टिप्पणी:इंदौर में ‘नोटा’ कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ रहा! 

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टिप्पणी:इंदौर में ‘नोटा’ कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ रहा! 

देश में इंदौर की अपनी अलग पहचान है। ये शहर लगातार सात बार देश में स्वच्छता में अव्वल रहा। शुद्ध हवा में इसने कीर्तिमान बनाया। स्मार्ट सिटी के कामकाज के मामले में भी इंदौर को देश में पहला नंबर मिला। खानपान को लेकर तो इंदौर का कोई जवाब नहीं। कहा जाता है कि यहां के लोग खाने के लिए ही जीते हैं। इस शहर में स्वादिष्ट खाने के कई लोकप्रिय ठिकाने हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में इंदौर ने अपने एक उम्मीदवार को साढ़े पांच लाख से ज्यादा के अंतर से जिताकर संसद में भेजा था, यह भी अपने आपमें एक रिकॉर्ड है। इस बार के लोकसभा चुनाव में भी मध्यप्रदेश के मालवा अंचल का यह शहर खासी चर्चा में है। चर्चा इसलिए कि संसदीय सीट के कांग्रेस उम्मीदवार ने नामांकन पर्चा वापस लेने वाले दिन चुनाव से अपनी उम्मीदवारी वापस लेकर सबको चौंका दिया। ऐसी स्थिति में चुनाव पूरी तरह एक तरफ़ा हो गया। यानी भाजपा के उम्मीदवार के सामने अब कोई मुकाबला करने वाला नहीं बचा।

चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह स्थिति काफी पेचीदगी वाली होती है कि एनवक़्त पर उसका उम्मीदवार मैदान छोड़ दे। न सिर्फ चुनाव से हट जाए, बल्कि नामांकन पर्चा वापस लेने के बाद प्रतिद्वंदी दल में शामिल हो जाए। इंदौर में कांग्रेस के साथ यही हुआ! नामांकन पत्रों की जांच के बाद जब सही पाए जाने वाले उम्मीदवारों के नाम घोषित हुए, तो संपत्ति ब्यौरे के मुताबिक कांग्रेस के उम्मीदवार अक्षय बम को प्रदेश में सबसे ज्यादा अमीर कांग्रेसी उम्मीदवार माना गया। इसके बाद उन्होंने अपनी 14 लाख की घड़ी का जिक्र किया, जो वे पहनते हैं।

यहां तक तो ठीक था, पर कई हफ़्तों तक चुनाव प्रचार के बाद वे अपनी ही पार्टी पर आरोप लगाकर मैदान से हट गए। ऐसी स्थिति में कांग्रेस के सामने कोई विकल्प नहीं बचा। समय निकल जाने से नया उम्मीदवार का मैदान में उतारना भी संभव नहीं था। जो निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे हैं, कांग्रेस ने उनमें से किसी को समर्थन देने के बजाए मतदाताओं से यह अपील की, कि वे अपना वोट ‘नोटा’ में डालें। यानी सीधा सा मतलब है कि कांग्रेस ने ‘नोटा’ को अपनी तरफ से चुनाव में खड़ा कर दिया।

ये संभवतः देश में अनोखा उदाहरण है, जब किसी राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल ने प्रतिद्वंदी पार्टी से मुकाबले के लिए ‘नोटा’ का सहारा लिया। कांग्रेस ने बकायदा इस बात कि घोषणा की है कि जो मतदाता इंदौर में हुए राजनीतिक घटनाक्रम से खुश नहीं हैं, वे ‘नोटा’ का बटन दबाकर अपना विरोध दर्ज कराएं। दरअसल, कांग्रेस उम्मीदवार के चुनाव से हटने पीछे भाजपा का राजनीतिक हथकंडा समझा जा रहा है। काफी हद तक यह सच भी है। बदले हालात में कांग्रेस के पास ऐसा कोई विकल्प भी नहीं था कि वो मुकाबले में उतर सके। तो उसने ‘नोटा’ को अपना राजनीतिक हथियार बना लिया।

सवाल है कि क्या ‘नोटा’ का दबाने से कोई ऐसा नतीजा सामने आएगा नतीजे पलट दे? तो इसका जवाब ‘नहीं’ ही होगा। क्योंकि, 2013 में जब मतदाताओं को ‘नोटा’ का विकल्प देने का फैसला हुआ, तब यह भी स्पष्ट किया गया था कि ‘नोटा’ को कितने भी वोट मिल जाएं, पर इससे नतीजे प्रभावित नहीं होंगे। यानी ‘नोटा’ में जाने वाले वोट रद्द समझे जाएंगे। लेकिन, इससे चुनाव में ‘नोटा’ का विकल्प उपलब्ध कराने वाला भारत दुनिया का 14वां देश जरूर बन गया।

यह बात सही है कि ‘नोटा’ के आंकड़ों से चुनाव नतीजे अप्रभावित रहते हैं, पर इससे उम्मीदवार की जीत पर सवालिया निशान जरूर लगता है। माना कि ईवीएम का यह बटन ‘बिना दांत का शेर’ है, पर इसकी गुर्राहट के चर्चे तो होते ही हैं। पिछले लोकसभा चुनाव (2019) में देशभर में ‘नोटा’ का बटन दबाने वाले मतदाताओं की संख्या 65,22,772 थी। अनूठी बात तो यह कि देश के करीब 20 राजनीतिक दलों के करीब तीन दर्जन उम्मीदवार ऐसे भी थे, जिन्हें ‘नोटा’ से कम वोट मिले, पर वे जीत का झंडा लेकर संसद में पहुंचे।

2013 में जब ‘नोटा’ का बटन अस्तित्व में आया, उसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार इसे प्रयोग किया गया। उस चुनाव में 60 लाख से मतदाताओं ने इसे चुना। सबसे ज्यादा 6 लाख बार ‘नोटा’ का बटन उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने दबाया। यहां 23 सीटें ऐसी थी, जहां हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट ‘नोटा’ को मिले। इसी लोकसभा चुनाव में बिहार में 5.80 लाख, गुजरात में 4.54 लाख, मध्य प्रदेश में 3.91 लाख, ओडिशा में 3.32 लाख, छत्तीसगढ़ में 2.24 लाख और झारखंड में 1.90 लाख वोट ‘नोटा’ को मिले थे।

अभी भले ही ‘नोटा’ को ‘नख और दंत विहीन शेर’ समझा जाता हो, पर तय है कि भविष्य में ‘नोटा’ की ताकत को बढ़ाया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की याचिका भी दायर की गई है। अपील की गई है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में ‘नोटा’ को बहुमत मिलने पर उस निर्वाचन क्षेत्र का चुनाव शून्य घोषित कर नए सिरे से चुनाव कराए जाएं। कहा गया है कि ‘नोटा’ को ‘काल्पनिक उम्मीदवार’ के रूप में माना जाए। सुप्रीम कोर्ट ने भी चुनाव आयोग को इस बारे में नोटिस जारी किया है। कोर्ट इस याचिका पर विचार करने को सहमत हो गया है, जिसमें ‘नोटा’ में अधिक वोट पड़ने पर चुनाव आयोग को फिर चुनाव का नियम बनाने का निर्देश देने की मांग की गई।

अब सारी नजरें इस बात पर लगी है, कि जब इंदौर का चुनाव नतीजा घोषित होगा तो ‘नोटा’ में कितने वोट पड़ेंगे? क्योंकि, इस संसदीय क्षेत्र में ‘नोटा’ का आशय सिर्फ ‘नन ऑफ द एबव’ (इनमें से कोई नहीं) ही नहीं है। बल्कि, इसे कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बना लिया। बिना उम्मीदवार वाली पार्टी के पास अब यही उम्मीद बची है, कि वह कुछ ऐसा करे जिससे उसकी साख बच सके। यही वजह है कि कांग्रेस ने मतदाताओं से ‘नोटा’ का बटन दबाने का अभिनव प्रयोग करने का अनुरोध किया। कांग्रेस यह प्रचारित भी कर रही है कि ‘नोटा’ को मिले वोट कांग्रेस के माने जाएंगे। लेकिन, चुनावी मुकाबले में भाजपा के सामने कोई प्रतिद्वंदी उम्मीदवार न होने से मतदाताओं में मतदान के प्रति भी रुखापन दिखाई दे रहा है। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि ‘नोटा’ में पड़े वोटों का आंकड़ा बढे या नहीं, पर मतदान का प्रतिशत जरूर गिर जाएगा।

Author profile
Hemant pal
हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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