चुनावी व्यवस्था पर अविश्वास से लोकतंत्र की शक्ति को आघात

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चुनावी व्यवस्था पर अविश्वास से लोकतंत्र की शक्ति को आघात

 हिमाचल प्रदेश और गुजरात क़े विधान सभा चुनाव घोषणा क़े तत्काल बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग और उसकी व्यवस्था पर पक्षपात का आरोप लगा दिए | कुछ नेता और प्रवक्ता नए अनाड़ी खिलाड़ी हो सकते हैं , लेकिन पुराने अनुभवी कांग्रेसी या प्रतिपक्ष क़े कई लोगों को समरण होगा कि किसी समय एक प्रधान मंत्री क़े परिवार क़े सदस्यों क़े विवाह की क़ानूनी प्रक्रिया पूरी करने क़े लिए उनके निवास पर जाने से लेकर सेवा काल में भी निजी सम्बन्ध वाले अधिकारी देश क़े प्रमुख निर्वाचन आयुक्त रहे हैं | किसी प्रधान मंत्री या मुख्यमंत्री क़े साथ वरिष्ठ सचिव रहे अधिकारी भी निर्वाचन आयुक्त बने | लेकिन इन चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठाए गए | अब कांग्रेस क़े नेता चुनावी पराजय की संभावना देखकर ‘ जंगल में शेर आया ‘ क़े अनावशयक हल्ले की तरह चुनाव आयोग पर ही कालिख पोतने का प्रयास कर रहे हैं | कभी देश में अपनी ही सरकार द्वारा शुरु की गई इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन पर सवाल उठाते हैं , तो कभी चुनाव अधिकारी पर | जिस चुनाव में अपना उम्मीदवार विजयी होता है , तब चुनावी व्यवस्था ठीक और निष्पक्ष लगती है , चुनावी हार होने पर जनता क़े फैसले को स्वीकारने क़े बजाय चुनाव – मतदान और अधिकारी पर बेइमानी क़े आरोप लगा देते हैं |

PM Modi

यह आलोचना और गैर जिम्मेदाराना काम नहीं तो क्या कहा जाएगा ? चुनाव की तारीखों का एलान एक साथ क्यों नहीं  ? मोरवी की भयावह दुर्घटना के बावजूद उसी या अगले दिन क्यों नहीं ? प्रधान मंत्री के प्रदेश के कार्यक्रम के लिए क्या देरी हुई ? इस तरह के सवालों पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने बहुत संयम और शालीनता से उत्तर दिया कि तारीखों की घोषणा नियमानुसार वर्तमान  विधान सभा का कार्यकाल ख़त्म होने से 110 दिन पहले हुई है और दोनों राज्यों के परिणाम तो एक साथ 8 दिसम्बर को घोषित हो रहे हैं | लेकिन विरोधी नेता तो चुनाव आयोग , सर्वोच्च अदालत , सी बी आई , भारतीय सेना तक के निर्णयों और कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाने , उनकी निष्पक्षता पर गन्दगी डालने में तनिक संकोच नहीं कर रहे हैं | संवैधानिक और लोकतान्त्रिक संस्थाओं और उनके शीर्ष व्यक्तियों की ईमानदार छवि पर दाग लगाना भारतीय लोकतंत्र की छवि बिगाड़ना ही है |

देश और लोकतंत्र की  छवि बिगड़ने से भारत में भारी पूंजी लगाने के लिए उत्सुक विदेशी कंपनियां और प्रवासी भारतीय भी दुविधा में फंस रहे हैं | लोकतंत्र में मभेद , असंतोष , राजनीतिक विरोध , आरोप – प्रत्यारोप , क़ानूनी कार्रवाई के साथ सामाजिक आर्थिक विकास स्वाभाविक  है , लेकिन क्या कोई सीमा रेखा नहीं होनी चाहिए |

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 राहुल गाँधी और उनके  अज्ञानी सहयोगी कम से कम अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के पचास सालों के भाषण , सम्मेलनों में कही गई बातों और संसद में अथवा बाहर भी विरोधी नेताओं के तीखे भाषणों का अध्ययन कर सकते हैं | आपात काल के अपवाद को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दलों , विचारों के नेता सत्ता और प्रतिपक्ष में रह चुके हैं | इंदिरा गाँधी को सत्ता से हटने के बाद कुछ दिन  जेल भी जाना पड़ा , कितने छापे पड़े , लेकिन उन्होंने या उनके सहयोगियों ने लोकतंत्र ख़त्म होने का आरोप नहीं लगाया | बाद में वह और पार्टी सत्ता में आई , तो आंदोलनों से विरोध हुआ लेकिन यह किसी ने नहीं कहा कि लोकतंत्र ही ख़त्म हो गया | पूर्वाग्रह और राजनीतिक बदले के आरोप लगते हैं , लेकिन महीनों से जेल में बंद लालू यादव भी अदालत से न्याय की बात कहकर नितीश या प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर गुस्सा निकालते हैं , लेकिन लोकतंत्र नहीं रहने का तर्क नहीं देते हैं |  जय प्रकाश नारायण , मोरारजी देसाई , चौधरी चरण सिंह , अटल बिहारी वाजपेयी , मधु लिमये , जॉर्ज फर्नांडीज जैसे नेता जेल में रहे , लेकिन बाद में सम्पूर्ण व्यवथा पर अनर्गल और अशोभनीय वक्तव्य नहीं देते रहे | किसानों और मजदूरों के लिए आज से कई गुना अधिक लाखों लोगों के प्रदर्शन दिल्ली में हुए हैं , लेकिन पिछले साल  अराजकता के साथ सीमाओं पर सडकों की हफ्तों की घेराबंदी , राजनीतिक अथवा परदेसी समर्थन से पांच सितारा सुविधाओं वाला आंदोलन दुनिया में देखने को नहीं मिल सकता है |

याद करें | बीस वर्ष पहले बिहार , उत्तर प्रदेश , हरियाणा , पंजाब जैसे कई राज्यों में मतदान केंद्रों पर फर्जी मतदान , मत पेटियों की लूट और हिंसक संघर्ष की घटनाएं होती थीं और प्रशासन बेबस हो जाता था | कुछ गांवों में बाहुबलियों और उनके समर्थकों द्वारा चुनाव जीतने के लिए दिए गई धमकियों के डर से कई गांव खाली हो जाते थे | हाल के वर्षों में ईमानदार और समर्पित अधिकारियों ने ही चुनावी व्यवस्था को अधिकाधिक  निष्पक्ष , आधुनिक और भयमुक्त  बना दिया है | अब हिंसा और लूटपाट की खबरें बहुत कम देखने को मिलती है | चुनावी प्रचार , खर्च पर निगरानी , गैर क़ानूनी तरीकों पर अंकुश , उम्मीदवारों की योग्यता पृष्ठभूमि आमदनी इत्यादि की सार्वजनिक घोषणा जैसी पारदर्शिता का लाभ हो रहा है | राजनीतिक पार्टियों को मान्यता , विजय पराजय के बाद की जाने वाली शिकायतों पर सुनवाई ने व्यवस्था की साख बढ़ाई है | देश में पहले एक चुनाव आयुक्त होते थे , फिर दो हुए | तब अदालत के एक निर्णय के बाद चुनाव आयोग के सदस्य तीन हो गए | एक उच्च स्तरीय समिति लम्बे प्रशासनिक अनुभव वाले व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाए जाने की सिफारिश सरकार को करती है | चुनाव आयुक्त किसी राजनीतिक दल अथवा सरकार के बजाय के लिए केवल राष्ट्रपति एवं शीर्ष न्यायालयों के लिए जवाबदेह होते हैं | चुनाव प्रक्रिया के दौरान प्रदेशों की प्रशासन व्यवस्था चुनाव आयोग के पास आ जाती है |

 किसी भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में प्रशानिक अधिकारी या न्यायाधीश भी उसी समाज और क्षेत्र विशेष के ज्ञान अनुभव के आधार पर आते हैं | सी बी आई में अधिकांश अधिकारी राज्यों से प्रतिनियुक्ति पर रखे जाते हैं | उन्हें कोई एक पार्टी या देवदूत नहीं लाते हैं | वकील जज बन सकते हैं या नेता और मंत्री भी | संसद या विधान सभा में कितने ही वकील आते हैं | उनमें से कोई मंत्री भी बनते हैं और पद से हटने के बाद फिर वकालत करने लगते हैं | क्या मंत्री रहते उनके निर्णयों से कम्पनियाँ प्रभावित होती हैं | लेकिन अपेक्षा यह होती है कि उनके काम में निष्पक्ष्ता रहेगी | आख़िरकार कोई भी पद जिम्मेदार व्यक्ति को अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन की अपेक्षा बढ़ाता है | कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं | लेकिन 75 वर्षों में कर्तव्यनिष्ठ लोगों से ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं और होती रहेंगी |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।