कानून और न्याय: मूल संरचना सिद्धांत और हमारा संविधान

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कानून और न्याय: मूल संरचना सिद्धांत और हमारा संविधान

मूल संरचना सिद्धांत लगभग पांच दशक पहले सुप्रीम कोर्ट के तेरह न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले में विकसित हुआ था। हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस सिद्धांत पर निशाना साधते कहा कि इस फैसले ने एक बुरी मिसाल कायम की। उन्होंने सवाल किया कि क्या न्यायपालिका संविधान में संशोधन करने और लोकतांत्रिक तरीके से कानून बनाने की संसद की शक्तियों पर रोक लगा सकती है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डाॅ डीवाई चंद्रचूड़ ने संविधान के ‘मूल संरचना सिद्धांत को चमकीला सितारा कहा’ जो आगे का रास्ता कठिन होने पर संविधान के व्याख्याताओं और इसे क्रियान्वित करने वालों का मार्गदर्शन करता है। उन्हें एक निश्चित दिशा देता है। मूल संरचना सिद्धांत लगभग पांच दशक पहले सुप्रीम कोर्ट के तेरह न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले में विकसित हुआ था। हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस सिद्धांत पर निशाना साधते कहा था कि इस फैसले ने एक बुरी मिसाल कायम की। उन्होंने सवाल किया कि क्या न्यायपालिका संविधान में संशोधन करने और लोकतांत्रिक तरीके से कानून बनाने की संसद की शक्तियों पर रोक लगा सकती है। मूल संरचना सिद्धांत केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के प्रसिद्ध मामले में विकसित हुआ, जहां प्रसिद्ध न्यायविद नानी पालकीवाला ने केशवानंद भारती का प्रतिनिधित्व किया था। इस सिद्धांत में पालखीवाला के योगदान के बारे में बात करते हुए सीजेआई ने कहा ‘अगर नानी न होते तो हमारे पास भारत में मूल संरचना सिद्धांत नहीं होता।’ उन्होंने कहा कि हमारे संविधान की मूल संरचना, एक चमकीले तारे की तरह है, जिससे हमारा मार्गदर्शन होता है। यह संविधान के व्याख्याताओं और कार्यान्वयनकर्ताओं को एक निश्चित दिशा देता है।

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सीजेआई ने मूल संरचना सिद्धांत के वैश्विक होने को भी रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि जब भी एक कानूनी विचार किसी अन्य अधिकार क्षेत्र से ले जाया जाता है, तो यह स्थानीय बाजारों पर निर्भर अपनी पहचान में परिवर्तन के दौर से गुजरता है। भारत द्वारा मूल संरचना सिद्धांत को अपनाने के बाद, यह हमारे पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान में चला गया। मूल संरचना सिद्धांत के विभिन्न सूत्रीकरण अब दक्षिण कोरिया, जापान, कुछ लैटिन अमेरिकी देशों और अफ्रीकी देषों में भी सामने आए हैं। महाद्वीपों में संवैधानिक लोकतंत्रों में प्रवासन, एकीकरण और मूल संरचना के सिद्धांत का सूत्रीकरण दुनिया के कानूनी विचारों के प्रसार की एक दुर्लभ सफलता की कहानी है। इससे बड़ा सम्मान हमारे लिए और क्या हो सकता है!
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इस विषय पर न्यायाधीशों को संविधान की व्याख्या कैसे करना चाहिए इस संबंध में कहा कि एक न्यायाधीश का शिल्प कौशल संविधान के पाठ को बदलते समय के साथ उसकी आत्मा को कायम रखते हुए उसकी व्याख्या करने में निहित है। मुख्य न्यायाधिपति मुंबई में नानी पालकीवाला मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘परंपरा और बदलावः पालकीवाला की विरासत एक परस्पर जुड़ी दुनिया’ पर व्याख्यान दे रहे थे।
मुख्य न्यायाधिपति ने कहा कि नानी के जीवन और विचारों ने उन ऐतिहासिक घटनाओं और समकालीन भारत के इतिहास को भी आकार दिया। उन्होंने कहा कि नानी एक सच्चे संविधानविद थे, जिन्होंने भारत के संविधान को प्रकट किया और अपना पूरा जीवन हमारे संविधान की अखंडता को बनाए रखने तथा भारतीय नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया। संवैधानिकता की भावना की रक्षा के लिए नानी हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहे। मुख्य न्यायाधिपति ने याद किया कि आपातकाल घोषित होने के बाद नानी पालकीवाला ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का प्रतिनिधित्व करना बंद कर दिया था। सीजेआई ने मिनर्वा मिल्स मामले में सुनवाई के बारे में भी बात की। उन्होंने पालकीवाला की प्रतिक्रिया को याद किया और कहा कि ‘केवल एक मूर्ख व्यक्ति बर्लिन की दीवार को पश्चिम से पूर्व की और कूदने की कोशिश करेगा। सीजेआई ने बताया कि नानी बचपन में हकलाने की समस्या से पीड़ित थे। बाद में उन्होंने इस पर काबू पा लिया। नानी ने 11 साल की उम्र में अपने हकलाने को दूर करने के लिए भाषण प्रतियोगिता में भाग लिया। उनके पिता ने युवा नानी को अपने मुंह में बादाम घुमाते हुए बोलने की प्रैक्टिस करने के लिए प्रोत्साहित किया था। नानी ने ‘कोशिश करो और तब तक करो जब तक तुम सफल नहीं हो जाते’ विषय पर भाषण दिया। विषय के सार के अनुसार नानी ने अपने हकलाने पर काबू पाया और फिर एक उत्कृष्ट वक्ता बन गए।
भारतीय संविधान के अनुसार, देश में संसद और राज्य विधानसभाओं को अपने-अपने क्षेत्राधिकार के दायरे में कानून बनाने की शक्ति है। हालांकि, यह शक्ति प्रकृति में संपूर्ण नहीं है। संविधान ने न्यायपालिका को सभी कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है। यदि संसद या राज्य विधायिका द्वारा बनाया गया कानून भारत के संविधान के तहत निहित किसी प्रावधान की प्रकृति का उल्लंघन करता है, तो सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा बनाए गए ऐसे कानून को अमान्य अथवा असंवैधानिक घोषित करने की शक्ति है।
संविधान का आर्टिकल 368 यह प्रकट करता है कि संसद की संशोधन शक्तियां पूर्ण हैं और भारत के संविधान के सभी भागों को शामिल करती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने देश की आजादी के बाद से ही संसद के विधायी उत्साह को कम करता है। संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित मूल आदर्शों को संरक्षित करने के इरादे से सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि संसद इसे संशोधित करने के बहाने संविधान की मूल विशेषताओं को विकृत, खराब या परिवर्तित नहीं कर सकती है। ‘मूल ढांचा’ शब्द संविधान में नहीं दिया गया है, लेकिन उसका सार उपलब्ध है।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं