ आज के आधुनिक खेलो से रेस लगाते हैं…
। कौन कौन समझ गया, बताइये तो जरा…? नही समझे?
ये जो फ़ोटो में सांप के फन के आकार वाला डंडा दिख रहा है न? इसे पकड़कर लगाई जाती थी दौड़ और जीतने वाले को मिलता था इनाम।
आज आपका परिचय मेरे बचपन की यादों की एक खास गाड़ी से करवा रहा हूँ। यह देशी जुगाड़ वाली गाड़ी है जिसे हम बचपन मे फर्रा कहते थे। जिस तरह यह रखा हुआ है, इसे लेकर जमीन पर दौड़ाया करते थे। वास्तव में यह छींद / जंगली खजूर की संयुक्त पत्तियो का पेडंकल/ डंठल है, जिसकी आकृति नाग के फन की तरह होती है। वैसे मौज मस्ती के साथ इसमें बेहतरीन और पौष्टिक फल भी हैं। चिलचिलाती धूप और इस बेहद गर्मी भरे वातावरण में जब आप पसीने से तर बतर हो जायें तो इसके जंगली फल – छींद आपको राहत दे सकते है। छींद फल ही नही, भोजन स्त्रोत ही नही, पक्षी आसरा ही नही बल्कि रोजगार भी है!!। क्यो, कैसे…??? अरे सब कुछ बताऊँगा लेकिन इसके लिये तो पूरा लेख पढ़ना पड़ेगा।

छिंदवाडा का नामकरण:
छींद वह पौधा है, जिसकी बाहुल्यता के आधार पर ही हमारे छिंदवाड़ा का यह नाम (छींद + वाड़ा) पड़ा। यह सम्पूर्ण पेड़ ही परस्थितिक तंत्र और मानव समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसके पेड़ अत्यंत सूखे मौसम में भी ताजे, मीठे और स्वादिष्ट फल उपलब्ध कराते हैं। ये फल प्राकृतिक शर्करा के साथ साथ सूक्ष्म और वृहद पोषक तत्वों का भंडार होते हैं। यह सम्पूर्ण पेड़ किसान के लिए किसी कल्पवृक्ष से कम नही है, जिससे ग्रामीण उपयोग की ज्यादातर आवश्यकताएं पूर्ण होती हैं। पक्षियों तथा स्थानीय पशुओं के लिए भी यह उत्तम आहार है। गर्मियों में जब अन्य फल उपलब्ध नही होते ऐसे में ये फल किसी उत्सव भोज से कम नही होते है।
छींद से रोजगार:
इसकी पत्तियो से झाड़ू, टट्टे, चटाई, कई प्रकार के सुंदरता आभूषण, टोकरी आदि बनाई जाती है। जो किसानो के लिए बहुत उपयोगी है। साथ ही इसके तने किसानो के मकान में म्यार (छत का मुख्य सहारा) बनाने के काम आती है। बहुत कम लोग ही जानते होंगे इसके पेड़ के भीतर मौजूद कोमल जायलम मिठाई/ पेठे की तरह खाई जाती है जिसे गाबो कहते है। यह बहुत ही पोष्टिक एवम प्राकृतिक_शर्करा, विटामिन, प्रोटीन तथा मिनरल्स से भरपूर होती है। कुछ स्थानों पर छींद के रस से स्वादिष्ट गुड़ भी बनाया जाता है। कहीं कहीं इसके रस को ताड़ी की तरह भी सेवन किया जाता है लेकिन ऐसी जानकारी विरले स्थानों पर ही मिलती है।

दीवाली पूजा में महत्व:
दीवावली में माता लक्ष्मी की पूजा होती है, और साथ मे सफाई की देवी के सफाई के अस्त्र याने झाड़ू की भी। गाँव देहात में तो आज भी अगर झाड़ू को गलती से पैर लग जाये तो तुरंत पैर पड़कर माफी मांग ली जाती है। वास्तव में छींद के पत्रको से बनी झाड़ू आज के युग मे भी अपनी मजबूती और कई वर्षों तक टिके रहने के गुण के कारण माताओं और बहनों की पहली पसंद बनी हुई हैं। कार सफाई से लेकर घर की सफाई के लिये फ़ोटो में छोटे से सफाई अस्त्र की सुंदरता को निहारिये, फिर बाद मैं आपका परिचय छिंदवाड़ा की पहचान छींद तथा इसके स्थानीय कलाकारो की प्रतिभा से करवाऊंगा, जिनके हाथों में छींद की पत्तियां न जाने कौन कौन से रूप ले लेती हैं। आप अच्छी तरह देख कर बताइयेगा कि इन सबमे से कौन बेहतर या सुंदर है?
प्रत्येक वर्ष जब दीवाली आती है तो हम सभी साफ सफाई में भिड़ जाते हैं, इनमें प्रयोग किये जाने वाले उपकरण प्लास्टिक से बने होते हैं। इनकी जगह स्थानीय कलाकारों द्वारा हस्त शिल्प से निर्मित छींद व बांस की सामग्री का प्रयोग करें ताकि इन्हें प्रोत्साहन मिले। कितनी खूबसूरत दुनिया थी, प्राकृतिक उत्पादों की, है ना…? न जाने कैसे यह प्लास्टिक रूपी दानव हमे लालच और झूठा प्रलोभन देता गया, और हम सस्ती सुविधाओं के लालच में फसते चले गये।
छींद का मिष्ठान्न:
छींद के मीठे व पौष्टिक फल:
इसके फलो का भी अपना अलग ही स्वाद है, जो कुछ कुछ खजूर की तरह ही होते हैं, लेकिन इनमे गूदा (pulp) कम होता है। ये मुझ जैसे जंगली इंसान के साथ साथ पक्षियो को भी बहुत पसंद हैं। इसके फलो की एक बात बहुत अच्छी है कि, गुच्छे को तोड़कर घर पर लाकर टांग दो, ये धीरे धीरे पकते जाते है, मतलब एक बार लाओ और कई दिनों तक खाते रहो। इसकी जड़ें मजबूती तो प्रदान करती ही है लेकिन साथ ही यह इस पेड़ को एक खास तरह की सुंदरता भी प्रदानं करती है।
छींद का गुड़, ताड़ी और पेठा:
छींद वानस्पतिक रूप से एकबीजपत्री पेड़ है। और ताड़ कुल का सदस्य है, अतः इसे भी ताड़ कहा जा सकता है। ध्यान रहे वास्तविक ताड़ पूरी तरह से अलग है। जिस प्रकार ताड़ के तने में कट/ चीरा लगाकर एक स्वादिष्ट पेय/ रस प्राप्त किया जाता है, ठीक उसी से मिलता जुलता मीठा रस छींद के तनों में चीरा लगाकर प्राप्त किया जा सकता है। यह रस ताजा होने पर बहुत स्वादिष्ट, स्वास्थ्यवर्धक और पौष्टिक पेय है। जो प्राकृतिक शर्करा का खजाना समेटे रहता है। साथ ही इसमें आयरन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, जिंक, सल्फर, व मैग्नीशियम जैसे महत्वपूर्ण पोषक तत्व भी प्रचुरता से पाये जाते हैं। इसी रस को भट्टी में गर्म करके इससे गुड़ तैयार कर लिया जाता है, जो कि औषधीय गुड़ होता है। लेकिन छींद ताड़ी इन दोनों से थोड़ी अलग है। प्राकृतिक शर्करा बहुत अधिक मात्रा में होने के कारण इसके मीठे रस में बहुत जल्दी किण्वन/ फर्मेंटेशन प्रारम्भ हो जाता है। किण्वित रस ताड़ी कहलाता है, जो शराब के समान मादक पेय में शामिल किया जाता है। यह भी वनवासियों एवं आदिवासी समुदाय का प्रचलित पेय है।
औषधीय गुणों की बात घुट्टी के साथ:
इसके बीजो को घिसकर छोटे बच्चों को चटाया जाता है, जो पाचक होता है और घुट्टी की तरह कार्य करता है। गाँव देहात में आज भी खारक या छींद, जायफल, आमी हल्दी, बादाम और कुचला आदि को थोड़ा थोड़ा घिसकर घर पर ही घुट्टी तैयार कर ली जाती है।
पहचान चिन्ह और गाबो याने देशी मिठाई:
गाँव देहात में इसके पेड़ कई फीट ऊंचे हो जाते हैं। कुछ मामलों में 50 फीट से 70- 80 फीट तक। लेकिन ऐसे ऊंचे पेड़ अक्सर आंधी और तूफान में बीच से टूट जाते हैं। हमारे खेत मे भी ऐसा ही ऊंचा छींद का पेड़ था जो बिना सड़क के जमाने मे ऊँचे टॉवर की तरह पहचान चिन्ह का काम करता था। हमारे गाँव के उस खेत को लोग आसपास के सीमावर्ती 4- 6 गाँवो से भी देख लेते थे। लेकिन जब ऐसे ऊंचे पेड़ आंधी तूफान या किसी अन्य कारण से टूटते थे तो इसके पत्तियों के झुँड /ताज वाले भाग में मौजूद पेठे की तरह मीठे भाग को खाने की होड़ मच जाती थी। यह वास्तव में इसका कोमल जायलम होता है, जो देखने मे पेठे की तरह और खाने में किसी मिठाई की तरह स्वाद लिये होता था। इसे निकालने में हालाकि बहुत माथा पच्ची करनी पड़ती थी लेकिन चरवाहों के पास कुल्हाड़ी के साथ सारा दिन खाली होता था तो वे इसे निकाल ही लेते थे। इसमें वे सभी पोषक तत्व होते हैं जो इसके रस या गुड़ में पाये जाते हैं। बचपन मे 4- 6 बार मैंने भी इसका स्वाद चखा है। वाकई लाजबाब…।
पक्षी संरक्षण:
वैसे तो इसकी कटीली पत्तियों की पनाहगाह सभी पक्षियो के लिए उत्तम शरणस्थली है, लेकिन बया को यह कुछ ज्यादा ही पसन्द होते हैं। क्योंकि इनके पेड़ और लटके घोंसले तक पहुँचने का जोखिम उठा सके ऐसे प्राणी दुर्लभ ही होंगे। गाँव मे छींद के पेड़ और कुयें ओर लटकी शाखायें ही पक्षियों के घोसले बनाने की पसंदीदा जगह होती हैं।
सांस्कृतिक महत्व:
बचपन में हम इसकी पत्तियों से अंगूठी बनाते थे, भारतीय और जनजातीय संस्कृति में विवाह के दौरान मुकुट के रूप में छींद की उपस्थिति अनिवार्य है। ग्रामीण जीवन शैली में भी छींद के पत्तों से बनी मोरी वधु को बांधने की एक खास रस्म है। और सबसे महत्वपूर्ण तो यह किसानों के लिये है- इसके पत्तियो से बड़े आकार की मजबूत चटाई बनाई जाती है, जो बैलगाड़ी में लगाने, झोपड़ी बनाने सहित कई अन्य कार्यों में उपयोगी होता है, इन्हें टटिया या टाट कहते हैं। साथ ही पत्तियों और डंठलों से रोटियाँ या सब्जी रखने की टोकरियाँ भी तैयार की जाती थी।
छींद आर्ट:
अब चलिये थोड़ी छींद आर्ट की बात की बात कर लें। छिंदवाड़ा की पहचान कहे जाने वाले छींद पेड़ की पत्तियों से सुंदर साज व घरेलू उपयोग की सामग्री बनाई जाती है। हमारे क्षेत्र में भी इसके उत्तम दर्जे के कलाकार रहते हैं। इसके डंठल से कृषि कार्यो के लिए उपयोगी छिटुये व डालिया बनाई जाती है। डंठल और पत्तियों को मिलाकर रोटियां व सब्जियाँ रखने का पात्र बनाया जाता है। तरह तरह की झाड़ू, खिलोने आदि कई सामग्रियां इससे बनती हैं। अगर आप इन कलाकारों की कोई मदद करने का जज़्बा दिल मे रखते हैं तो इनके हाथों से बनी सामग्री उत्तम दामों में बिना मोलभाव के खरीदें।
पर्यावरण संरक्षण:
तीज त्यौहारों में हमे अपने घरों में विशेष अवसरों पर प्लास्टिक की सजावटी सामग्री लाने और लगाने के बजाये क्षेत्रीय कलाकारों की मेहनत को अपने दिल और मकानों में स्थान देंना चाहिये, इससे हमारी धरा हानिकारक प्लास्टिक से मुक्त हो सकेगी। और ये कलाकार अपना वास्तविक सम्मान पा सकेंगे, साथ ही इन्हें इस कला को जीवित रखने जितना मुनाफा भी हो पायेगा। इनमे से कुछ तो बाजार में मिलने वाली सिंथेटिक और अन्य प्राकृतिक झाड़ूओं/ बहारी से कई गुना सुंदर और मजबूत हैं। छोटे आकार की झाडुओ को घर, पूजा स्थल और यहाँ तक कि अपनी कार में भी डस्ट रिमूवर की तरह सफाई के लिये उपयोग कर सकते हैं।
साथ ही साथ एक और बात ध्यान रखें, अबकी बारिस में 5 पौधे अवश्य रोपें और उन्हें बड़ा होने तक देखरेख भी करें। वरना प्रतिवर्ष 1 डिग्री सेंटीग्रेट अधिक तापमान सहने के लिए अपने शरीर को मजबूत बना लें। कौन सा विकल्प चुनना है, फैसला आपका।
डॉ विकास शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई,
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