यादों में ठहरी घटनाएं : पलटकर देखा तो बहुत कुछ छूटकर सिर्फ यादें बन गया

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यादों में ठहरी घटनाएं :कई Popular सितारे अब हमारे बीच नहीं हैं

सोचेंगे तुम्हें प्यार करें कि नहीं, ये दिल बेक़रार करें कि नहीं’ फिल्म ‘दीवाना’ (1992) का ये बहुत ही अच्छा और मधुर फ़िल्मी गाना है। पर, इस गाने के दोनों किरदार ऋषि कपूर और दिव्या भारती अब हमारे बीच नहीं हैं। ये गाना गुनगुनाते कब समय गुज़र गया और कब उसके हीरो और हीरोइन नेपथ्य में चले गए ये सोच के भी हैरत होती है।

दिव्या भारती 1988 से 1993 के पांच सालों में हिंदी और दक्षिण के फिल्म जगत की अत्यंत Popular नायिका थी। परंतु, विवादास्पद परिस्थितियों में 1993 में उसकी मृत्यु हो गई। ऐसे कई Popular सितारे अब हमारे बीच नहीं हैं, पर जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि ये लेख किसी की शोकांतिका का लेख नहीं, वरन में सिर्फ़ वो याद दिलाना चाहता हूँ कि समय गुज़र रहा है और हमारे प्रतिमान टूट रहे हैं।

PT Usha

मेरी उम्र का कोई भी व्यक्ति 1984 के लॉस एंजेलिस ओलंपिक में हमारी स्टार प्रिंटर पीटी उषा के सेकंड के सौवें हिस्से से पहला कांस्य पदक न जीत पाने का दुख भुला नहीं सकेगा। पीटी उषा वो पहली खिलाड़ी थी जिसने हर भारतीय के मन में ये उम्मीद जगाई थी कि हम भी ओलम्पिक में पदक जीत सकते हैं। फिर बाद में लिएंडर पेस (1996) से लेकर राज्यवर्धन सिंह राठौड़ (2004) और अभिनव बिंद्रा (2008) तक सबने पदक जीतकर भारत का मान बढ़ाया, पर अब वो भी पुरानी बात लगने लगी है।

मेहंदी हसन का ज़िक्र मै इस लेख के दूसरे एपिसोड में कर चुका हूँ। पर, ग़ज़ल गायकी की बात हो और जग जीतने वाले Popular जगजीत सिंह उसमें न हो, ये कैसे संभव है! मेरी पूरी पीढ़ी और मेरे बाद की भी कई पीढ़ियाँ जगजीत सिंह की ग़ज़ल गायकी की मुरीद रही हैं।

ग़ज़ल को क्लासिकल संगीत सुनने वालों से मुक्त कराकर आम आदमी तक पहुँचाने का काम अगर किसी ने किया तो वो जगजीत सिंह ही थे। आज जगजीत सिंह के आगे भूतकाल में ‘थे’ लिखते हुए मुझे कितना दुख हो रहा है ये मैं ही जानता हूँ। ‘वो कागज़ की कश्ती .. वो बारिश का पानी’ जैसी ग़ज़लो ने पूरे देश में जगजीत को लोकप्रिय बनाया।

‘दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाए तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है!’ सुनते सुनते ‘क्या ख़बर थी इस तरह से वो जुदा हो जाएगा, ख़्वाब में भी उसका मिलना ख़्वाब सा हो जाएगा!’ जगजीत सिंह भी नेपथ्य में जा चुके हैं। पर, तुम हमेशा हमारे दिल में, हमारे ज़हन में रहोगे जगजीत। काल तुम्हें छीन सकता है, पर तुम्हारी आवाज़ कालजयी है। तुमने जग के अलावा काल को भी जीता है।

ग़ज़ल के अलावा अगर बात करूं तो फिल्मी गानों के अनेक गायक हमारी पीढ़ी ने देखे पर पुरुष गायकों में जो मुकाम किशोर कुमार का है, वो शायद ही किसी को नसीब हो। Popular देव आनंद, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन जैसे कलाकारों को रूपहले पर्दे पर सुपरस्टार बनाने वाली आवाज़ किशोर दा की ही थी।

‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ …’ शायद किशोर मेरे प्रिय गायक हैं इसलिए मैं पूर्वाग्रही हो सकता हूँ। पर, ऐसे न जाने कितने गाने हैं, जो किशोर ने गाए और अमर हो गए। हर मूड और हर वक़्त के गाने किशोर ने गाए और ऐसा कौन शख्स होगा, जो किशोर की आवाज को पसंद न करे! दुःख सिर्फ़ इस बात का है कि किशोर भी नेपथ्य में जा चुके हैं, परंतु दिल ये मानने को राज़ी नहीं होता।

लता मंगेशकर और किशोर कुमार की युगल जोड़ी ने सैंकड़ों गाने गाए और ख़ुशी की बात ये है कि स्वर साम्राज्ञी लता दीदी आज हमारे बीच हैं। प्रभु उन्हें शतायु करें।

न अब गली मोहल्लों में वो रामलीला होती है, जिसके प्रसंगों को देखकर हमने राम को जाना और राम के चरित्र को समझा और न वो कवि सम्मेलन होते हैं, जिनमें गोपाल दास नीरज और कुँवर बेचैन जैसे मंचीय कवि शाम से लेकर सुबह तक कविताएं और गीत पढ़ते थे और मंच लूट लेते थे। वो भी नेपथ्य में जा चुके हैं।

अभी परसों ही मैंने एक चुटकुला पढ़ा कि ‘कोई ढूंढ कर लाओ बच्चों का खेल मैदान किसी ने चुरा लिया है!’ जवाब था मोबाइल फोन।

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सच भी है। जब हम स्कूल से लौटते थे, तो सबसे पहले भागकर मैदान में पहुँच कर खेलने की होड़ और ज़िद लगी रहती थी।

सारे दोस्त खेलने में इतने व्यस्त रहते थे कि बाक़ी सारी चिंताएँ और पढ़ाई की टेंशन पीछे छूट जाती थी। पर आज वो खेल के मैदान, सारे देशी खेल जैसे पिट्ठू, ग़ुलाम-लकड़ी, छुपन-छुपाई, राजा-मंत्री-चोर-सिपाही सब नेपथ्य में जा चुके हैं। नई पीढ़ी मोबाइल पर वर्चुअल खेलों की गिरफ़्त में जा चुकी है।

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मै मोबाइल के खेलों को बुरा और पुराने खेलों को अच्छा नहीं कह रहा! क्योंकि, मैं जज नहीं हूँ, पर इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि मैदानों में खेल में जो दोस्ती हम दोस्तों में बनी वो मोबाइल पर खेले जा रहे वर्चुअल खेलों में कभी संभव नहीं थीं। मोबाइल की दोस्ती भी उतनी ही वर्चुअल है, जितने इसके खेल हैं।

आज भी स्कूल के सारे दोस्त हाथ की उंगलियों की तरह है, दिल की धड़कन की तरह है पर इस वर्चुअल वर्ल्ड में न वो दोस्ती बची न वो दोस्त बचे। मै नई पीढ़ी को इसमें दुर्भाग्यशाली मानता हूँ और वर्चुअल वर्ल्ड से निकलकर वास्तविक खेल मैदानों में जाने के लिए कहना चाहता हूँ।

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हमारी पीढ़ी के वो नेता जिन्हें देखते देखते हम बड़े हुए चाहे वो अटल बिहारी बाजपेई जी हों या बालासाहेब ठाकरे। राजीव गांधी (जो बहुत जवानी में ही काल कवलित हो गए) हो या जयललिता। आज सब इतिहास बन चुके हैं पर वक़्त गुज़रता जा रहा है।

शायद इसलिए मशहूर शायर गुलज़ार ने लिखा है ..
वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर, इसकी आदत भी आदमी सी है!’

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अभय बेडेकर
अभय बेडेकर

लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होकर वर्तमान में इंदौर में अपर कलेक्टर हैं। सामाजिक विषयों पर लिखना उन्हें रास आता है।