वरिष्ठ पत्रकार अनुराग तागड़े की श्रद्धांजलि
अभी दो दिन पहले की ही तो बात है जब मैंने उनसे कहा था ‘दिलीप जी अभी बहुत लिखना है बहुत काम करना है … यह सुनते ही उनकी आंखो से आंसू बह निकले!’ भंडारी अस्पताल के रूम नंबर 201 के पलंग पर आईसीयू से बाहर आकर लेटे हुए दिलीप सिंह ठाकुर इतने बेबस पहले कभी नजर नहीं आए। जब दिलीपजी को ब्रेन स्ट्रोक हुआ तब पहले घंटे के भीतर ही उन्हें घर की ऊपरी मंजिल से उन्हें उतारकर अस्पताल ले आए थे।
मैं एक घंटे के भीतर पहुंच गया था, वे आवाज सुन भी रहे थे और प्रतिसाद भी दे रहे थे। यहां श्रीमती ठाकुर ने गजब की हिम्मत दिखाई और खूब सेवा की। इतना ही नहीं दिलीप जी की माताजी की तबियत भी खराब हो गई थी और उन्हें भी भंडारी अस्पताल में भर्ती करवाया गया था।
एक साथ पति और सास दोनों की देखभाल श्रीमती ठाकुर कर रही थी और दिलीप जी की बेटी भी साथ दे रही थी। बेटा अमेरिका से आ गया था और पिता पुत्र मिलकर खुश हुए। फिर एक दिन अचानक तबीयत इतनी खराब हुई कि लगा था कि ऑपरेशन करना ही पड़ेगा। अस्पताल में ऑपरेशन की सभी तैयारी कर ली गई थी। परंतु एक योद्धा की भांति वे सामान्य होने लगे और अगले तीन दिनों के भीतर उन्हें सामान्य रूम में शिफ्ट कर दिया गया।
मैंने रूम के भीतर दिलीप जी की वह चिरपरिचित मुस्कुराहट देखी पर बोलने में कठिनाई हो रही थी वे हाथों के इशारों से हाँ या ना कह रहे थे। मैंने उनका हाथ अपने हाथ में लिया और कहा कि जल्दी ठीक होना है अभी बहुत काम करना है बहुत लिखना है तब अचानक आँखों से आंसू बहने लगे।
आप रोओगे तब अनुराग भैय्या चले जाएंगे … फिर अपनी भावनाओं पर काबू पाते हुए दिलीप जी बातें सुनते रहे। इसके दो दिन बाद अस्पताल से छुट्टी हो गई वे अपने मित्र श्री अग्रवाल जी के घर पर चले गए क्योंकि सुभाष नगर स्थित उनके मकान में मरम्मत का काम चल रहा था। वहां दो दिन अच्छे से रहे फिजियोथेरेपिस्ट ने अपना काम करना आरंभ कर दिया था और वे ठीक हो रहे थे। अचानक 13 मार्च की देर शाम से हल्का बुखार आने लगा और अगले दो घंटों के भीतर कोहराम मच गया। फिर से एम्बुलेंस में भंडारी अस्पताल ले गए पर सब कुछ खत्म। अस्पताल में लगभग आधे से एक घंटे तक तमाम डॉक्टरों ने प्रयत्न किए पर दिलीपजी हमारे बीच नहीं रहे यह बात न परिवार वाले और ना हम मानने को तैयार हो रहे थे। ऐसे कैसे हो सकता है। उनके बच्चों को टेलीफोन पर यह कहना कि बेटा अब तुम्हारे पिता नहीं रहे यह बात स्वीकार कर लो अपने आप में सबसे कठिनतम कार्यों में से एक था। भरे मन से अपने साथी श्री दिलीप सिंह ठाकुर के लिए शोक संदेश लिखना पड़ रहा था।
पत्रकारिता के अलावा दिलीपजी से व्यक्तिगत संबंध सभी के रहे है और यही कारण है कि श्री अग्रवाल जी जैसा मित्र उन्होंने पाया जो लगातार अस्पताल और घर के बीच सामंजस्य स्थापित किए हुए थे और उन्होंने संपूर्ण समय दिलीप जी का ध्यान रखा। उनके अध्यात्मिक पक्ष को भी मैंने करीब से जाना। वे सहजता की प्रतिमूर्ति थे और कर्म करने पर विश्वास रखते थे। खबरों में भी ऐसी खबरें और वीडियो देने के लिए वे हरदम मना करते थे जिससे समाज में दहशत या सनसनी फैले।
उनका मानना था कि सनसनी कभी भी स्थायी नहीं हो सकती। खबरों को पूर्ण जांच परख कर ही देने की उनकी सीख लगातार काम आती रही। दिलीप जी पुरस्कारों और सम्मानों की दौड़ में कभी नहीं रहे और अक्सर वे ऐसी संस्थाओं को मना ही कर देते थे कि मुझे इसकी जरुरत नहीं। इतना ही नहीं नईदुनिया में अच्छी से अच्छी खबर पर भी वे बाईलाईन नहीं लेते थे और कई बार अभय छजलानीजी और महेंद्र सेठियाजी को उन्हें कहना पड़ता था ‘अपना नाम डालो!’ कई बार तो महेंद्रजी पेज पर ही दिलीपजी का नाम डाल दिया कर देते थे।
देश के सुप्रसिद्ध पत्रकार डॉ वेद प्रताप वैदिक नहीं रहे
सड़क पर वाहन चलाते समय पुलिस के रोके जाने पर मैं पत्रकार हूँ यह तो उन्होंने कभी कहा ही नहीं बल्कि मेरे पास सभी प्रकार के निर्धारित कागज होने ही चाहिए यह उनका कहना रहता था। कभी भी पत्रकारिता का बेजा फायदा उठाना उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था। ऐसे बिरले पत्रकार को नमन जिन्हें मैंने न केवल बतौर पत्रकार बल्कि एक बेहतरीन इंसान और एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर जाना जो तमाम तरह की व्यस्तताओं के बावजूद अपने परिवार के प्रति लगातार समर्पित रहा।
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