Rahi Masoom Raza: देश में निकला होगा चांद…

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Rahi Masoom Raza: देश में निकला होगा चांद…

कौशल किशोर चतुर्वेदी

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद

अपनी रात की छत पर, कितना तनहा होगा चांद

जिन आँखों में काजल बनकर, तेरी काली रात

उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद

रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर

आँगन वाले नीम में जाकर, अटका होगा चांद

चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते

मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद

गीतकार डॉ. राही मासूम रज़ा की इस गजल को गायक जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने आवाज दी थी। और गजलप्रेमियों की जुबां पर यह गजल आ ही जाती है, जब वह थोड़ा सा भी डिफरेंट मूड में रहें। राही मासूम रज़ा को हम आज इसलिए याद कर रहे हैं, क्योंकि बेहद काबिल लेखक, साहित्यकार और गीतकार रज़ा मुंबई, महाराष्ट्र में रहते हुए मात्र 64 साल की उम्र में 15 मार्च 1992 को हम सबसे विदा हो गए थे। यह वही मासूम रज़ा थे, जिन्होंने बीआर चोपड़ा के टीवी धारावाहिक महाभारत की पटकथा और संवाद लिखे। यह टीवी धारावाहिक महाकाव्य महाभारत पर आधारित था। धारावाहिक भारत के सबसे लोकप्रिय टीवी धारावाहिकों में से एक बन गया, जिसमें लगभग 86% की चोटी की टेलीविजन रेटिंग थी।

राही मासूम रज़ा का जन्म 1 सितंबर 1927 को ग़ाज़ीपुर के गंगौली गाँव में हुआ था। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा ग़ाज़ीपुर में ही हुई। क़िस्सा है कि बचपन में एक बार बीमार पड़े तो स्कूल जाना छूट गया। पड़े-पड़े घर में मौजूद सारी किताबें पढ़ गए। क़िस्सों से उनका दिल बहलाने के लिए एक मुलाज़िम कल्लू काका भी रखे गए थे। उन्होंने बाद में सुनाया कि कल्लू काका न होते तो उन्होंने शायद कोई कहानी न लिखी होती। आगे की पढ़ाई अलीगढ़ से हुई जहाँ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू में ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ पर पीएचडी की। फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही उर्दू के प्राध्यापक बन गए। अलीगढ़ से उनका बेहद लगाव रहा। उन्होंने लिखा था कि उनकी तीन माएँ थीं, नफ़ीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा—गंगा जो गंगौली में बहती थी। अलीगढ़ में ही नय्यरा से मिले जो उनकी जीवनसाथी बनीं। अलीगढ़ में ही वह कम्युनिस्ट भी हो गए थे। इतने कम्युनिस्ट कि नगरपालिका चुनाव में भूमिहीन मज़दूर प्रत्याशी कॉमरेड पब्बर राम के पक्ष में न केवल अपने पिता के ख़िलाफ़ प्रचार किया, उन्हें हरवा भी दिया। उनका यह साम्यवादी नज़रिया आगे भी बना रहा। वह वास्तविक अर्थों में ‘सेकुलर’ दृष्टिकोण भी रखते थे। उसूलों के ऐसे पक्के इंसानों की वजह से ही इंसानियत जिंदा है, इसमें कोई शक नहीं है। आज के समय में यह नामुमकिन सा लगता है।

लेखन का आरंभ उन्होंने शायरी से किया था और शेरो-सुख़न में एक मुक़ाम भी पाने लगे थे। फिर शायरी छोड़ दी और गद्य लिखने लगे। एक साथ कई चीज़ें लिखा करते थे। शाहिद अख्तर, आफाक़ हैदर और आफ़ताब नासिरी उनके ही अलग-अलग नाम थे जो उन दिनों अलीगढ़ में रूमानी और जासूसी नॉवेल में चर्चा पा रहे थे। वह बाद में अलीगढ़ छोड़ बंबई चले गए। फ़िल्मों से उन्हें शुरू से ही आकर्षण रहा था। बंबई में संघर्ष लंबा चला। तब उनकी मदद धर्मवीर भारती और कमलेश्वर ने की। बाद में बीआर चोपड़ा और राज खोसला की दोस्ती काम आई जो उन्हें फ़िल्में देने लगे थे। बंबई उनके लिए साहित्यिक लेखन के दृष्टिकोण से भी उर्वर रही जहाँ उन्होंने ‘आधा गाँव’, ‘दिल एक सादा काग़ज़’, ‘ओस की बूँद’, ‘हिम्मत जौनपुरी’ जैसे उपन्यास लिखे थे। ये सभी कृतियाँ हिंदी में थीं। इससे पहले वह उर्दू में नज़्म और ग़ज़ल लिखते रहे थे। उन्होंने उर्दू में एक महाकाव्य भी लिखा था जो बाद में हिंदी में ‘क्रांति कथा’ शीर्षक से छपी। ‘टोपी शुक्ला’, ‘कटरा बी आर्ज़ू’, ‘मुहब्बत के सिवा’, ‘असंतोष के दिन’, ‘नीम का पेड़’ उनके अन्य उपन्यास हैं। ‘नया साल’, ‘मौजे-गुल: मौजे-सबा’, ‘रक्से-मय’, ‘अजनबी शहर के अजनबी रास्ते’, ‘ग़रीबे शहर’ उनके प्रमुख उर्दू काव्य-संग्रह हैं। उनकी उर्दू कविताओं के हिंदी अनुवाद को ‘मैं एक फेरीवाला’, ‘शीशे के मकां वाले’, ‘ग़रीबे शहर’ संकलनों में प्रकाशित किया गया है। उन्होंने 1965 में भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। पिछले कुछ वर्षों प्रसिद्धि में रहीं।

तो ‘देश में निकला होगा चाँद’ राही मासूम रज़ा की बेहद लोकप्रिय लोकप्रिय नज़्म है जिसे जगजीत सिंह – चित्रा सिंह ने पहली बार गाया था। मासूम रज़ा की ग़ज़लों में ‘हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद’ के अलावा ‘इस सफ़र में नींद ऐसी खो गईं’, ‘जिन से हम छूट गए अब वो जहाँ कैसे हैं’, ‘हम क्या जानें क़िस्सा क्या है हम ठहरे दीवाने लोग’, ‘लोग यक-रंगी-ए-वहशत से भी उकताए हैं’, ‘ऐ आवारा यादो फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहाँ’ और ‘दिलों की राह पर आख़िर ग़ुबार सा क्यूँ है…रास्ते अपनी नज़र बदला किए…जितने वहशी हैं चले जाते हैं सहरा की तरफ और यह कि ‘रंग हवा से छूट रहा है मौसम-ए-कैफ़-ओ-मस्ती हैं और मौज-ए-हवा की ज़ंजीरें पहनेंगे धूम मचाएँगे…’

लेखनी के अलावा उन्होंने कई फ़िल्मों और धारवाहिकों के लिए पटकथा और संवाद-लेखन किया था। ‘मैं तुलसी तेरे आँगन की’ फ़िल्म की पटकथा के लिए उन्हें ‘फ़िल्म फ़ेयर’ मिला था। भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया। ऐसे मासूम रज़ा को याद कर दिल गर्व से भर जाता है…।