Justice and Law : टूटते परिवार और न्यायालयों में बढ़ते मामले

Justice and Law: Breaking families and increasing cases in courts

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Justice and Law

Justice and Law : टूटते परिवार और न्यायालयों में बढ़ते मामले

मुझे याद है वर्ष 1969-1970 का साल जब हमने वकालात प्रारंभ की थी। उस समय पति-पत्नी के विवाद बहुत कम मात्रा में हुआ करते थे। न्यायालय इन मामलों में प्रायः नहीं हुआ करते थे। लेकिन, आज यह न केवल सामाजिक चिंता बल्कि मुकदमों के मामलों में भी अग्रणी है।
इनके न्यायालय अभी लग है तथा इन पारिवारिक न्यायालयों की संख्या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ाई जा रही है। फिर भी इन पारिवारिक मुकदमों की संख्या कम होने के स्थान पर निरंतर बढ़ ही है। इन न्यायालयों के दृष्य भारी भीड़ वाले आयोजनों की तरह होते है। इस भीड़ में मासूम बच्चों की संख्या भी बड़ी मात्रा में होती है, जो अपने माता-पिता के झगड़ों एवं विवादों के शिकार होते हैं।
Justice and Law : टूटते परिवार और न्यायालयों में बढ़ते मामले
पति-पत्नी के बीच के विवादों का सबसे अधिक बुरा प्रभाव इन बच्चों पर ही होता है। इन बच्चों को माता-पिता दोनों के प्यार पाने का स्वाभाविक अधिकार होता है। लेकिन, इन विवादों के शिकार ये बच्चे बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। इन विवादों का प्रभाव इन बच्चों पर मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक हर तरह से होता है।
बच्चे ही इन विवादों से परेशान होते हो ऐसा भी नहीं है। इन विवादों में परिवार के परिवार बर्बाद हो रहे हैं। गत अनुभवों के आधार पर महिला सशक्तिकरण के लिए महिलाओं के हित में अनेक कानून बनाए गए है, यह आवश्यक भी है। लेकिन, गत वर्षों में अनुभव से यह तथ्य भी सामने आए हैं कि इन कानूनों का दुरुपयोग भी हो रहा है।
इसके शिकार कई बार वे परिवार तथा पुरुष एवं महिलाएं होती हैं, जिनका कोई कसूर नहीं होता है। पति के साथ-साथ परिवार के बुजुर्ग सास, ससुर, ननद, जेठ और अन्य रिश्तेदार भी शिकार होते है। इन झूठे मामलों में उन्हें कई बार जेल जाने तथा मुकदमों का सामना करना पड़ता है। बदलते परिवेश में महिला एवं पुरूष दोनों में ही आर्थिक स्वावलंबन की चाह विस्तृत होने लगी है। इसके परिणामस्वरूप भले ही परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ हो, लेकिन इस तथ्य को कतई नकारा नहीं जा सकता कि आर्थिक स्वतंत्रता की बढ़ती चाहत कई परिवारों के विघटित होने का भी कारण बनी है।
    जहां पहले आजीविका कमाने का क्षेत्र केवल पुरुषों तक ही सीमित था, वहीं आज पति-पत्नी दोनों ही कमा रहे है। इस कारण वे दोनों ही इतने व्यस्त हो चुके हैं कि उनके पास एक-दूसरे के लिए ही समय ही नहीं होता। आजकल ऐसे पति-पत्नी को सप्ताहांत (वीकेंड) पति-पत्नी कहा जाता है। ऐसे में आपसी समझ और सामंजस्य कम होते जा रहे हैं। दोनों के पास एक-दूसरे के लिए ही समय नहीं होता है तो परिवार के अन्य सदस्यों की बात को छोड़ ही दिया जाना चाहिए। पहले तलाक की इस अवधारणा को कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं था। इस कारण पति-पत्नी दोनों अपने रिष्ते को बनाए रखने के लिए बाध्य थे। लेकिन जबसे तलाक होने के अधिकार को कानून बनाया है, तबसे तलाक शुदा प्रकरणों की बाढ़ आने लगी।
Justice and Law : टूटते परिवार और न्यायालयों में बढ़ते मामले
 कानूनन व्यभिचार, क्रूरता, परित्याग, धर्म परिवर्तन, पागलपन, कुष्ठ रोग, छूत की बीमारी वाले यौन रोग, सन्यास तथा सात साल तक गुमषुदगी या जीवित होने की कोई खबर न होने पर ही हिंदू विवाह अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत तलाक लिया जा सकता था। लेकिन कानून में अब संषोधन कर तलाक को आसान बना दिया है। अब इस अधिनियम की धारा 13-बी व विषेष विवाह अधिनियम की धारा 28 के तहत पति-पत्नी दोनों की आपसी सहमति से तलाक की अर्जी दायर करने के बाद अगर एक पक्ष जानबूझकर अदालती कार्यवाही से बचता है तो ऐसे में अदालत उस आवेदन पर तलाक दे प्रदान कर सकती है।
सामाजिक एवं आर्थिक कारणों से परिवार विघटन की संख्या तेजी से बढ़ी है। पति-पत्नी के अहम ने इस आग में घी का काम किया है। आज समाज में मानसिकता और प्राथमिकताएं तेजी से बदली है। पति-पत्नी के मध्य मनमुटाव पैदा होना लाजमी है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे कानूनी रूप से तलाक लेकर अलग हो जाएं।
तलाक केवल उन्ही परिस्थितियों में लिया जाए जब बाकी सब विकल्प निरर्थक साबित हो चुके हों। विवाह जैसी पवित्र संस्था को तलाक द्वारा ऐसे हालातों में ही किया जाना चाहिए जहां अन्य विकल्प संभव न हो। यह एक कटु सत्य है कि सामाजिक स्थिति अच्छी नहीं है। इसीलिए तलाक को टालना चाहिए। भारत में तलाक शुदा स्त्रियों की संख्या पुरूषों के मुकाबले अधिक है।
इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि तलाक शुदा पुरूष अगर पुनर्विवाह करना चाहे तो उसके लिए यह आसान है, महिलाओं के लिए कठिन है। फिर दूसरा विवाह सफल होगा, इसकी कोई ग्यारन्टी नहीं है। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि तलाक पक्षकारों को भावनात्मक रूप से भी तोड़ देता है। तलाक के दौरान और उसके पहले अनेक मामलों में पति के खिलाफ तरह-तरह की शिकायत भी की जाती है। यह सही है कि सभी मामले झूठे नहीं होते है तथा अनेकों में प्रताड़ना के मामले होते है। लेकिन विगत बरसों में झूठे मामलों की संख्या भी तेजी से बढ़ी है।
रोहतक की फैमिली कोर्ट के एक मामले में फैसले को चुनौती देने वाली याचिका को पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि पत्नी अगर बार-बार पति के खिलाफ झूठी शिकायत करती है, तो ये क्रूरता है। शिकायत झूठी मिलने पर यह तलाक का ठोस आधार भी है। इस प्रकरण में आवेदिका का विवाह रोहतक में हुआ था।
विवाह के बाद से ही घर में झगड़े का माहौल रहने लगा। पति ने आरोप लगाया कि पत्नी का बर्ताव उसके तथा उसके परिवार के प्रति ठीक नहीं था। दोनों गांव में रहते थे और धीरे-धीरे पत्नी ने यह प्रयास आरंभ कर दिया कि परिवार से अलग होकर शहर में रहने की व्यवस्था की जाए। जब परिवार इस बात पर सहमत नहीं हुआ तो पूरे परिवार को झूठे केस में फंसाने की धमकी दी गई। इसके बाद आवेदिका पत्नी के ससुराल वालों ने घर बसाने के लिए रोहतक में किराए के मकान की व्यवस्था भी कर दी।
पत्नी के परिवार वालों के दखल ने दोनों का जीवन नर्क बना दिया। पति ने जब इसका विरोध किया तो पत्नी की क्रूरता बढ़ गई। इसके बाद आपराधिक षिकायतों का दौर शुरू हुआ। एक के बाद एक पति के खिलाफ शिकायतें की गई। पुलिस ने सभी मामलों की जांच की और शिकायत की कार्यवाही के लिए उपयुक्त नहीं माना।पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि पत्नी ने शादी के तुरंत बाद परिवार से अलग रहने का दबाव बनाने के लिए झूठी शिकायतों का सहारा लिया गया है। लड़ाकू प्रवृत्ति और पति व ससुराल वालों के प्रति इस प्रकार का रवैया निश्चित ही क्रूरता की श्रेणी में आता है।
यह तलाक का आधार हो सकता है। ऐसे में रोहतक के परिवार न्यायालय का तलाक का फैसला सही है और उसमें परिवर्तन की जरूरत नहीं है। उच्च न्यायालय ने तलाक के खिलाफ पत्नी की याचिका को खारिज कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य मामले में अपने आदेश में पत्नी की गई झूठी शिकायत को क्रूरता मानते हुए पति के पक्ष में तलाक की डिक्री पारित की। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में कहा कि समाचार पत्र में यह प्रकाशित हुआ है कि पत्नी को पति के परिजनों ने पीटा। वह ससुराल में अनाथ की तरह रही है। इस बारे में पत्नी ने विभिन्न विभागों से लेकर उच्च न्यायालय से कई तरह की शिकायत कीं।
जब पुलिस को मामला रेफर हुआ तो ये सभी शिकायत झूठी निकलीं। इसके बाद पत्नी ने पति पर जबरन घर में घुसने और मारपीट का केस दर्ज कराया। पुलिस ने छानबीन में पाया कि यह भी झूठा केस है। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी विस्तृत विवेचना में कहा कि यह स्पष्ट है कि पत्नी ने झूठा आरोप लगाया। संभव है कि तलाक की अर्जी के बाद नाराज होकर पत्नी ने ऐसा किया हो। लेकिन पत्नी को इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती कि वह पति के विरूद्ध झूठा केस दर्ज करें।
पुलिस ने कहा कि झूठा केस है। इस प्रकरण में महिला ने झूठे आरोप लगाए। ये आरोप मानहानि की श्रेणी में आने वाले है। अगर झूठी शिकायत की गई हो जिसमें कोई संदेह नहीं है तो ऐसी शिकायत क्रूरता की श्रेणी में आती है। इस प्रकरण में भी महिला ने झूठा केस किया और पुलिस ने पाया कि महिला ने झूठी शिकायत की थी और यह क्रूरता है।
 इस मामले में सन् 1989 में दम्पति की शादी हुई थी। शादी के बाद सन् 1990 में बच्चे हुए। इसके बाद नौ साल तक सबकुछ ठीक चला। इस दौरान महिला अपनी ससुराल में रहती थी। बाद में पति के माता-पिता उनसे अलग दूसरे घर में रहने लगे। इसी दौरान पति ने पत्नी का साथ छोड़ दिया तलाक की अर्जी दाखिल कर दी। इसके बाद पत्नी ने अपने पति के खिलाफ कई गंभीर आरोप लगाए। इस बारे में कुछ खबरें अखबारों में भी छपीं।
साथ ही पत्नी ने मुख्यमंत्री से लेकर राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक को पत्र लिखा। मामले की छानबीन हुई और तमाम शिकायतें झूठी पाई गईं। फिर महिला ने पति पर जबरन घर में घुसने और मारपीट का आरोप लगाया। पुलिस ने केस दर्ज कर छानबीन की और पाया कि पत्नी ने स्वयं को जख्म पहुंचाकर पति पर झूठे आरोप लगाए।
इसके बाद पति ने अपनी तलाक की अर्जी के आधार में क्रूरता का आधार भी लिया। पति ने कहा कि महिला ने उसके खिलाफ झूठा केस दर्ज करवाकर उसकी मानहानि की है। ऐसे में यह क्रूरता का मामला बनता है। इस आधार पर पति ने तलाक की मांग की। विचारण न्यायालय और उच्च न्यायालय से आवेदन पत्र खारिज होने के बाद मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जिसमें तलाक का आदेश पारित किया गया।
जानकारी और ज्ञान ऐसी चीजें हैं, जो कभी भी व्यर्थ नहीं होती। आपको रोजमर्रा की जिंदगी आसान बनाने के लिए वैवाहिक मामलों से जुड़ी हुई बातों की जानकारी रखनी ही चाहिए। दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक ऐसा फैसला दिया है, जो समाज बड़े वर्ग से जुड़ा हुआ है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि पति की कुल सैलरी का एक तिहाई हिस्सा पत्नी को गुजारा भत्ते के तौर पर दिया जाए। कोर्ट ने कहा कि आमदनी के बंटवारे का सिद्धांत तय है।
इसके तहत नियम है कि अगर कोई और निर्भर नहीं हो तो पति के वेतन के दो हिस्से पति के पास और एक हिस्सा पत्नी को दिया जाना चाहिए। न्यायालय ने एक पत्नी की अर्जी पर फैसला सुनाते हुए निर्देश दिया है कि महिला को पति की सैलरी से 30 फीसदी मिले। इस अधिकार के अलावा ऐसे और भी अधिकार है जिसके बारे में पति-पत्नी दोनों के पास जानकारी होनी चाहिए।
यदि पत्नी खुद के भरण-पोषण में सक्षम है तो वह पति से गुजारे भत्ते की हकदार नहीं होगी। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने गुजारे भत्ते को लेकर एक मामले में अहम आदेश दिया है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि यदि पत्नी खुद की देखभाल में आर्थिक रूप से सक्षम है तो वह पति से गुजारे भत्ते की हकदार नहीं है। दूसरी पत्नी, पहली के जीवित रहते गुजारा भत्ते की हकदार नहीं होगी। एक अन्य फैसले के अनुसार पहली पत्नी से तलाक लिए बिना पुरुष से शादी करने वाली दूसरी पत्नी पहली के जीवित रहते गुजारा भत्ते पाने की हकदार नहीं है। हालांकि दूसरी पत्नी से उत्पन्न अविवाहित संतान भत्ते की हकदार होगी।
बॉलीवुड एक्टर आमिर खान और उनकी पत्नी किरण राव ने संयुक्त बयान जारी कर अपने तलाक की घोषणा की। इसके बाद से ही दोनों के रिश्तों से लेकर इस पर भी बात हो रही है कि तलाक की प्रक्रिया क्या होगी।
देश के कानून में तलाक के दो तरीके हैं। एक तो आपसी सहमति से तलाक और दूसरा एकतरफा अर्जी लगाना। आपसी सहमति में दोनों पक्षों के राजी-खुशी से संबंध खत्म होते हैं। इसमें वाद-विवाद, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप जैसी बातें नहीं होती है। आपसी सहमति से तलाक में यदि पति या पत्नी में से एक अगर आर्थिक तौर पर दूसरे पर निर्भर है तो तलाक के बाद जीवन यापन के लिए सक्षम साथी को दूसरे को गुजारा भत्ता देना होता है।
इस भत्ते की कोई सीमा नहीं होती है, ये दोनों पक्षों की आपसी समझ और जरूरतों पर निर्भर करता है। इसी तरह से अगर शादी से बच्चे हैं तो बच्चों की कस्टडी भी एक अहम मसला है। चाइल्ड कस्टडी शेयर्स यानी मिल-जुलकर या अलग-अलग हो सकती है। कोई एक पेरेंट भी बच्चों को संभालने का जिम्मा ले सकता है। सक्षम पक्ष को उसकी आर्थिक मदद करनी होती है। आपसी सहमति से तलाक की अपील तभी संभव है जब पति-पत्नी एक वर्ष से अलग-अलग रह रहे हों। इसके लिए पति-पत्नी को न्यायालय में संयुक्त याचिका दायर करनी होती है।
दूसरे चरण में दोनों पक्षों के अलग-अलग बयान लिए जाते हैं और दस्तखत की औपचारिकता होती है। तीसरे चरण में कोर्ट दोनों को 6 महीने का वक्त देता है ताकि वे अपने फैसले को लेकर दोबारा सोच सकें। लेकिन हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय से परिवार को इस अवधि को समाप्त करने की स्वतंत्रता प्रदान की है। सहमति न होने पर दोनों में से एक पक्ष ही तलाक के लिए तैयार हो तो रास्ता कठिन होता है। ऐसे मामलों में मुकदमा चलता है।
कानूनी जटिलताएं होती है। विधिक आधारों पर पति या पत्नी में से कोई एक न्यायालय में तलाक की अर्जी प्रस्तुत कर सकता है। इन आधारों में विवाहेतर यौन संबंध, शारीरिक-मानसिक क्रूरता, दो सालों या उससे ज्यादा वक्त से अलग रहना, गंभीर यौन रोग, मानसिक अस्वस्थता, धर्म परिवर्तन आदि आधारों पर तलाक की अर्जी प्रस्तुत की जा सकती है। इनके अलावा पत्नी को तलाक के लिए कुछ खास अधिकार भी दिए गए हैं।
तलाक का फैसला लेने के बाद वकील से मिलकर उसका आधार तय करें। जिस वजह से तलाक चाहते हैं उसके पर्याप्त सबूत पास होने चाहिए। अर्जी देने के बाद न्यायालय की ओर से दूसरे पक्ष को नोटिस दिया जाता है। इसके बाद दोनों पार्टियां अगर कोर्ट में हाजिर हों तो कोर्ट की ओर से सारा मामला सुनकर पहली कोशिश सुलह की होती है। अगर ऐसा न हो तो कोर्ट में लिखित बयान देता है।
लिखित कार्रवाई के बाद कोर्ट में सुनवाई शुरू होती है। इसमें मामले की जटिलता के आधार पर कम या ज्यादा वक्त लग सकता है। यह तथ्य चिंताजनक है, कि दहेज की लगभग 10 हज़ार शिकायतें हर साल झूठी होती है। यह आंकड़ा घरेलू हिंसा के खिलाफ की महिलाओं सुरक्षा अधिनियम (498ए) देश में सबसे दुर्व्यवहारिक कानून में से एक है।
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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं