Jhooth Bole Kouwwa katen! महंगाई, जात-पात और भितरघात बनेंगे योगी के लिए चुनौती

Jhooth Bole Kouwwa katen!

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की दहलीज पर खड़ा है। किसान आंदोलन के बहाने सांसे ले रहे विपक्ष को लखीमपुर खीरी कांड से और दम मिला है। वोटों की खेती के लिए खाद-पानी मिला है। कांग्रेस, सपा-बसपा, आम आदमी पार्टी से लेकर छोटी-बड़ी सभी पार्टियां अपने-अपने खेत जोतने-बोने में जी-जान से जुट गई हैं।

किसकी फसल कितनी लहलहाएगी यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन एक बात तो तय है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में महंगाई, जात-पात और भितरघात मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा के लिए कड़ी चुनौती बनेंगे।

पेट्रोलियम पदार्थों और कुकिंग गैस ही नहीं खाद्य पदार्थों की कीमतो में बेतहाशा बढ़ोतरी ने जनता की कमर तोड़ दी है। पिछले चौदह महीनों से लोगों को घरेलू गैस सिलेंडर की सब्सिडी मिलना भी बंद है।

उपर से कोरोना ने बहुतों की नौकरी छीन ली और रोजगार के अवसर कम कर दिये। स्पेशल ट्रेन के रूप में चलायी जा रही रेलगाड़ियों का किराया भी बढ़ गया। दूसरी ओर, वरिष्ठ नागरिकों सहित अनेक वर्गों को मिलने वाली सब्सिडी रुक गई। जबकि, सामन्यतया आम आदमी ही इन रेलगाड़ियों का यात्री है।

खूबी तो यह है कि महंगाई को मुद्दा बनाने की कोशिश करने वाले विपक्ष की राज्यों की सरकारें पेट्रोलियम पदार्थों पर जीएसटी के पक्ष में नहीं हैं। चक्कर मोटी कमाई का जो है। पेट्रोल की कीमतों में 60 प्रतिशत हिस्सा सेंट्रल एक्साइज और राज्यों के टैक्स का होता है, जबकि डीजल में यह 54 प्रतिशत होता है। पेट्रोल पर सेंट्रल एक्साइज ड्यूटी 32.90 रुपये प्रति लीटर है, जबकि डीजल पर 31.80 रुपये प्रति लीटर है।

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केरल हाईकोर्ट ने जीएसटी काउंसिल से पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने के मुद्दे पर विचार करने का आदेश भी दिया था। लखनऊ में हुई जीएसटी काउंसिल की बैठक में विचार हुआ भी, लेकिन किसी ने तवज्जो नहीं दी। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने कहा, ‘पेट्रोल-डीजल को जीएसटी के दायरे में लाने को लेकर चल रहे कयासों पर केरल हाईकोर्ट के सुझाव पर चर्चा की गई। सदस्यों ने साफ तौर पर इसको खारिज कर दिया।’

इधर, एक ताजातरीन बयान में केरल के वित्त मंत्री के एन बालगोपाल ने कहा कि पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के तहत शामिल करने से ईंधन की कीमतों को कम करने में मदद नहीं मिलेगी और कीमतें तभी नीचे आएंगी जब केंद्र पेट्रोल और डीजल पर उपकर को हटा देगा।

इस दावे को नकारने के लिए कि पेट्रोल और डीजल को जीएसटी में लाने से ईंधन की कीमतों में कमी आएगी, मंत्री ने गैस की बढ़ती कीमतों का हवाला दिया, जो पहले से ही जीएसटी के अंतर्गत है। सिर्फ पेट्रोल-डीजल ही नहीं, बल्कि सरकार ने शराब को भी जीएसटी के दायरे से बाहर रखा है।

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विद्युत दरों को भी अब तक जीएसटी में शामिल नहीं किया गया। हांलाकि, अब चर्चा है कि केंद्र सरकार बहुत जल्द जीएसटी के दो या तीन और दरें लागू कर सकती है। मुमकिन है कि बढ़ी हुई दरों में उन उत्पादों को शामिल किया जाए, जो अब तक जीएसटी के दायरे से बाहर हैं।

आम आदमी मानता तो है कि कोरोना महामारी ने समूची अर्थव्यवस्था को पलीता लगा दिया। मोदी-योगी की नीयत-नीति में कोई खोट नहीं। लेकिन यह आम आदमी, है तो इन्सान ही। पेट की आग जब धधकती है तो सारी नैतिकता-सिद्धांत, मान्यताएं, इज्जत-आबरू दांव पर लग जाती है।

फिर, राजनीति के बाजार में तो अच्छे-अच्छे खरीद-बिक जाते हैं, झुक जाते हैं। खामोश रोष की परिणति होती है ऐसी, जैसे गोरखपुर में आशा देवी का मेयर चुना जाना। चुनौती तो है!

जातपात की राजनीति

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिगत समीकरणों ने अनेक बार सरकारें बनाई और गिराई हैं। अधिकतर क्षेत्रीय दल इसी फैक्टर के सहारे पनपे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी के करीब दलित वोट बैंक हैं, वहीं ब्राह्मण 13 फीसदी, ठाकुर 8.5 फीसदी और यादव 9 प्रतिशत के करीब हैं। इसके अतिरिक्त मुस्लिम 19 फीसदी, कुर्मी 3 प्रतिशत और अन्य 24 प्रतिशत हैं।

परंपरागत रूप से भाजपा सवर्णों की, सपा यादवों और मुसलमानों की जबकि बसपा दलितों की पार्टी मानी जाती रही है लेकिन वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव से कुर्मी, कोइरी, राजभर, प्रजापति, लोहार, निषाद आदि जातियां भाजपा के पक्ष में खड़ी हो गई थीं।

वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव में भी ये जातियां भाजपा के साथ थीं। परिणाम, भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। इन जातियों के खिसकने से ही पहले बसपा और फिर सपा के हाथ से सत्ता की चाभी फिसल गई थी। 2019 के लोकसभा चुनाव में राजभर बिरादरी का वोट कुछ हद तक भाजपा से कटा था क्योंकि सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने लोकसभा की सीटों पर प्रत्याशी उतार उतार दिये थे।

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अब राजभर ने बाबू सिंह कुशवाहा की पार्टी सहित 10 छोटे दलों को जोड़ कर भागीदारी संकल्प मोर्चा बना लिया है। उधर, एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने भी उप्र के चुनावी दंगल में ताल ठोंक दी है। उनकी पार्टी को मुसलमानों का कितना वोट मिलेगा यह तो वक्त ही बताएगा। पश्चिम बंगाल में उनकी दाल नहीं गली थी। लेकिन, उनके कारण बहुत से गणित तो बिगड़ेंगे ही।

उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनावों में कुल 58 ब्राह्मण विधायक जीते थे, जिनसें से भाजपा के 46 विधायक थे। इसलिए, सपा-बसपा ब्राह्मणों और सवर्णों को साधने की कोशिश में भी लग गई हैं। कानपुर के बिकरू कांड के बाद से ही भाजपा के विरूद्ध ब्राह्मण विरोधी होने की हवा बनाने से विरोधी दल नहीं चूके हैं। बसपा अध्यक्ष मायावती ने 2007 के सत्ता दिलाऊ सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले की तरह लखनऊ में ब्राह्मण समाज का प्रबुद्ध सम्मेलन आयोजित किया। तो, सपा ने भी ब्राह्मण वोट बैंक को साधने के लिए बलिया में सम्मेलन आयोजित किया।

भाजपा की चिंता ये है कि वह नाराज़ चल रहे जाट, गुर्जर और राजपूत वोटरों के बीच संतुलन कैसे बनाए रखे। जाट कृषि कानूनों, तो गुर्जर और राजपूत सम्राट मिहिर भोज के प्रकरण से नाराज हैं। ‘सेंटर फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़’ यानी ‘सीएसडीएस’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को 77 प्रतिशत जाटों का वोट मिला था, जो 2019 के लोकसभा के चुनावों में बढ़कर 91 प्रतिशत हो गया।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 2022 के विधानसभा चुनाव को देखते हुए गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित को मंत्रिमंडल में खास महत्व दिया है। भाजपा ने दलित में खटीक और गोंड जाति को महत्व दिया है तो ओबीसी में बिंद (मल्लाह), प्रजापति (कुम्हार), गंगवार (कुर्मी) जैसी जातियां के विधायकों को मंत्रिमंडल में जगह देकर बड़ा सियासी दांव चला है। साथ ही भाजपा ने चार एमएलसी को राज्यपाल कोटे से नामित करने में भी गुर्जर, भुर्जी व निषाद जैसी जातियों को महत्व दिया है। मंत्रिमंडल में सवर्णो का दबदबा भी बना हुआ है।

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एबीपी न्यूज सी-वोटर के सर्वे के अनुसार उप्र में फिर से भाजपा को सत्ता मिल सकती है। उप्र के लोगों का सीएम योगी पर भरोसा बरकरार है। हालांकि, सीटों की संख्या कुछ घटती दिख रही है। सितंबर और अक्टूबर के सर्वे की तुलना करें तो भले ही उत्तर प्रदेश में भगवा पार्टी जीत हासिल करती दिख रही हो, मगर एक महीने में भाजपा के ग्राफ में गिरावट देखी गई है। हालांकि, सपा को फायदा होता दिख रहा है।

सीटों के लिहाज से अगर देखें तो भाजपा के खाते में 241 से 249 सीटें जा सकती है। समाजवादी पार्टी के हिस्से में 130 से 138 सीटें आ सकती है। जबकि बसपा 15 से 19 के बीच और कांग्रेस 3 से 7 सीटों के बीच सिमट सकती है। यानी भाजपा को करीब 75 से 80 सीटों का घाटा होता दिख रहा है। वहीं, सपा को करीब सौ सीटों का फायदा होता दिख रहा है। बता दें कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 325 और सपा को 48 सीटें मिली थीं। बसपा को 19 और कांग्रेस को सात सीटें हासिल हुईं थीं।

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लखीमपुर खीरी हिंसा को लेकर भी सर्वे में सवाल पूछा गया था कि केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बयान से क्या लखीमपुर में हिंसा भड़की? इस सवाल पर 61 फीसदी लोगों ने हां में जवाब दिया, जबकि बाकी 39 फीसदी लोगों ने नहीं कहा। जब लोगों से पूछा गया कि क्या लखीमपुर कांड से भाजपा को नुकसान हुआ है? इस पर 70 फीसदी लोगों ने माना कि हां भाजपा को इससे नुकसान हुआ है। 30 फीसदी लोगों ने नहीं में जवाब दिया।

यदि याद हो तो बंगाल विधानसभा चुनाव के साथ देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए बड़ा झटका सिद्ध हुए थे। उत्तर प्रदेश के 75 जिलों के कुल 3050 जिला पंचायत सदस्य की सीटों पर हुए चुनाव में सबसे अधिक निर्दलीयों ने जीत हासिल की। उसके बाद सपा को 747, भाजपा को 666, बसपा को 322 और कांग्रेस को 77 सीटों पर जीत मिली। आम आदमी पार्टी को भी 64 सीटें मिलीं। जबकि निर्दलीयों समेत अन्य को 1174 सीटों पर जीत मिली। विधानसभा चुनाव में रालोद और सपा का गठबंधन भाजपा के लिए एक चुनौती साबित हो सकता है।

झूठ बोले कौआ काटे, बोले तो, पंचायत चुनाव में भाजपा की हार का एक बड़ा कारण कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और स्थानीय स्तर पर भितरघात भी रहा। अति आत्मविश्वास में ये भितरघाती लुटिया डुबोते देर नहीं लगाते। योगी सरकार पर ठाकुरों के प्रति झुकाव का आरोप भी लगाया जाता है। हांलाकि योगी के जनता दरबार को जिसने भी देखा है, जाति-धर्म के आधार पर सुनवाई करते योगी आदित्यनाथ को कभी नहीं देखा गया।

योगी आदित्यनाथ की निष्पक्ष, ईमानदार और कड़क छवि से भ्रष्ट, माफिया और विघ्नसंतोषी घबराए हुए तो हैं ही। लेकिन आम जनता में उनकी छवि आज भी बहुत अच्छी है। यही नहीं, गोरक्षपीठ के प्रति दलितों-निम्न वर्गों में श्रद्धा भाव भी देखने को मिलता है क्योंकि सामाजिक समरसता भोज की जिस संकल्पना को गोरक्षपीठ ने अंजाम दिया, उसी रास्ते पर योगी आदित्यनाथ भी चलते आ रहे हैं। देखना होगा कि योगी अपनी बेदाग दमदार छवि के बूते महंगाई, जात-पात और भितरघात की चुनौतियों से कितना निपट पाते हैं।

 

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रामेन्द्र सिन्हा
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