प्रसंगवश जन्मोत्सव विशेष :उत्सवों का कवि…… अशोक ‘चक्रधर’

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प्रसंगवश जन्मोत्सव विशेष :उत्सवों का कवि…… अशोक ‘चक्रधर’

शिक्षाविद डॉ रवींद्र कुमार सोहनी 

प्रस्तुति -डॉ घनश्याम बटवाल मंदसौर

 

वैसे तो साहित्यिक सांस्कृतिक और भाषाओं के क्षेत्र में देश – विदेश में जाना पहचाना नाम है पद्मश्री डॉ अशोक चक्रधर का , जन्मदिन भी यह पहला नहीं है पर इस बार प्रसंग विशेष बन पड़ा है क्योंकि अभी 30 जनवरी को ही उनसे मिलना उन्हें सुनना और संवाद का अवसर मंदसौर जिले के ऐतिहासिक नटनागर शोध संस्थान में हुआ ।

इस प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व श्री चक्रधर के बारे में लिखकर सबसे रूबरू कराने का अवसर मिल गया ।

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वाचिक परम्परा के प्रमुख व सशक्त हस्ताक्षर डॉ. अशोक चक्रधर का जन्म 8 फरवरी, 1951को खुर्जा उत्तर प्रदेश के अहिरपाड़ा मोहल्ले में डॉ. राधेश्याम शर्मा ‘प्रगल्भ’ के यहां हुआ. माता कुसुम प्रगल्भ जहां गृहिणी थीं वहीं पिता डॉ. राधेश्याम शर्मा प्रगल्भ अपने समय के लब्ध प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार, सम्पादक, और कवि थे. बाल्यकाल से ही सांस्कृतिक एवम् साहित्यिक कार्यों में रूचि होने तथा बचपन से ही कवि पिता का साहित्यिक मार्गदर्शन मिलने के कारण आप स्वाभाविक रूप से कविता कर्म की ओर उन्मुख हुए. लगभग 10 वर्ष की आयु में आपने वर्ष 1960 में अपनी स्वरचित कविता तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्ण मैनन जी को सस्वर सुनाई. कविता और मंच के प्रति अत्यधिक आकर्षण के उपरान्त भी अशोकजी अपने अध्ययन के प्रति भी अत्यन्त सजग रहे, इसी का परिणाम है की आपने वर्ष 1970में अपनी स्नातक उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की. वर्ष 1972में आपने आगरा विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य में एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रवीण्य सूची में द्वितीय स्थान प्राप्त किया. कालान्तर में दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. लिट्. की उपाधि को प्राप्त किया. इसी समय आप दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती महाविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए. वर्ष 1975 के आस पास आप जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के हिन्दी एवम् पत्रकारिता विभाग में पहले प्राध्यापक और बाद में पदोन्नत हो इस विभाग के आचार्य तथा अध्यक्ष नियुक्त हुए तथा यहीं से सेवानिवृत्त भी हुए. अशोक चक्रधर उत्सवों के कवि हैं या मैं यह कहूं कि की वे जहां पहुंच जाते हैं वहीं ‘उत्सव’ हो जाता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

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हास्य और व्यंग्य से परिपूरित उनकी कविताएं गुदगुदाने के अलावा सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों पर इतनी गहरी टिप्पणी करती हैं की व्यक्ति सोचने पर मजबूर हो जाता है. हिन्दी, उर्दू, और लोकभाषा के शब्दों का प्रयोग करते हुए वे अपनी कविताओं में भाषा का प्रवाह सहज और सरल बनाएं रखने में सिद्धहस्त हैं. समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिवेश पर केन्द्रित उनकी तमाम रचनाओं में प्रश्नोत्तर, संवाद और कहानीपन देखने को मिल जाता है. अशोक चक्रधर जी की कविताएं केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं हैं समाज को जागरूक करने और व्यंग्य के माध्यम से ध्यान आकर्षित करने का माद्दा भी रखती हैं. समाज की विद्रूपताओं, विसंगतियों पर अशोक चक्रधर एक कुशल शल्य चिकित्सक की भांति नश्तर लगाते हैं और सारा मवाद बाहर निकल जाता है लेकिन खून का एक भी खतरा नहीं दिखता. ‘चक्रधर’ की कविताओं में कविता के पहले तीनों अक्षरों ‘क’ से ‘कल्पना’, ‘वि’ से ‘विचार’ और ‘ता’ से ‘तालमेल’ के दिग्दर्शन हमें स्वाभाविक रूप से होते है जो उन्हें हास्य व्यंग्य के अन्य कवियों से अलहदा खड़ा करती हैं. हिन्दी भाषा और उसकी प्रकृति को अपनी कविता में संजोता और नए ढंग से रचता यह कवि आस पास के प्रतीकों, प्रतिमानों, प्रतिबिम्बों को जिस तरकीब से उठता है और उन्हें जिस खूबसूरती से परोसता है वह अपने आप में अदभुत है. लेखक, निर्देशक, साहित्यिक आलोचक, टेलीविज़न के धारावाहिकों में संवाद लेखन, फिल्मों की पटकथाओं और नाट्य मंचनों जैसी कई विधाओं में सतत् रूप से आप सक्रिय हैं.

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वर्ष 1975 में मैकमिलन प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक ‘मुक्तिबोध की काव्य प्रकिया’ तथा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में इतिहास और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्वनामधन्य प्राध्यापक इ. एच. कार की पुस्तक ‘व्हाट इज़ हिस्ट्री’ का हिन्दी अनुवाद ‘इतिहास क्या है ?‘ को निः संदेह शास्त्रीय पुस्तकों की श्रेणी में रखा जा सकता है. साहित्य अकादमी पुरस्कार, यश भारती सम्मान, अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मान, ठिठोली पुरस्कार, ‘ब्रज विभूति’ सम्मान के साथ ही वर्ष 2014 में भारत सरकार ने अशोक जी को शिक्षा साहित्य में उनके अवदान को देखते हुए उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया है. साहित्य और इतिहास के संबंधों को लेकर आप काफ़ी मुखर रहे हैं, आपकी मान्यता है कि साहित्य और इतिहास समाज की आत्मा और उसकी यात्रा को समझने का एक सशक्त माध्यम है.

 

उन्हीं की दो अलग अलग मिजाज़ की कविताओं की कुछ पंक्तियों से इस आलेख को विराम देना जहां श्रेयस्कर होगा वहीं सुधि पाठकों के लिए सुखद भी तो आइए चलिए अशोक चक्रधर क्या कहते… ‘तू अगर दरिंदा है तो यह मसान तेरा है, अगर परिंदा है तो आसमान तेरा है, अरे तबाहियां तो किसी और की तलाश में थीं, कहां पता था उन्हें यह मकान तेरा है’

 

एक दूसरे मूड की कविता… ‘तुम भी जल थे, हम भी जल थे, इतने घुले मिले थे, की एक दूसरे से जलते न थे, न तुम खल थे न हम खल थे, इतने खुले खिले थे कि एक दूसरे को खलते न थे, अचानक तुम हमसे जलने लगे, तो हम तुम्हें खलने लगे, तुम जल से भांप हो गए, तू और तुम से आप हो गए’

अभी 30 जनवरी को ही मंदसौर जिले में हुए त्रिदिवसीय सीतामऊ साहित्य महोत्सव में सारस्वत अतिथि रहे श्री अशोक चक्रधर ने बेबाक अंदाज़ में साहित्य इतिहास और संस्कृति पर विशिष्ट व्याख्यान दिया और सुधीजनों की ज्ञान पिपासा को तृप्त किया ।

 

जीवन के 75 बसंत देख चुके

पद्मश्री अशोक चक्रधर को जन्मोत्सव पर अनन्त शुभकामनाएं शतायु की मंगल कामना के साथ । इति शुभम्.