आस्था और पवित्रता की छाती पर विलासिता भरे क्रूज का सफर!

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आस्था और पवित्रता की छाती पर विलासिता भरे क्रूज का सफर!

पवित्र गंगा नदी पर विलास क्रूज़ अपनी यात्रा पर निकल पड़ा। अब उसकी दशा से भी अवगत होने की जरूरत है। गंगा सनातन संस्कृति में माँ का दर्ज़ा प्राप्त एक पवित्र नदी है, जिसके जल में स्नान मात्र से जीवन शुद्ध और सफ़ल हो जाने की बात कही जाती है। इस परिस्थिति में अगर विलासितापूर्ण और भव्य जीवन जीने की दिशा में लोग इस पर सवारी करेंगे तो कैसे काम चलेगा! फिर जो गंगा शुद्धिकरण का प्रतीक है! वह अपने इस गुण को कैसे बचाकर रख पाएगी!

‘गंगा’ और ‘विलास’ दोनों शब्द भारतीय संस्कृति के लिहाज़ से दूर-दूर तक साम्यता का भाव नहीं रखते हैं। गंगा हमारी संस्कृति में धर्म और आस्था का केंद्र है, वहीं विलास का अर्थ स्वतः स्पष्ट होता है। जिसे परिभाषित करने की आवश्यकता नहीं। ‘गंगा विलास’ यही नाम रखा गया है, उस आलीशान क्रूज़ का, जो भगवान शिव की नगरी काशी से बंगाल तक जलयात्रा करेगा। अब सवाल कई हैं, लेकिन जब महिमा नगद-नारायण की हो! फ़िर रहनुमाओं को इन सवालों, पवित्रता, त्याग और आस्था का भान नहीं रहता। तभी तो हरिशंकर परसाई जी कहते हैं ‘अर्थशास्त्र, जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ता है। तब गोरक्षा आंदोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं।’ सच पूछिए तो आज स्थिति यही है। पर्यटन के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं। पूर्वी एशिया के कई देश पर्यटकों के जरिए ही अकूत मात्रा में विदेशी मुद्रा हासिल करते हैं। ऐसे में इस दिशा में हमारी रहनुमाई व्यवस्था क़दम बढ़ाएं। उसमें कोई हर्ज नहीं है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू हम दरकिनार कर दें। यह भी न्यायोचित नहीं!

हम सभी भली-भांति समझते हैं कि पर्यटन संस्कृति अपने साथ अपसंस्कृति भी लेकर आती है। हाल के दौर में जैन समाज का मुखर स्वर, सम्वेद शिखर को लेकर देश-दुनिया सभी ने देखा। आखिरकार केंद्र सरकार को अपने फ़ैसले से पीछे हटना पड़ा, क्योंकि जैन समाज ने अपने धर्म के साथ पर्यटन के नाम पर खिलवाड़ वाजिब नहीं समझा! गत कुछ वर्षों में पर्यटन के नाम पर धर्म और अध्यात्म के क्षेत्रों का आधुनिकीकरण किया जा रहा है। जिसके पीछे सबसे बड़ा कारण पर्यटकों को आकर्षित करके सरकारें अथाह धन की लालसा पाल बैठी हैं। जिनके अपने फ़ायदे तो हैं, पर नुकसान से भी नज़र नहीं चुराई जा सकती है।
कुछ लोग विकास विरोधी का तमगा देकर इस विलास क्रूज से देश को आगे बढ़ता हुआ और पांच ट्रिलियन अर्थव्यवस्था की दिशा में इसे सरकार का एक क़दम करार दे सकते हैं, लेकिन काशी से बांग्लादेश होते हुए असम तक की लंबी यात्रा पर चलने वाले दुनिया के सबसे लंबे क्रूज ‘गंगा विलास’ का जलावतरण अपने साथ कई समस्याओं को लेकर आने वाला है। जिसकी शुरुआत तो अभी से दिखनी शुरू हो गई है। सोचिए गंगा, जो हमारी आस्था का प्रतीक है। उसमें शराब परोसी जानी है। शराब, तो इस विलास क्रूज़ का एक छोटा सा नमूना है। जिस क्रूज़ का नाम ही विलास रखा गया है और जिसे पूंजीवादी व्यवस्था को ध्यान में रखकर शुरू किया गया हो। वहाँ क्या-क्या होगा? इसकी सहज परिकल्पना सरकार और समाज दोनों को है।

संवेद-शिखर को जब पर्यटन स्थल का दर्ज़ा दिए जाने की बात कही गई, उस समय जैन समाज ने विरोध का रूख़ अख्तियार इसलिए ही किया। क्योंकि, इससे उनकी आस्था और संस्कृति प्रभावित होने का डर था। फ़िर हम अपनी परंपरा और माँ के समान गंगा मैय्या को विलासिता के साये में क्यों ढ़केलने को उतारू हैं! रसखान के शब्दों में भांग-धतूरा चबाने वाले शिव जिस भागीरथी यानी गंगा नदी पर भरोसा करते हैं और जिन्हें अपनी जटाओं पर धारणा करते हुए उस पर भरोसा करते हों। वह आज की व्यवस्था में भोग-विलास का माध्यम बन जाए तो यह दुखद है और समूची व्यवस्था पर सवालिया निशान छोड़ने का काम करती है। रसखान लिखते हैं ‘एरी! सुधामयी भागीरथी! कोउ पथ्य-कुपथ्य करै तउ पोसे। आक धतूरे चबात फिरैं विष खात फिरैं सिव तोरे भरोसे।’

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‘गंगा-विलास’ क्रूज़ देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकता है, लेकिन यह हमारे मानसिक रूप से कमजोर होने की निशानी भी प्रदर्शित करता है। बहरहाल, गंगा विलास क्रूज को लेकर अंतर्राष्ट्रीय जगत में खासा उत्साह देखा जा रहा है। पहली बार 51 दिन के इस गंगा विलास यात्रा में 36 पर्यटकों में से 32 स्विट्जरलैंड के हैं और अगले दो साल के लिए इसकी बुकिंग पूरी हो चुकी है। केंद्र सरकार भी क्रूज में विश्वस्तरीय सुविधाओं को उपलब्ध कराने का दावा कर रही है। अब विश्वस्तरीय सुविधाएं क्रूज़ में उपलब्ध कराई जानी प्रस्तावित हैं। तो यह पर्यावरण और माँ गंगा के इकोसिस्टम के लिए बेहतर होगी, इसकी संभावना ना के बराबर ही मालूम पड़ती है। ऐसे में भले ही कई संस्कृतियों और समृद्ध परंपराओं की भूमि, इस क्रूज़ के माध्यम से विदेशी लोगों की पहुँच तक सुनिश्चित किए जाने की बात कही जा रही हो। लेकिन यह गंगा-विलास, गंगा माँ के वर्तमान स्वरूप को और बिगाड़ सकती है। एक छोटा सा सवाल, सोचिए जिसे आप माँ का दर्जा देते हों या जिसके साथ माँ शब्द जुड़ा हो। उसके साथ विलास शब्द जोड़ना कितना अशोभनीय लगता है!

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सितंबर 2022 में अपने एक कथन में कहा कि ‘स्वच्छ गंगा के लिए महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मिशन (एनएमसीजी) आंखों में धूल झोंक रहा है। नदी की सफाई के लिए बहुत कम काम ही जमीन पर दिखाई देता है।’ इसके पहले भी कई मौकों पर जिम्मेदार संस्थाओं ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के खोखले दावों का पर्दाफ़ाश किया है। 27 जुलाई 2017 को जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय ने बनारस के लिए ‘गंगा सुरक्षा समिति’ नामक एक प्राधिकरण का गठन किया था। जिसके पदेन सदस्यों में बनारस के ज़िलाधिकारी के साथ गंगा प्रदूषण नियंत्रण इकाई के महाप्रबंधक, उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय अधिकारी और वाराणसी के ज़िला वन अधिकारी भी शामिल रहें।

ऐसे में एक सवाल यह भी है क्या इन सदस्यों को ‘गंगा विलास’ से एक नदी और सनातन संस्कृति के प्रभावित होने के आसार नहीं दिखाई दिए या इनके सुझावों को ठंडे बस्ते में डालकर सत्ताधीशों ने विकास के गौरवगान के लिए संस्कृति और संस्कारों को पोटली में बंद कर दिया! निस्संदेह, यदि इस नए प्रयास से पर्यटन व रोजगार को बढ़ावा मिलना है, तो रहनुमाई व्यवस्था को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि गंगा करोड़ों लोगों की आस्था की प्रतीक है, हमारी सनातन संस्कृति का हिस्सा है। लोगों की मान्यताएं इससे जुड़ी हुई हैं। गंगा कभी भी भोग विलास का साधन नहीं बन सकती। पर्यावरणविदों और संरक्षणवादियों की मानें तो, क्रूज लुप्तप्राय डॉल्फ़िन (प्लैटनिस्टा गैंगेटिका) के निवास स्थान को स्थायी रूप से नुकसान पहुंचा सकती है। यह नुकसान अन्य जलचरों के प्राकृतिक अधिवास को बाधित कर सकते हैं।

‘आज नमामि गंगे’ अभियान को वर्षों बीत चुके हैं, लेकिन इसके भी कोई सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। सरकारी कागज़ों में भले माँ गंगा स्वच्छ बन रही है। इसके इतर वास्तविकता ये है कि गंगा का जल आचमन करने लायक भी नहीं बचा है। ऐसी खबरें अक़्सर सुर्खियां बनती हैं। गंगा नदी को भारत की ‘राष्ट्रीय नदी’ घोषित किया गया है। 2014 में स्वच्छ गंगा कोष बना। जिसका उद्देश्य गंगा की सफाई, अपशिष्ट उपचार संयंत्रों की स्थापना तथा नदी की जैविक विविधता संरक्षण करना था। भुवन गंगा वेव एप भी प्रदूषण की निगरानी में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करता है। इन प्रयासों के बाद गंगा नदी की हालत जस की तस बनी हुई है। अब गंगा-विलास इन प्रयासों पर पानी न फेर दे, इसलिए आवश्यक है कि बहुत कुछ सोच-विचार करके ही ऐसे मसलों पर आगे बढ़ना चाहिए। वरना गंगा की डॉल्फिन का ही सवाल नहीं, बल्कि यह आस्था और लोगों की संस्कृति का भी सवाल है। जिसे अर्थ के लिए विलास में तब्दील नहीं किया जा सकता है।

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अजित लाड
अजित लाड

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक है। करीब डेढ़ दशक से कार्यरत। इलेक्ट्रॉनिक पत्रकारिता में काम करने का लंबा अनुभव। खोजपूर्ण पत्रकारिता और विश्लेषण में विशेषज्ञता हांसिल।