मध्य प्रदेश पर बढ़ता कर्ज़ और ‘मोदी की गारंटी’ की कसौटी: आंकड़े, सियासत और हकीकत!

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मध्य प्रदेश पर बढ़ता कर्ज़ और ‘मोदी की गारंटी’ की कसौटी: आंकड़े, सियासत और हकीकत!

भोपाल। मध्य प्रदेश की वित्तीय स्थिति एक बार फिर सियासी बहस के केंद्र में है। कांग्रेस नेता उमंग सिंगार की सोशल मीडिया पोस्ट के बाद यह सवाल जोर पकड़ रहा है कि क्या राज्य की भाजपा सरकार जरूरत से ज्यादा कर्ज़ ले रही है और क्या चुनावी वादों के दबाव में वित्तीय संतुलन बिगड़ रहा है। दावा किया गया है कि अप्रैल से सितंबर 2025 के बीच सरकार ने 180 दिनों में करीब 51 हजार करोड़ रुपये का नया कर्ज़ लिया, यानी रोज औसतन 284 करोड़ रुपये। इन दावों ने ‘मोदी की गारंटी’ और डबल इंजन सरकार के आर्थिक प्रबंधन पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।

▪️ क्या कहते हैं कर्ज़ के आंकड़े

▫️यह तथ्य है कि मध्य प्रदेश सरकार का कुल बकाया कर्ज लगातार बढ़ा है और यह 4.5 लाख करोड़ रुपये के पार पहुंच चुका है। चालू वित्तीय वर्ष 2025-26 में भी सरकार ने कई किश्तों में नया ऋण लिया है। बजट में पूरे वर्ष के लिए लगभग 84 हजार करोड़ रुपये तक कर्ज लेने का प्रावधान रखा गया था। छह महीनों में लक्ष्य के बड़े हिस्से तक पहुंच जाना यह संकेत देता है कि सरकार पर खर्च का दबाव अपेक्षा से ज्यादा है। हालांकि सोशल मीडिया पोस्ट में बताए गए 51 हजार करोड़ रुपये के आंकड़े को एक ही दस्तावेज में प्रमाणित करना कठिन है, लेकिन उपलब्ध ऋण प्रवृत्तियां यह जरूर दिखाती हैं कि कर्ज लेने की रफ्तार तेज है।

▪️क्या वाकई वित्तीय नियंत्रण ढीला पड़ा

▫️वित्तीय विशेषज्ञों के अनुसार किसी भी राज्य के लिए यह चिंता का विषय होता है जब साल के मध्य तक ऋण लक्ष्य का बड़ा हिस्सा उपयोग हो जाए। इससे शेष महीनों में राजकोषीय लचीलापन घटता है और सरकार को या तो खर्च सीमित करना पड़ता है या फिर अतिरिक्त उधारी का सहारा लेना पड़ता है। मध्य प्रदेश में सामाजिक योजनाएं, वेतन-पेंशन, बुनियादी ढांचे और चुनावी घोषणाओं से जुड़ा खर्च लगातार बढ़ा है, जबकि राजस्व संग्रह उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाया है।

▪️केंद्र बनाम राज्य का तर्क

▫️उमंग सिंघार की पोस्ट में यह आरोप भी लगाया गया है कि केंद्र सरकार ने राज्य की 12 हजार करोड़ रुपये की देनदारी समय पर नहीं चुकाई, जिससे प्रदेश को मजबूरन ज्यादा कर्ज लेना पड़ा। वित्तीय जानकार मानते हैं कि केंद्र से मिलने वाली सहायता, विशेषकर ब्याज-मुक्त ऋण और योजनागत फंड, राज्य के नकदी प्रवाह में अहम भूमिका निभाते हैं। भुगतान में देरी होने पर अल्पकालिक जरूरतों के लिए बाजार से ऋण लेना पड़ता है। हालांकि यह भी सच है कि राज्य का समग्र ऋण केवल केंद्र की देनदारी से तय नहीं होता, बल्कि अपनी नीतियों और खर्च प्राथमिकताओं का भी इसमें बड़ा योगदान होता है।

▫️सरकार का तर्क है कि ऋण का बड़ा हिस्सा इंफ्रास्ट्रक्चर, सड़क, आवास, शहरी विकास और कल्याणकारी योजनाओं में लगाया जा रहा है।

▪️क्या ‘मोदी की गारंटी’ बोझ बन रही है

▫️राज्य सरकार के ही एक वरिष्ठ मंत्री द्वारा यह स्वीकार किया जाना कि चुनावी वादों के कारण वित्तीय दबाव बढ़ा है, इस बहस को और तेज करता है। कई योजनाएं ऐसी हैं जिनका सीधा और स्थायी राजस्व स्रोत नहीं है, लेकिन उनका नियमित खर्च सरकार को उठाना पड़ रहा है। यही कारण है कि कर्ज लेकर योजनाएं चलाने की मजबूरी बनती जा रही है।

▪️कुल मिलाकर तस्वीर क्या है

▫️यह कहना सही नहीं होगा कि मध्य प्रदेश दिवालिया होने की कगार पर है, लेकिन यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि कर्ज पर निर्भरता बढ़ी है और वित्तीय अनुशासन एक बड़ी चुनौती बन चुका है। सरकार उपलब्धियों की सूची गिना रही है, वहीं विपक्ष और अर्थशास्त्री सवाल उठा रहे हैं कि इन उपलब्धियों का जमीनी और दीर्घकालिक आर्थिक असर क्या है।

कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश की वित्तीय स्थिति पर सवाल उठाना केवल राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप नहीं है, बल्कि सार्वजनिक हित का विषय है। कर्ज कितना लिया गया, क्यों लिया गया और उसका उपयोग कहां हुआ, इन तीनों सवालों के स्पष्ट और पारदर्शी जवाब जरूरी हैं। ‘मोदी की गारंटी’ का असली मूल्यांकन भी इसी कसौटी पर होगा कि वह आने वाले वर्षों में राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत करती है या कर्ज का बोझ और बढ़ाती है।