

Father’s Day:पिता द्वारा पीटा गया पुत्र और हथौड़े से पीटा गया सोना अवश्य ही आभूषण बनता है!
राघवेंद्र दुबे, इंदौर
जब तक मेरे पिताजी श्री गुरुप्रसाद दुबे [हिंदी साहित्य समिति इंदौर] जीवित थे किसी भी प्रकार के डे का चलन नहीं था। पित्र दिवस तो नहीं ,अपितु पित्र पक्ष अवश्य होता था जो आज भी कायम है परंतु पितृपक्ष केवल गुजर चुके पितरों के लिए ही था। उस समय शायद हर दिन ही पिता का दिन होता था। मान्यता यह थी कि पिता द्वारा पीटा गया पुत्र और हथौड़े से पीटा गया सोना अवश्य ही आभूषण बनता है। उस समय यदि पिता को हम यह कह कर प्रणाम करते कि आज पितृ दिवस है इसलिए चरण छू रहे हैं, तो शायद उनके चरण का आघात अवश्य सहना पड़ता। पिता के नाम का एक दिन तो बाकी 364 दिन किसके?
यद्यपि उस समय पिता पुत्र में संवाद उस तरह का नहीं होता था जैसा आजकल होता है .पिता बिना कहे भी पुत्र की मंशा का अंदाज आसानी से लगा लिया करता था. प्रायःअपनी एक से अधिक संतानों, जो औसतन चार से छह तो होती ही थी, की आवश्यकता पूर्ति अपने सीमित संसाधनों से करने के अथक प्रयास में जुटा रहता था ।इस कारण भी उसके पास संतानों के लिए समय कम होता था।
कहने का आशय यह नहीं है कि आज का पिता उस पिता की तुलना में कमतर है। आज का पिता भी ज्यादा ध्यान रखने वाला और ज्यादा समय देने की कोशिश करने वाला पिता है, परंतु पहले वह सामूहिक पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण अपनी संतानों को पर्याप्त समय नहीं दे पाता था ,और आज का पिता अपनी नौकरी, घर से दूरी और एकल परिवार प्रथा के कारण इतना समय नहीं दे पाता है।
आज के पुत्रों का दायित्व है कि वे अपने पिता का फादर्स डे के अलावा साल के शेष दिनों में भी उतना ही
ध्यान रखें।

राघवेंद्र दुबे ,इंदौर