Law and Justice : समय पर जमानत न होना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन

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Law and Justice : समय पर जमानत न होना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन

Law and Justice : समय पर जमानत न होना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन

जमानत का मूल सिद्धांत यह है कि जमानत एक नियम है और जेल अपवाद है। लेकिन इस नियम के विभिन्न पहलू हैं, जिसकी आम जनता को जानकारी होना चाहिए। कुछ दिनों पहले तक अभिनेता शाहरुख खान का बेटा आर्यन खान ड्रग मामले में जेल में था। दो सप्ताह तक टीवी चैनलों और मीडिया का मुख्य समाचार भी यही था। उनकी जमानत होगी या नहीं, यह देश का सबसे ज्वलंत प्रश्न था। आखिरकार उच्च न्यायालय द्वारा कड़ी शर्तों के साथ जमानत दी गई। इस कारण ‘जमानत’ के संबंध में लोगों में काफी जिज्ञासा बढ़ी है। वास्तव में जमानत क्या है, इस पर एक विश्लेषण! 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय को इस बात पर सदमा लगा था कि पंजाब- हरियाणा हाईकोर्ट में एक जमानत याचिका एक वर्ष से अधिक समय होने के बाद भी सुनवाई हेतु नियत नहीं हुई। न्यायालय ने कहा कि इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन माना जाएगा। यह न्याय प्रशासन की विफलता मानी जाएगी। न्यायालय ने उक्त आवेदन को तुरंत सुनवाई करने का आदेश दिया।
एक अन्य प्रकरण में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के इंकार के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्त को जमानत देते हुए कहा कि जमानत देना नियम है और जेल में रखना अपवाद। इस अभियुक्त के खिलाफ पुलिस ने मामले को बंद कर दिया था। लेकिन, हाईकोर्ट ने इसके बाद भी उसे जमानत नहीं दी। इस अभियुक्त के खिलाफ 2012 में धोखाधड़ी का एक मामला दर्ज किया गया था और 2013 में पुलिस ने इस मामले को बंद कर दिया।
लेकिन पांच साल बाद न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इस मामले की दुबारा जाॅंच का आदेश दिया। इसके बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया। उच्च न्यायालय ने उसकी पहली जमानत याचिका रद्द कर दी। दूसरी याचिका को वापस ले लिया गया। इस बीच पुलिस ने मामले की जाॅंच की और दूसरी रिपोर्ट पेश की।
   इस रिपोर्ट में कहा गया था कि अपीलकर्ता ने कोई अपराध नहीं किया है और उसे छोड़ दिया जाना चाहिए। मामले को बंद कर दिए जाने की इस रिपोर्ट के बाद आरोपी ने हाईकोर्ट में इस आधार पर फिर जमानत की अर्जी दी। दुर्भाग्य से जमानत याचिका पर सुनवाई नहीं हो सकी। इस पर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अभियुक्त द्वारा अपील प्रस्तुत की गई। सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर गहरी नाराजगी व्यक्त की।
Law and Justice ! कानून और न्याय : समय पर जमानत न होना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि जमानत के आवेदन की लिस्टिंग न करना अभियुक्त की स्वतंत्रता को प्रभावित करना है। आरोपी की अपील स्वीकार करते हुए तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े, बीआर गवई और सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि उच्च न्यायालय को यह बात ध्यान में रखना चाहिए थी कि जमानत नियम है, जेल अपवाद है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि जमानत यांत्रिक तरीके से न तो दी जानी चाहिए और न इससे इंकार किया जाना चाहिए। क्योंकि यह मसला एक व्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है।
   इस मामले की विचित्र परिस्थिति यह है कि मामले को दो बार बंद किया गया। उच्च न्यायालय सिर्फ इस आधार पर जमानत से इंकार नहीं कर सकती कि अधीनस्थ न्यायालय ने अभी इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया है। अपीलकर्ता के खिलाफ जिस तरह के आरोप लगाए गए हैं, उसकी प्रकृति को देखते हुए तथा हिरासत में उसने जो समय बिताया है उसे देखते हुए हम इस बारे में आश्वस्त है कि उसे तत्काल जमानत दी जाना चाहिए।
Law and Justice ! कानून और न्याय : समय पर जमानत न होना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन
यह एक कानूनी सिद्धांत है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने 1978 में राजस्थान राज्य बनाम बलचंद उर्फ बलिया के एक ऐतिहासिक फैसले में निर्धारित किया था। यह निर्णय उन मूलभूत अधिकारों पर आधारित था, जिसकी संविधान में गारंटी दी गई है। भारतीय संविधान अनुच्छेद 21 सबसे महत्वपूर्ण है। पुलिस द्वारा किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के उसके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन है।
गिरफ्तारी का मुख्य उद्देश्य अभियुक्तों को बिना किसी असुविधा के मुकदमे के लिए आसान कार्यवाही सुनिश्चित करना है। यदि यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि अभियुक्त परीक्षण के लिए आवश्यक होने पर उपलब्ध होगा, तो व्यक्ति को हिरासत में लेना आवश्यक नहीं है। इसलिए विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया में माना गया है कि किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के संबंध में आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के प्रावधानों की व्याख्या इसी अर्थ में की जानी चाहिए। जब तक अपरिहार्य न हो, किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने से बचा जाना चाहिए।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की विभिन्न धाराएं हिरासत में लिए गए व्यक्तियों अथवा हिरासत में लिए गए व्यक्तियों को विभिन्न वैधानिक अधिकार प्रदान करती हैं। ऐसे ही एक अधिकार को जमानत के नाम से जाना जाता है। यह एक हिरासत में लिए गए व्यक्ति की अंतरिम रिहाई है। यह ऐसे व्यक्ति को अंतरिम राहत है जिस व्यक्ति पर अपराध का आरोप है और निर्णय दिया जाना शेष है। बेल (जमानत) शब्द एक फ्रांसीसी क्रिया ‘बेलर’ से लिया गया है।
इसका अर्थ है ‘देना’ या ‘डिलीवर’ करना। गिरफ्तारी के पीछे के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सशर्त जमानत दी जाती है। इसकी शर्तों का एक उद्देश्य अदालत के समक्ष आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करना है। यदि व्यक्ति को हिरासत में लिए बिना आरोपी की उपस्थिति की गारंटी दी जा सकती है, तो उसके स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करना अन्याय होगा। इसलिए जमानत वह आदेश है जो रिहाई के लिए अदालत में पेश होने के लिए जमा की जाती है। हाल ही में शाहरूख खान के बेटे को उच्च न्यायालय ने इन्हीं सिद्धांतों को ध्यान में रखकर कड़ी शर्तों के साथ जमानत दी है।
भारत में जमानत तीन मुख्य रूपों में परिभाषित किया जा सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 और धारा 439 नियमित जमानत से संबंधित है। इस प्रकार की जमानत तब दी जाती है जब किसी अपराध का आरोपी व्यक्ति पुलिस हिरासत में होता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की ही धारा 438 के तहत उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय द्वारा अग्रिम जमानत दी जा सकती है।
इस प्रकार की जमानत का आवेदन तब किया जाता है, जब कोई व्यक्ति यह अनुमान लगाता है कि उसे गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है। एक गैर-जमानती अपराध एक ऐसा अपराध है जिसमें एक आरोपी जमानत के लिए आवेदन दायर नहीं कर सकता है। अदालत अपने विवेक से आरोपी को जमानत दे सकती है। इसके अलावा अंतरिम जमानत सुनवाई से पहले अथवा यात्रा के दौरान संबंधित न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के पूर्व एवं नियमित जमानत या कम समय के लिए अग्रिम जमानत दी जा सकती है।
    जमानती अपराध के मामले में जमानत दी जानी चाहिए, यदि जांच निर्धारित समय में पूरी नहीं होती है। यदि यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि आरोपी ने गैर-जमानती अपराध किया तो भी जमानत दी जा सकती है। यदि परीक्षण 60 दिनों की अवधि के साथ पूरा नहीं किया गया तो जमानत नहीं दी जा सकती है।
साथ ही यदि यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि मुकदमा पूरा होने के बाद भी आरोपी दोषी है लेकिन फैसला सुनाया नहीं जाता है तो भी जमानत दी जा सकती है। इसके अलावा गैर-जमानती अपराध के मामले में, जमानत देना अदालत के विवेक पर निर्भर करता है जो कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर तय किया जाता है।
दण्ड संहिता की धारा 438 अग्रिम जमानत से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि जब किसी व्यक्ति के पास यह मानने का कारण होता है कि उसे गैर-जमानती अपराध के लिए गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वह इस दौरान जमानत पर रिहा होने के लिए उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में आवेदन कर सकता है। गिरफ्तारी और अदालत इसे ठीक होने पर निर्देश दे सकती है।
सिद्धराम सतलिंगप्पा मेहत्रे बनाम महाराष्ट्र राज्य के एक ऐतिहासिक फैसले में, अदालत ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के महत्व पर प्रकाश डाला है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 438 को अनुच्छेद 21 के आलोक में पढ़ा जाना चाहिए। जमानत देना या अस्वीकार करना किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज के हित की पवित्रता के सही संतुलन को दर्षाता है।
उचित संदेह से परे दोषी साबित होने तक एक व्यक्ति निर्दोष है। आपराधिक न्याय शास्त्र का यह सिद्धांत अग्रिम जमानत के प्रावधान को शामिल करने का एक महत्वपूर्ण आधार है। अग्रिम जमानत लेने के लिए किसी व्यक्ति को दण्ड संहिता की धारा 438 (2) के तहत कुछ शर्तों को पूरा करना होता है।
अग्रिम जमानत की आवश्यकता इस कारण महसूस की गई कि कई बार राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता व्यक्तिगत दुश्मनी जैसे कई प्रमुख कारण होते है जिसके कारण निर्दोष व्यक्तियों को फंसाया जाता है। प्रभावशाली लोग अपने प्रतिद्वंदियों को अपमानित करने या अन्य व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए झूठे मामलों में फंसाने की कोशिश करते हैं। इसलिए अदालतें यह सुनिश्चित करती हैं कि गिरफ्तारी न होने पर किसी व्यक्ति को तब तक हिरासत में न लिया जाए जब तक कि न्याय के हित को नुकसान न पहुंचे।
अभी कुछ समय पूर्व ही सर्वोच्च न्यायालय ने रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को एक मामले में जमानत दी थी। न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और इंदिरा बनर्जी ने मुम्बई उच्च न्यायालय के आदेष को चुनौती देने वाली गोस्वामी की याचिका पर आदेष दिया था। जिसमें अन्वय नायक-कुमुद नाइक आत्महत्या में गोस्वामी को अंतरिम जमानत देने से इंकार किया गया था।
 किसी व्यक्ति की नजरबंदी भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करती है। यह वास्तव में एक बहुत ही महत्वपूर्ण, पथ प्रदर्शक और सराहनीय निर्णय है। आमतौर पर जमानत मिलने में दिन, हफ्ते और महीने लग जाते हैं। देष की जेलों में विचाराधीन कैदियों की भीड़ है। दुर्भाग्य से अधीनस्थ न्यायालय जमानत देने से हिचक रही है।
इस कारण भी उच्च न्यायालयों में विचाराधीन प्रकरणों में इनकी बड़ी संख्या है। अधीनस्थ न्यायालयों के इस रूख पर अनेकों बार सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय खैद जता चुके हैं। कुछ न्यायाधीशों ने यह टिप्पणी की है कि ऐसा लगता है कि अधीनस्थ न्यायालयों से जमानत देने के अधिकार ले लिए गए है। लेकिन अधीनस्थ न्यायालयों के इस रुख का कारण कई बार अपनी नौकरी बचाने और ईमानदारी दिखाने का एक आधार होती है।
अफसोस की बात है कि ‘आम आदमी’ के लिए जमानत हासिल करना एक कठिन काम है। एक बार प्राथमिकी दर्ज होने के बाद, एक व्यक्ति और उसके शुभचिंतकों को संदिग्ध / आरोपी की जमानत के लिए दर-दर भटकना पड़ता है। संदिग्ध/अभियुक्त पुलिस अधिकारी की दया पर है। वह वकीलों, न्यायाधीषों तथा प्रक्रियाओं की दया पर निर्भर है जो कभी खत्म नहीं होती है। एक आम आदमी का जीवन अदालत और प्रक्रिया के इर्द-गिर्द घूमता रहता है।
किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) के प्रावधानों की व्याख्या इस अर्थ में की जानी चाहिए कि जब तक अपरिहार्य न हो, किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने से बचना चाहिए। प्रसिद्ध मामले में ए.के. क्रिपक बनाम भारत संघ, सर्वोच्च न्यायालय के लिए बोलते हुए, हेज जे ने कहा था कि ‘प्राकृतिक न्याय के नियमों का उद्देश्य न्याय को सुरक्षित करना या न्याय की असफलता को रोकने के लिए इसे नकारात्मक रूप से रखना है।’
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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं