त्वरित टिप्पणी: इलेक्टोरल बाॅन्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से चुनाव की निष्पक्षता बढ़ेगी!
– विनय झैलावत
सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बाॅन्ड मामले में अपना बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाते हुए कहा कि गुमनाम चुनावी बाॅन्ड संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति बीआर गवई, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की संविधान पीठ ने नवंबर में फैसला सुरक्षित रखने से पहले तीन दिनों की अवधि में विवादास्पद चुनावी बाॅन्ड योजना को चुनौती देने वाले मामलों की सुनवाई की थी। यह फैसला सर्वसम्मति से दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने प्रमुख निर्णय दिया। न्यायमूर्ति खन्ना ने थोड़े अलग तर्क के साथ एक सहमत राय लिखी। दोनों निर्णयों ने दो प्रमुख सवालों का उत्तर दिया गया। पहला, क्या चुनावी बाॅन्ड योजना के अनुसार राजनीतिक दलों को स्वैच्छिक योगदान पर जानकारी का खुलासा न करना और क्या लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 29 सी, कंपनी अधिनियम की धारा 183 (3), आयकर अधिनियम की धारा 13ए (बी) में संशोधन संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत सूचना के अधिकार का उल्लंघन है? दूसरा, यह कि क्या कंपनी अधिनियम की धारा 182 (1) में संशोधन द्वारा परिकल्पित राजनीतिक दलों को असीमित काॅर्पोरेट वित्त पोषण स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।
मुख्य न्यायाधीश ने खुले शासन के महत्व पर जोर देते हुए फैसले के शुरूआत में ही इस पर जोर दिया कि मतदाता को राजनीतिक दलों के वित्त पोषण के बारे में जानकारी होना आवश्यक है। अपने और न्यायमूर्ति गवई, पादीवाला और मिश्रा की ओर से लिखते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि चुनावी बाॅन्ड योजना संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन करती है। एक प्राथमिक स्तर पर, राजनीति योगदान, योगदानकर्ताओं को विधायकों तक पहुंच को बढ़ाता है। यह पहुंच नीति निर्माण पर भी प्रभाव डालती है। इस बात की भी वैध संभावना है कि किसी राजनीतिक दल को वित्तीय योगदान से धन और राजनीति के बीच घनिष्ठ संबंधों के कारण परस्पर लाभ की व्यवस्था हो सकती है। चुनावी बाॅन्ड योजना और इस हद तक विवादित प्रावधान कि योगदानकर्ता चुनावी बाॅन्ड के माध्यम से योगदान को गुमनाम करके मतदाता के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करते हैं।
काले धन पर अंकुश लगाने के मकसद को प्राप्त करने के लिए चुनावी बाॅन्ड के अलावा अन्य साधन भी हैं। यहां तक कि इसे एक वैध मकसद भी माना जाता है। अदालत ने कहा कि सूचना के अधिकार का उल्लंघन उचित नहीं है। सूचना संबंधी निजता के अधिकार को स्वीकार करते हुए मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने खुलासा किया कि सूचना के परस्पर विरोधी अधिकारों और सूचना संबंधी निजता को संतुलित करने के लिए एक दोहरे आनुपातिक मानक को लागू किया गया था।
भारत सरकार के तर्क को खारिज करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि योजना का खंड 7 (4) (सी) दो अधिकारों को संतुलित करता है। यह प्रावधान संतुलन को सूचनात्मक गोपनीयता के अधिकार के पक्ष में झुकाता है। क्योंकि, आनुपातिकता मानक की उपयुक्तता केवल आंशिक रूप से पूरी होती है। मुख्य न्यायाधीश ने तदनुसार अभिनिर्धारित किया कि केंद्र सरकार यह स्थापित करने में विफल रही है कि चुनावी योजना के खंड 7 (4) (1) में अपनाया गया यह उपाय सबसे कम प्रतिबंधात्मक उपाय है। तदनुसार, आयकर अधिनियम, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, कंपनी अधिनियम में संशोधनों को असंवैधानिक माना गया है।
न्यायालय ने अपने आदेश में यह आदेश दिया कि जारी कर्ता बैंक इस फैसले के बाद चुनावी बाॅन्ड जारी करना बंद कर देगा। साथ ही यह भी आदेश दिया कि भारतीय स्टेट बैंक न्यायालय के 12 अप्रैल, 2019 के अंतरिम आदेश के बाद से अब तक खरीदे गए चुनावी बाॅन्ड का विवरण भारत के चुनाव आयोग को प्रस्तुत करेगा। विवरण में प्रत्येक चुनावी बाॅन्ड की खरीद की तारीख, बाॅन्ड के खरीदार का नाम और खरीदे गए चुनावी बाॅन्ड का मूल्य शामिल होगा।
भारतीय स्टेट बैंक 12 अप्रैल, 2019 के अंतरिम आदेश के बाद से आज तक चुनावी बाॅन्ड के माध्यम से योगदान प्राप्त करने वाले राजनीतिक दलों का विवरण निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत करेगा। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को राजनीतिक दलों द्वारा भुनाए प्रत्येक चुनावी बाॅन्ड के विवरण का खुलासा करना चाहिए। इसमें भुनाने की तारीख और चुनावी बाॅन्ड का मूल्य शामिल होगा। यह भी आदेश दिया कि स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया आज से तीन सप्ताह के भीतर यानी 6 मार्च तक ईसीआई को उपरोक्त जानकारी प्रस्तुत करे। यह भी कहा गया कि चुनाव आयोग स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से प्राप्त जानकारी को 13 मार्च, 2024 तक अपनी वेबसाइट पर जारी करेगा। यह भी आदेशित किया गया है कि चुनावी बाॅन्ड जो 15 दिनों की वैधता अवधि के भीतर हैं, लेकिन जिन्हें राजनीतिक दलों द्वारा अभी तक भुनाया नहीं गया है, उन्हें राजनीतिक दल द्वारा खरीदार को वापस कर दिया जाएगा। बाद में जारीकर्ता बैंक के खाते में राशि वापस कर देगा।
इस योजना को सरकार ने 2 जनवरी 2018 को अधिसूचित किया था। इसके मुताबिक चुनावी बाॅन्ड को भारत का कोई भी नागरिक या देश में स्थापित इकाई खरीद सकती थी। कोई भी व्यक्ति अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ संयुक्त रूप से चुनावी बाॅन्ड खरीद सकता था। जन प्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा 29ए के तहत पंजीकृत राजनीतिक दल चुनावी बाॅन्ड स्वीकार करने के पात्र थे। शर्त बस यही थी कि उन्हें लोकसभा या विधानसभा के पिछले चुनाव में कम से कम एक प्रतिशत वोट मिले हों। चुनावी बाॅन्ड को किसी पात्र राजनीतिक दल द्वारा केवल अधिकृत बैंक के खाते के माध्यम से भुनाया जाता था। बाॅन्ड खरीदने के पखवाड़े भर के भीतर संबंधित पार्टी को उसे अपने रजिस्टर्ड बैंक खाते में जमा करने की अनिवार्यता होती थी। अगर पार्टी इसमें विफल रहती है तो बाॅन्ड निरर्थक और निष्प्रभावी यानी रद्द हो जाता था।
चुनावी फंडिंग व्यवस्था में सुधार के लिए सरकार ने साल 2018 इलेक्टोरल बाॅन्ड की शुरूआत की थी। 2 जनवरी 2018 को तत्कालीन मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बाॅन्ड स्कीम को अधिसूचित किया था। इलेक्टोरल बाॅन्ड फाइनेंस एक्ट 2017 के तहत लाए गए थे। यह बाॅन्ड साल में चार बार जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर में जारी किए जाते थे। इसके लिए ग्राहक बैंक की शाखा में जाकर या उसकी वेबसाइट पर ऑनलाइन जाकर इसे खरीद सकता था। इसमें कोई भी डोनर अपनी पहचान छुपाते हुए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से एक करोड़ रूपए तक मूल्य के इलेक्टोरल बाॅन्ड्स खरीद कर अपनी पसंद के राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकता था।
ये व्यवस्था दानकर्ताओं की पहचान नहीं खोलती और इसे टैक्स से भी छूट प्राप्त है। आम चुनाव में कम से कम एक फीसदी वोट हासिल करने वाले राजनीतिक दल को ही इस बाॅन्ड से चंदा हासिल हो सकता था। केंद्र सरकार ने इस दावे के साथ इस बाॅन्ड की शुरूआत की थी कि इससे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्षिता बढ़ेगी और साफ-सुथरा धन आएगा। वित्त मंत्री अरूण जेटली ने जनवरी 2018 में लिखा था कि इलेक्टोरल बाॅन्ड की योजना राजनीतिक फंडिंग की व्यवस्था में साफ-सुथरा धन लाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए लाई गई।
एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और कांग्रेस नेता जया ठाकुर सहित याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चुनावी बाॅन्ड से जुड़ी गुमनामी राजनीतिक वित्त पोषण में पारदर्शिता को कम करती है और मतदाताओं के सूचना के अधिकार का अतिक्रमण करती है। इनकी ओर से यह भी कहा गया था कि यह योजना मुखौटा कंपनियों के माध्यम से योगदान की सुविधा प्रदान करती है, जिससे चुनावी वित्त में जवाबदेही और अखंडता के बारे में चिंता बढ़ जाती है। योजना के बचाव में, केंद्र सरकार ने राजनीतिक वित्तपोषण में वैध धन के उपयोग को बढ़ावा देने, विनियमित बैंकिंग चैनलों के माध्यम से लेनदेन सुनिश्चित करने में अपनी भूमिका पर जोर दिया था।
सुनवाई के दौरान, पीठ ने योजना की चुनिंदा गुमनामी के पीछे के औचित्य पर सवाल उठाते हुए और राजनीतिक दलों के लिए रिश्वत को संस्थागत बनाने की इसकी क्षमता के बारे में आशंका व्यक्त करते हुए सरकार के समक्ष जांच संबंधी सवाल उठाए। विशेष रूप से देने वाले की जानकारी तक असमान पहुंच के बारे में चिंता जताई गई थी। सत्तारूढ़ दल के पास संभावित रूप से योगदानकर्ताओं की पहचान के बारे में अंतर्दृष्टि थी, जबकि विपक्षी दलों के पास इस तरह की पहुंच का अभाव था। पीठ ने काॅर्पोरेट दान पर सीमा को हटाने की भी जांच की, जो पहले शुद्ध लाभ के अधिकतम 7.5% तक सीमित थी।
किसी भी पार्टी की सरकार हो वह सदैव अपने पार्टी फंड तथा अपने आर्थिक लाभ-हानि के आधार पर निर्णय लेती है। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ था। लेकिन, इस फैसले में सबसे अधिक प्रभावित होने वाली राजनीतिक पार्टियों के संबंध में यह फैसला मौन है। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार ऐसे कदम उठाएगी जिससे चुनावी फंड की जानकारी आम जनता को उपलब्ध हो सके तथा निष्पक्ष एवं कम खर्चीले चुनावों की ओर कदम बढ़ाए जा सके।