महाराष्ट्र की राजनीति:भाजपा की महायुती और विपक्ष की आघाड़ी में मनभेद

337

महाराष्ट्र की राजनीति:भाजपा की महायुती और विपक्ष की आघाड़ी में मनभेद

IMG 20240402 WA0098

 

– नवीन कुमार

लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा ने शिवसेना (एकनाथ शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार गुट) के साथ महायुती बनाई है और विपक्ष की महाविकास आघाड़ी में शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट), एनसीपी (शरद पवार गुट) के साथ कांग्रेस शामिल है। राज्य की 48 लोकसभा सीटों के बंटवारे का खेल खेला जा रहा है। जाहिर-सी बात है कि महायुती में भाजपा खुद को बड़ा मानती है तो उसे ज्यादा सीटें चाहिए और उधर आघाड़ी में शिवसेना (उद्धव गुट) बड़े भाई की भूमिका में है इसलिए वह भी ज्यादातर सीटें अपने हिस्से में रखना चाहती है। इस बार के चुनाव में भी भाजपा और शिवसेना (उद्धव गुट) के बीच ही कड़ा मुकाबला होने की संभावना जताई जा रही है। भाजपा और शिवसेना का पारंपरिक गठबंधन टूट चुका है और एक-दूसरे को हराने के लिए डटे हुए हैं। 2019 के चुनावी नतीजे को देखें तो 48 सीटों में से भाजपा ने 23 और शिवसेना (अविभाजित) ने 18 सीटें जीती थी। एनसीपी (अविभाजित) 4 और कांग्रेस एक सीट पर ही सिमट गई थी।

भाजपा के सामने एक ही लक्ष्य है नरेंद्र मोदी को तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाना है। इसके लिए भाजपा की ओर से अपील की जा रही है कि हर सीट पर मोदी को वोट देना है यानी कि हर सीट पर मोदी ही उम्मीदवार हैं। मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मोदी की गारंटी वाला जुमला को भी प्रचारित किया जा रहा है। जब मोदी ही गारंटी हैं तो महायुती में शामिल दूसरी पार्टियों को अपनी क्षमता का पता कैसे चल पाएगा। ऐसे में सीटों के बंटवारे में भाजपा का हावी होना स्वाभाविक है और भाजपा ने शिंदे और अजित को इसका एहसास भी करा दिया है। भाजपा के स्वभाव को जानते हुए शिंदे और अजित अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए मशक्कत करने लगे हैं। इस वजह से स्वाभाविक तौर पर महायुती में भी अपनी उपस्थिति मजबूत रखने के लिए शिंदे और अजित उन सीटों को पाने के लिए संघर्ष करने लगे जिस पर वर्तमान में उनके सांसद हैं।

शिंदे और अजित पर अपनी पार्टी के मुखिया होने की भी तो जिम्मेदारी है। इसलिए सीटों के बंटवारे में समय लगना भी स्वाभाविक है। लेकिन जिस तरह से शिंदे और अजित पर भाजपा का दबाव तंत्र हावी हुआ है उससे यह संदेश तो मिलता है कि महायुती में सब कुछ भाजपा की मर्जी से होगा। चर्चा है कि भाजपा ने तीन अंदरूनी सर्वे कराया है जिसके आधार पर शिंदे गुट और अजित गुट को बताया गया कि उनके पास जीत वाली सीटों की गारंटी नहीं है। अब इस तरह से राजनीतिक ताकत का एहसास कराया जाएगा तो किसी भी राजनीतिक पार्टी की स्थिति क्या हो सकती है इसकी कल्पना की जा सकती है। बावजूद इसके शिंदे और अजित ने उस सर्वे को ज्यादा तवज्जोह नहीं दी।

भाजपा को भी अपनी ताकत के बारे में पता है। 105 विधायक होने के बावजूद भाजपा सत्ता से दूर थी। उसने सबसे पहले शिंदे की मदद से शिवसेना को तोड़ा। शिंदे को मुख्यमंत्री का पद सौंपते हुए राज्य में सत्ता स्थापित की। 40 विधायकों और 13 सांसदों को लेकर शिंदे ने हिंदुत्व के नाम पर भाजपा से गठबंधन किया। इस गठबंधन को बहुमत की कमी नहीं थी। लेकिन भाजपा ने एनसीपी को तोड़कर अजित गुट को भी महायुती में शामिल कर लिया। अब लोकसभा चुनाव में सीटों को लेकर उठापटक होना लाजिमी है। भाजपा को विश्वास है कि मोदी की वजह से उसे हर सीट पर विजयी मिलेगी। इसलिए महायुती में शिंदे और अजित गुट को कम सीटें देने का भाजपा ने प्रयोग किया। शिंदे ने अपने जीते हुए सांसदों की सीटों पर दावा किया तो अजित ने 7 सीटें मांग ली। इससे भाजपा का 35 सीटें अपने हिस्से में रखने का सपना टूटने लगा। इसके बाद महायुती में उत्तर भारतीय विरोधी राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) को भी शामिल करने का सियासी खेल खेला गया। इसके जरिए शिंदे और अजित दोनों गुटों पर दबाब पड़ा।

मनसे के हिस्से में भी दो-तीन सीटें देने पर चर्चा हुई। ये सीटें शिंदे और अजित गुट से देने की बात हुई। मनसे के लिए अजित गुट से ओबीसी नेता छगन भुजबल को कमजोर करने के लिए उनकी सीट पर भी दावा किया गया। जबकि भाजपा अपनी सारी सीटें सुरक्षित रखना चाहती थी। इसका शिंदे गुट में बड़ा विरोध हुआ। इस विरोध को दबाने के लिए राजनीतिक हलकों में यह चर्चा रही कि शिंदे गुट की शिवसेना में मनसे को मर्ज कराया जाएगा और फिर शिवसेना का प्रमुख राज ठाकरे को बनाया जाएगा। ऐसी चर्चा से शिंदे गुट में बौखलाहट तो जायज है। यह सबको पता है कि आज राज ठाकरे से ज्यादा बड़ा है शिंदे का राजनैतिक हैसियत। राज के साथ ठाकरे शब्द जुड़ा हुआ है जिससे उनका महत्व बढ़ जाता है। भाजपा की यह सोच हो सकती है कि अगर उद्धव ठाकरे को परास्त करना है और उनके मराठी वोट को बांटना है तो महायुती में ठाकरे परिवार के राज ठाकरे को शिंदे से ज्यादा महत्व देना पड़ेगा।

लेकिन बतौर मुख्यमंत्री शिंदे ने मोदी और उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की उन परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जिसे उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली आघाड़ी सरकार ने रोक दिया था। मराठा आरक्षण आंदोलन से निपटते हुए शिंदे ने 10 फीसदी आरक्षण देने का अपना वादा भी पूरा किया। इससे उनका जनाधार बढ़ा है और इसका फायदा उन्हें चुनाव में मिल सकता है। उधर बारामती सीट पर अजित को अलग तरह से संघर्ष करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। फडणवीस और शिंदे के करीबी माने जाने वाले पूर्व विधायक विजय शिवतारे ने तो पवार परिवार के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर दिया है। वह पवार परिवार को हराने के लिए बारामती से चुनाव लड़ना चाहते हैं। इससे अजित को अपनी पत्नी सुनेत्रा पवार को विजय दिलाना कठिन हो गया है। इस सीट से शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले के लिए जीत की राह आसान हो रही है। शिवतारे के फैसले से अजित गुट ने शिंदे सरकार से बाहर होने की धमकी तक दे दी है। महायुती में जिस तरह से शिंदे को दबाने के प्रयास हुए हैं उससे आने वाले चुनावी नतीजे पर शक किया जाने लगा है।

महायुती में ही अजीबोगरीब हलचल नहीं है। विपक्ष की आघाड़ी में भी आपसी तालमेल बराबर नहीं दिख रहा है। यूं तो विपक्ष के इंडिया गठबंधन के राष्ट्रीय स्तर पर मजबूती को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। लेकिन महाराष्ट्र ही एक ऐसा राज्य है जहां विपक्ष की आघाड़ी से भाजपा सहमी हुई है। मनभेद के बावजूद आघाड़ी से यह उम्मीद बनी हुई है कि यह भाजपा के सपने को तोड़ने में कामयाब हो सकती है। इसकी वजह यह मानी जा रही है कि शिवसेना (उद्धव गुट) और एनसीपी (शरद गुट) के पारंपरिक वोटर पूरी सहानुभूति के साथ जुड़े हुए हैं। वैसे, शिवसेना के बार-बार टूटने का अपना इतिहास है। लेकिन शिवसेना कभी खत्म नहीं हुई है। अब भी यह माना जा रहा है कि टूटने बिखरने के बावजूद शिवसेना की विरासत उद्धव के पास है और वह इस लोकसभा चुनाव में उसी विरासत का परचम लहरा सकते हैं। अपने इसी आत्मविश्वास के साथ उद्धव ने आघाड़ी में सबसे ज्यादा सीट पाने का हक जताया है।

83 साल के शरद भी खुद को अपने भतीजे अजित से ज्यादा युवा मानते हैं और उन्हें चुनौती देते हुए अपनी एनसीपी को फिर से खड़ा करने में जुटे हुए हैं। शरद राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं उन्हें राजनीति की हर चाल पता है। इस आघाड़ी में कांग्रेस भी है और किसी दूसरे राज्यों के मुकाबले महाराष्ट्र में उसे अपना जनाधार मजबूत दिख रहा है। इसलिए उसने एनसीपी से ज्यादा सीटों पर दावा किया है। लेकिन सीटों को लेकर आघाड़ी में भी तनातनी है। महायुती और आघाड़ी के राजनीतिक दलों के बीच भले ही सीटों की अदला बदली के साथ बंटवारा हो जाए लेकिन उनके मनभेद आसानी से मिटने वाले नहीं हैं। इसलिए यह आशंका बनी हुई है कि ये आपस में ही एक-दूसरे की सीट को धोखे में रख सकते हैं और इसका नतीजा चुनाव के बाद देखने को तो मिलेंगे ही।