वो डेढ़ घंटा, ख़त्म होती Oxygen, मरीजों की उखड़ती सांसे और टूटे बोल्ट

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वो डेढ़ घंटा, ख़त्म होती Oxygen, मरीजों की उखड़ती सांसे और टूटे बोल्ट

जनता का अपने शहर से आत्मीय रिश्ता होता है! प्रशासन में जो अफसर तैनात होते हैं, उनका शहर और जनता के बीच भी जुड़ाव होता है। समझा जाता है, कि अफसर सिर्फ अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करने आते हैं। उनकी नियुक्ति जब तक जिस शहर में होती है, वे शहर की हर कड़ी से जुड़े होते हैं, पर जब उनका कहीं तबादला होता है, वे सारी यादें वहीं छोड़कर अगले पड़ाव के लिए रवाना हो जाते हैं।

ये स्वाभाविक है, लेकिन सच नहीं! क्योंकि, उनका पूरा जीवन अलग-अलग शहरों में ऐसी ही जिम्मेदारियों को निभाते हुए ही बीतता है! यदि वे हर शहर से रिश्ता बनाएंगे, तो आगे आने वाले पड़ाव से शायद इंसाफ नहीं कर सकेंगे! लेकिन, अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए कई बार ऐसा काम करना पड़ता हैं, जिसका अहसास बाद में होता है कि वास्तव में यह कितना बड़ा काम था। कोरोना काल में ऐसी ही कुछ घटनाएं मेरे साथ भी हुई, उनमें से एक घटना का यहाँ जिक्र।

वो डेढ़ घंटा, ख़त्म होती Oxygen, मरीजों की उखड़ती सांसे और टूटे बोल्ट

करीब 40 लाख से ज्यादा आबादी वाले इंदौर शहर को देश में तेजी से बढ़ते, फैलते और आधुनिक होते शहरों में गिना जाता है। लेकिन, कोरोना संक्रमण के दौर ने इस शहर की जीवनशैली को कुचलकर रख दिया था। जब पूरा शहर महीनों तक घरों में कैद था और शहर में प्रशासन हर वक़्त व्यवस्थाओं में जुटा था।

कई महीनों तक हम शायद कभी पूरी रात सो नहीं सके! कुछ घंटों की ही नींद पूरी हो पाती थी। मोबाइल फोन भी बंद नहीं रखते कि न जाने कब, कहाँ और किसे हमारी जरुरत पड़ जाए। उस समय एक अजीब तरह की जिम्मेदारी का अहसास था। कोरोना काल में प्रशासन ने संक्रमित लोगों की जान बचाने के लिए कई काम किए! पर, एक ऐसी घटना भी घटी, जिसकी जानकारी कम  को थी, पर इस एक घटना ने कितने लोगों की जान बचाई, ये मैं नहीं जानता!

इंदौर शहर में छोटे-बड़े और निजी-सरकारी मिलाकर करीब डेढ़ सौ अस्पताल हैं। इस साल (2021) जब अप्रैल-मई में कोरोना संक्रमण की दर चरम पर थी, अस्पताल के हर बिस्तर पर मरीज था। अधिकांश मरीजों को ऑक्सीजन (Oxygen) की समस्या थी! वे सहजता से सांस नहीं ले पा रहे थे, इसलिए उन्हें लगातार ऑक्सीजन दी जा रही थी। कोरोना की दूसरी लहर के प्रारम्भ में अप्रैल माह में शहर को सामान्यतः रोज़ 100 टन ऑक्सीजन की जरुरत थी।

जबकि, आम दिनों में शहर की रोजाना की जरूरत 60 टन से ज्यादा नहीं होती। इंदौर में ऑक्सीजन सप्लाय करने वाली चार यूनिट हैं, जिनसे प्रशासन ऑक्सीजन (Oxygen) लेकर हॉस्पिटल को सप्लाई कर रहा था। किसी तरह काम चल रहा था। लेकिन, मई महीने में जब ऑक्सीजन की मांग 130 और 135 टन हो गई, तो हमें कोलकाता और जामनगर से हवाई जहाज के जरिए ऑक्सीजन मंगवाना पड़ी। ये पूरी व्यवस्था आसान नहीं थी। लेकिन, लोगों की जान बचाने की कोशिश के लिए यह सब करना प्रशासन का फर्ज था। लेकिन, ईश्वर जब किसी की परीक्षा लेता है, तो वह उसे हर तरह से परखता है। कुछ ऐसी ही स्थिति मेरी भी थी।

वो डेढ़ घंटा, ख़त्म होती Oxygen, मरीजों की उखड़ती सांसे और टूटे बोल्ट

बाहर से ऑक्सीजन 30 टन के टैंकर में इंदौर आती थी, फिर उसे एक बहुत बड़े बिग वर्टिकल सिलेंडर (केप्सूल) जैसे टैंकर में भरा जाता था। इसके बाद उसे छोटे सिलेंडर में भरकर हॉस्पिटलों में भेजा जाता था। यही निर्धारित प्रक्रिया भी है। लेकिन, अभी हमारी असली परीक्षा होना बाकी था।

एक दिन जब ऑक्सीजन टैंकर से बड़े केप्सूल में ऑक्सीजन भरी जा रही थी, तभी पता चला कि टैंकर और केप्सूल को जोड़ने वाले कनेक्टर के बोल्ट टूट गए। मुझे लगा कि ये सामान्य बात है! नए बोल्ट लग जाएंगे और फिर काम पूरा जाएगा! लेकिन, मुझे बताया गया कि बोल्ट आएंगे कहाँ से! लॉकडाउन के कारण शहर की सारी दुकानें तो बंद थीं। ये बोल्ट कुछ ख़ास तरह के थे, जो सिर्फ ऑटोमोबाइल की दुकानों पर ही मिलना संभव था।

मैंने पूरी टीम को लगा दिया कि जिस भी ऑटोमोबाइल दुकानदार को जानते हो, उससे बोलो और दुकान खुलवाकर बोल्ट लाओ। लेकिन, ये कोशिश कामयाब नहीं हुई। क्योंकि, संपर्क वाले किसी दुकानदार ने फोन नहीं उठाया, किसी का फोन बंद मिला। कुछ दुकानों के बोर्ड पर लिखे नंबरों पर तलाश की गई, पर बात नहीं बनी।

आज भी उस समय को याद करता हूँ, तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए। ये शाम 4 बजे की बात है। पर, जैसे-जैसे वक़्त बीत रहा था, अस्पतालों से ऑक्सीजन ख़त्म होने की स्थिति के फोन आने लगे। सभी ने इमरजेंसी स्टॉक उपयोग करना शुरू कर दिया था। लेकिन, उसकी भी एक सीमा थी। अंत में तय किया गया कि कुछ बड़ी ऑटोमोबाइल दुकानों के ताले तोड़कर जरुरी बोल्ट खोजे जाएं।

ये गलत तरीका था, पर कई लोगों की जान बचाने के लिए कुछ भी किया जाना गलत नहीं लगा। कलेक्टर मनीष सिंह को हालात बताए गए। उनका सुझाव था कि जिन हॉस्पिटल में ऑक्सीजन ख़त्म होने वाली है, वहाँ के मरीजों को बड़े अस्पतालों में शिफ्ट किया जाए! लेकिन, उन्होंने मुझसे यह जरूर कहा कि ‘जो ठीक लगे, कीजिए!’ मैंने कुछ अफसरों को बड़ी ऑटोमोबाइल दुकानों के ताले तुड़वाकर बोल्ट खोजने को कहा! लेकिन, अफ़सोस कि चार दुकानों के ताले तुड़वाने के बाद भी वो बोल्ट नहीं मिला, जिसकी जरुरत थी! एक जगह बोल्ट तो मिला, पर वो पूरी तरह फिट नहीं हुआ। क्योंकि, उसका नंबर अलग था।

मेरी आँख के सामने वो दृश्य घूमने लगे, जो सोचकर आज भी कंपकंपी आ जाती है। अस्पतालों में ऑक्सीजन ख़त्म होने के बाद कई मरीजों की मौत होने की कल्पना भी असहनीय थी। कलेक्टर साहब से बात की, उन्होंने संभावित हालात से निपटने के लिए पुलिस अफसरों के साथ बातचीत की। क्योंकि, यदि स्थिति बिगड़ती है और अस्पताल में भर्ती मरीजों की मौत होती है, तो शहर के हालात भी बिगड़ना तय था। लेकिन, ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था।

ऑक्सीजन सप्लाय करने वाले ने सुझाव दिया कि क्यों न जो कामचलाऊ बोल्ट मिले हैं, उन्हें लगाया जाए और फिर कनेक्टर के जोड़ को ट्यूब काटकर बांध दिया जाए। तीन-चार लोग पाइप को जोर से पकड़कर खड़े रहें, ताकि वो जोड़ निकल न सके। ये सिर्फ एक आइडिया था, पर इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। इसमें एक सबसे बड़ी रिस्क ये थी, कि यदि जोड़ का कनेक्शन निकल गया, तो एक झटके में 30 टन ऑक्सीजन हवा में उड़ जाएगी। मैंने तय किया कि अब यही उपाय बचा है, तो यही किया जाए, जो होगा देखा जाएगा!

उस समय लोगों की जान बचाने से ज्यादा जरूरी कुछ नहीं लगा! कैप्सूल और टैंकर को कनेक्ट किया गया। जितने बोल्ट कसे जा सके, उन्हें कसा गया, पूरे जोड़ को ट्यूब से बांधा गया, तीन-चार लोगों को इस जोड़ को पकड़कर रखने और जहाँ तक संभव हो सके न छोड़ने की जिम्मेदारी दी गई।

मैंने मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करना शुरू कर दिया। सारे इंतजाम करके जब टैंकर से ऑक्सीजन छोड़ी गई, तो वो आसानी से बिना लीकेज के कैप्सूल में शिफ्ट होने लगी। जब तक ऑक्सीजन शिफ्ट होती रही, वहाँ मौजूद हर व्यक्ति के चेहरे पर तनाव साफ़ झलकता रहा! लेकिन, ये वास्तव में एक चमत्कार ही था कि यह प्रयोग सफल रहा। टैंकर का वाल्व खोलने पर ऑक्सीजन जिस स्पीड से कैप्सूल में जाती है, उसकी कल्पना नहीं की जा सकती!

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मुझे आत्मीय संतोष हुआ कि आज मेरी कोशिश से कई मरीजों की जान बच गई! शाम 4 से साढ़े 5 बजे तक के डेढ़ घंटे का समय मैंने और मेरे साथ वालों ने किस संत्रास से गुजारा ये मैं ही जानता हूँ। उस दिन ये अहसास भी हुआ कि हमारा जीवन तभी सफल हो सकता है, जब हम किसी के काम आए। यदि हम अपनी कोशिशों से किसी का जीवन बचा सकें, तो इससे बड़ा पुण्य का काम और कोई हो नहीं सकता। मेरे लिए ये घटना कभी न भूलने वाली याद बन गई।

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अभय बेडेकर
अभय बेडेकर

लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होकर वर्तमान में इंदौर में अपर कलेक्टर हैं। सामाजिक विषयों पर लिखना उन्हें रास आता है।