जीवन अपनी गति से चल रहा, यादें, साथ और लोग पीछे छूट रहे!

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अभय बेड़ेकर

हम और आप अपना जीवन जी रहे! समय गुजरता जा रहा है पर मील के पत्थर की तरह सब पीछे छूटता जा रहा है। वो फिल्में जो हमें सबसे ज्यादा पसंद थी, वो स्मृति पटल से धूमिल होने लगी। घटनाएं पुरानी पड़ने लगी और बड़े-बड़े आयोजन हाशिये पर चले गए। ‘अमर अकबर एन्थोनी’ जैसी कालजयी फ़िल्म को अब याद करना पड़ रहा है।

मनमोहन देसाई की सर्वधर्म समभाव की चाशनी में डूबी ये ऐसी मसाला मूवी है, जो आज भी ‘माई नेम इज एंथोनी गोंजाल्विस’ गाने के कारण और अमिताभ के अविस्मरणीय अभिनय के लिए जानी जाती है। दरअसल, ये सब मैं ‘अमर अकबर एन्थोनी’ की तारीफ में नहीं लिख रहा! पर, आज ये सब वक्त बड़ा बलवान होता है और काल का चक्र घूमते-घूमते कब हमें पीछे छोड़ जाता है इस बात का जिक्र करने के लिए लिख रहा हूँ।

अभय बेडेकर

‘अमर अकबर एन्थोनी’ फ़िल्म 1977 में आई थी, जो उस समय के सारे बड़े सितारों से सजी हुई फिल्म थी। पर, आज आज उस फ़िल्म के चंद बड़े सितारे अमिताभ बच्चन, नीतू सिंह और शबाना आज़मी ही हमारे बीच हैं। विनोद खन्ना, ऋषि कपूर, परवीन बाबी, प्राण, जीवन, जेबिस्को, नासिर हुस्सैन, मनमोहन देसाई, निरूपा रॉय, मुकरी सभी आदि सब काल के परदे के पीछे नेपथ्य में जा चुके हैं।

वक़्त के कल और आज
वक्त के दिन और रात
वक़्त की हर शै गुलाम
वक्त का हर शै पे राज।

वक़्त (1965) फ़िल्म में जितने भी कलाकार थे, वे भी वक़्त के आगे बौने साबित हुए! शशि कपूर, बलराज साहनी, राजकुमार, मदन पुरी, सुनील दत्त और साधना सब वक़्त में समाए जा चुके हैं और सिर्फ़ शर्मिला टैगोर हमारे बीच हैं।
वक़्त गुज़रता जाता है और रह जाती हैं यादें, जो रेत-घड़ी की अपनी गति से चल रही है।

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‘त्रिशूल’ फ़िल्म के दो शूल शशि कपूर और संजीव कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं। न शोले फ़िल्म का गब्बर सिंह (अमजद खान) है, न ठाकुर (संजीव कुमार) बचे। सिर्फ़ अपना विजय या जय (अमिताभ) ही हमारे बीच हैं। याद करो तो ऐसा लगता है कल की ही तो बात है। सोचो तो लगता है वक़्त गुज़रता जा रहा है और हम पुराने होते जा रहे हैं। कितनी ही ऐसी ऐसी फिल्में हैं, जो दिल के इतने क़रीब हैं कि महसूस नहीं होता कि अब वो सिर्फ़ फ़िल्में ही बाक़ी हैं कलाकार नहीं। चाँदनी (1989) मेरी पसंदीदा फ़िल्मों में है, पर अब उस फ़िल्म का कोई भी कलाकार हमारे बीच नहीं है। न विनोद खन्ना, न श्रीदेवी और न ऋषि कपूर। क्योंकि, रेत-घड़ी अपनी गति से चल रही है!

‘क़यामत से क़यामत तक’ हो या फिर मैंने प्यार किया; दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे या ‘मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी’ अब हमारे सारे खान पचास के पार हो चुके हैं! पर, यक़ीन नहीं होता कि सलमान खान या आमिर खान अब पचास पार है। ‘दोस्ताना’ फ़िल्म (1985) के विजय (अमिताभ) और रवि (शत्रुघ्न) दोनों सहस्त्र चंद्र दर्शन कर चुके हैं।

क्रिकेट की बात करूँ तो कौन भूल सकता है वेस्टइंडीज की स्पीड बैटरी के सामने खड़े हमारे हीरो सन्नी गावस्कर को। हेलमेट के जगह स्कल कैप लगाये लिटल मास्टर को स्क्वॉयर कट या स्ट्रेट ड्राइव मारते देखना अपने आप में सुखद अनुभूति थी। गुंडप्पा विश्वनाथ की वो क्लासिक अदाकारी वाली बल्लेबाज़ी और दिलीप वेंगसरकर को छक्के मारते देखते हमारा बचपन बीता पर अब मेरे सभी सितारे पुराने हो गए क्या मै और मेरी पीढ़ी भी!

कपिल देव, मदनलाल, रोजर बिन्नी के भी सफेद बाल कान के पीछे से झांकने लगे हैं और मेरी 10वीं क्लास से लेकर नौकरी लग जाने तक जो दिल दिमाग पर छाया रहा वो ‘तेंदुलकर’ भी कब रिटायर होकर प्रौढ़ दिखने लगा ये जज़्ब करने में भी मुझे समय लगा। और मैं अजित वाडेकर या बिशन सिंह बेदी की बात नहीं कर रहा जो आपको लगे कि वो तो पुरानी पीढ़ी के ही हैं।मै बात कर रहा हूँ अपने मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर की।

शारजाह में या इंग्लैंड में सचिन द्वारा मारे गए शॉट्स की फुटेज आज देखो तो आईपीएल के डिजिटल प्रसारण के सामने वो बहुत पुराने लगते हैं और मुझे आंखों पर विश्वास नहीं होता। मुझे आज भी याद है कैप्टन कूल यानी महेंद्र सिंह धोनी का वो मैच जिसमें परवेज़ मुशर्रफ़ ने उन्हें कहा था कि ‘बाल बड़े रखो, तुम पर अच्छे लगते हैं।’ वो धोनी भारत को वर्ल्ड कप और टी20 जितवाकर कब नेपथ्य में चला गया, पता भी नहीं चला। विराट कोहली ने सचिन और धोनी को रिप्लेस कर दिया ये हम आज महसूस कर रहे हैं।

स्टेफ़ी ग्राफ़ और बोरिस बेकर जब टेनिस के अंतरराष्ट्रीय पटल पर आए थे, तब मै 10वीं में पढ़ता था और बूम बूम बेकर हो या इंटरनेशनल फेवरेट गैबी सबातिनी हो, स्टीफन एडबर्ग हो या पीट सैम्प्रास, सब काल के अंतराल में कहाँ गये पता ही नहीं चला। फ़ेडेक्स-रोजर फेडरर और राफ़ा-राफेल नडाल के खेल को देखते हुए हमारे साल गुज़र गए और अब वो भी पुराने हो गये हैं ये सोचना ही बहुत कष्टप्रद है पर सच्चाई भी यही है।

जब बोर्ग, द लेजेंड खेलता था, तो लोग कहते थे कि बोर्ग को हराना इस पृथ्वी ग्रह पर किसी के बूते की बात नहीं है पर जॉन मैकेनरो ने उसे हरा दिया । आज दोनो ही वेम्बले में बैठ कर अपनी तीसरी पीढ़ी को खेलते देख रहे हैं। सामंथा फ़ॉक्स , पामेला एंडरसन, शैरोन स्टोन, ग्रेटा गार्बो और अल पसीनो, माइकल डगलस कब के दादी-दादा बन चुके हैं पर हम तो अभी भी उनकी फिल्मों में उलझे हुए हैं। रेत-घड़ी अपनी गति से चल रही है, काल का चक्र घूम रहा है।
कहानी अभी बाक़ी है दोस्तों!

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अभय बेडेकर
अभय बेडेकर

लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होकर वर्तमान में इंदौर में अपर कलेक्टर हैं। सामाजिक विषयों पर लिखना उन्हें रास आता है।