कानून और न्याय:  संसद की संविधान संशोधन की शक्ति एक प्रतिबंध के अधीन

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कानून और न्याय:  संसद की संविधान संशोधन की शक्ति एक प्रतिबंध के अधीन

संसद संविधान की मूल ढांचे को बदल या बिगाड़ नहीं सकती है। हालांकि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन यह संविधान की मूल ढांचे अथवा विषेषताओं को भंग या प्रभावहीन नहीं कर सकती है। क्योंकि, संसद के पास केवल संशोधन की शक्ति है और संविधान को फिर से लिखने की नहीं। संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत कहता है कि संविधान में संशोधन करने के लिए संसद की असीमित शक्ति एक प्रतिबंध के अधीन है। इसे संविधान की मूल ढांचे को कमजोर या उसका उल्लंघन नहीं करना चाहिए। संशोधन के प्रभाव मूल ढांचे के प्रति प्रकृति में निरस्त या परेशान करने वाले नहीं होने चाहिए। मूल ढांचे का सिद्धांत हालांकि पूरी तरह से परिभाषित नहीं है। लेकिन इसकी सामग्री न्यायपालिका द्वारा प्रदान की गई है। यह संविधान के ढांचे या संरचना को परिभाषित करने वाले दायरे को स्पष्ट करती है। समय-समय पर कुछ नई सामग्री के साथ मूल ढांचे का बढ़ाया जाता है। शायद इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक संविधान की मूल ढांचे को परिभाषित नहीं किया गया है।

प्रारंभ में, न्यायपालिका का विचार था कि संसद की संशोधन शक्ति अप्रतिबंधित है क्योंकि यह संविधान के किसी भी भाग में संषोधन कर सकती है। अनुच्छेद 368 भी संसद में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है। लेकिन सन् 1967 में, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य, प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने संसद की शक्तियों को देखने के लिए एक नई दृष्टि को अपनाया। यह कहा गया कि मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं किया जा सकता है।

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‘‘बुनियादी विषेषताओं‘‘ को पहली बार सन् 1953 में, न्यायमूर्ति जे.आर. मुधोलकर ने सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य के मामले में अपनी असहमति में इसकी व्याख्या की थी। उन्होंने लिखा था कि ‘‘यह भी विचार का विषय है कि क्या संविधान की मूल विषेषता में परिवर्तन करना केवल एक संषोधन के रूप में माना जा सकता है अथवा यह वास्तव में संविधान के एक भाग का पुनर्लेखन होगा।

सन् 1973 में, केषवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले ने एक ऐतिहासिक निर्णय को जन्म दिया। इसमें कहा गया था कि संसद संविधान की मूल ढांचे को बदल या बिगाड़ नहीं सकती है। हालांकि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन यह संविधान की मूल ढांचे अथवा विशेषताओं को भंग या प्रभावहीन नहीं कर सकती है। क्योंकि संसद के पास केवल संशोधन की शक्ति है और संविधान को फिर से लिखने की नहीं है।

हालांकि केशवानंद भारती के प्रकरण में मूल सिद्धांत दिया गया था। लेकिन बाद के मामलों और निर्णयों के कारण इसे व्यापक स्वीकृति और वैधता मिली। इस सिद्धांत का मुख्य विकास शक्तिशाली पीएम इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकालीन अवधि में शुरू हुआ था। उनके अभियोजन को दबाने के लिए सरकार द्वारा संविधान में 39वां संशोधन किया गया था। इसने प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा के दायरे से भी हटा दिया था। हालांकि, इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण के मामले में, 39वें संशोधन अधिनियम को मूल ढांचे के सिद्धांत की मदद से रद्द कर दिया गया था। मिनर्वा मिल्स मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने मूल ढांचे के सिद्धांत की विवेचना पर महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण प्रदान किया था। इसमें संविधान में संषोधन करने की संसद की सीमित शक्ति के तहत अधिकारों और निर्देषक सिद्धांतों के बीच सामंजस्य और संतुलन बनाए रखना तथा न्यायिक समीक्षा के महत्वपूर्ण सिद्धांत जोड़े।

इन संषोधनों की संवैधानिक वैधता को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के तैरह न्यायाधीशों की एक संपूर्ण खंडपीठ के समक्ष सुनवाई की गई। उनका निर्णय ग्यारह अलग-अलग निर्णयों में पाया जा सकता है। नौ न्यायाधीशों ने एक सारांश कथन पर हस्ताक्षर किए थे जो इस मामले में उनके द्वारा किए गए सबसे महत्वपूर्ण निष्कर्षों को बताता है। इनमें संविधान के ‘मूल ढांचे’ की अवधारणा को बहुमत के फैसले के निष्कर्ष में मान्यता मिली। सभी न्यायाधीशों ने 24वें संशोधन की वैधता को यह कहकर बरकरार रखा कि संसद को संविधान के किसी भी या सभी प्रावधानों में संशोधन करने की शक्ति है।

भारतीय संसद द्वारा यह अपनी विधायी शक्ति का प्रयोग करके देश के लिए कानून बना सकता है। साथ ही वह अपने संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करके संविधान में संशोधन कर सकता है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य वाले मामले में वर्ष 1967 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की ग्यारह न्यायाधीशों की बेंच ने पहले से मौजूद स्थिति को उलट दिया। इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 368, संविधान के संशोधन से संबंधित प्रावधान शामिल है। इसमें केवल संशोधन प्रक्रिया निर्धारित की है। इस अनुच्छेद ने संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान नहीं की। इसलिए, संसद की संशोधन शक्ति अनुच्छेद 245, 246 और 248 के तहत तथा संविधान में निहित अन्य प्रावधानों से आई। इसने संसद को कानून बनाने की शक्ति दी। इस प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संसद की संशोधन शक्ति और विधायी शक्तियां अनिवार्य रूप से समान थीं। इसलिए, संविधान के किसी भी संशोधन को भारत के संविधान के अनुच्छेद 13 (2) के तहत कानून माना जाना चाहिए।

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि संविधान की कुछ विशेषताएं इसके मूल में है। उन्हें बदलने के लिए सामान्य प्रक्रियाओं की तुलना में अधिक सावधानियां आवश्यक है। मूल ढांचा शब्द पहली बार एम.के. नांबियार ने गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के ऐतिहासिक मामले में याचिकाकर्ताओं के लिए बहस करते हुए पेश किया गया था। लेकिन सन् 1973 तक ही यह अवधारणा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में लिखित प्रारूप में सामने आई थी।

केरल के केशवानंद भारती श्रीपादंगल वरू ने संविधान के संशोधन अधिनियम 1972 को चुनौती दी। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसएम सीकरी ने मामले की गंभीरता को देखते हुए याचिकाओं की सुनवाई के लिए तेरह न्यायाधीशों की बेंच गठित की। निर्णय बहुमत से 7/6 अनुपात में किया गया था। इसमें कहा गया कि भारत के संविधान की मूल ढांचे को संसद द्वारा संषोधित नहीं किया जा सकता है।

नौ न्यायाधीशों द्वारा सामूहिक रूप से लगभग एक हजार पृष्ठों के योगदान देने वाले ग्यारह निर्णयों के साथ मामले का फैसला किया गया। छः न्यायाधीशों की राय थी कि संसद की संशोधन शक्ति सीमित है क्योंकि संविधान में ही निहित विशिष्ट सीमाएं हैं। छः अन्य की यह राय थी कि संशोधन प्रक्रिया के संबंध में संसद की शक्ति असीमित है। लेकिन एक न्यायमूर्ति खन्ना थे जिन्होंने सुझाव दिया कि संसद संविधान के किसी भी प्रावधान में संशोधन कर सकती है। लेकिन चूंकि शक्ति ‘संशोधन’ करने की है, इसलिए यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन या संशोधन नहीं कर सकती है। तेरह न्यायाधीशों की बेंच में से केवल छः न्यायाधीश इस बात पर सहमत हुए कि भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकार संविधान की मूल ढांचे से संबंधित है और संसद इसमें संशोधन नहीं कर सकती है।