Silver Screen:सिनेमा में भी खूब बरसे हैं सिक्के और नोट!

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Silver Screen:सिनेमा में भी खूब बरसे हैं सिक्के और नोट!

ऐसा कोई काल नहीं जब रुपए पैसे की बात न होती हो। जहां पैसा होगा वहां बहस ही क्या झगडा तक संभव है। क्योंकि, पुराने समय से ही कहा गया है कि जर, जोरू और जमीन ही विवाद के मुख्य कारण होते हैं। हिन्दी फिल्मों के लिहाज से तो रुपए और पैसे का महत्व और भी बढ़ जाता है, इसलिए कि अमीरी-गरीबी, प्यार-तकरार और मारपीट, लूट और डकैती से लेकर सामाजिक सरोकार की जितनी भी फिल्में बनाई जाती हैं, उनकी जड़ में कहीं न कहीं रूपया और पैसा ही होता है। रुपए के अवमूल्यन से फिल्मों में भी इसका महत्व घटता बढ़ता रहा है। यदि आज का युवक कोई ऐसी पुरानी फिल्म देखे जिसमें नजीर हुसैन, राज मेहरा जैसा अमीर बाप किसी गरीब नायिका या नायक को यह कहते सुने कि मेरे बेटे या बेटी को छोड़ने का क्या लोगे! पांच हजार, दस हजार तो उसे आश्चर्य ही होगा! क्योंकि, तब पांच या दस हजार का भी बहुत मूल्य था। जॉनी मेरा नाम में देश-विदेश के स्मगलरों की गाड़ियों का जमघट इकट्ठा होता है जहां प्रेमनाथ जवाहरातों की नुमाइश कर उसे स्मगलरों को बेचने के बाद देव आनंद और प्राण से कहता है मोती दस करोड, जॉनी दस करोड़ तो आज लगता है इतनी कम राशि के लिए इतना बड़ा जमघट।

Silver Screen:सिनेमा में भी खूब बरसे हैं सिक्के और नोट!

यह तो कुछ हजार की बात हुई। हिन्दी फिल्मों में सबसे कम रुपए को लेकर पूरी की पूरी फिल्में बन जाती थी और दर्शक सांस रोककर देखा करता था। शम्मी कपूर की 1963 की फिल्म फिल्म ‘ब्लफ मास्टर’ में नायक नायिका के लिए सौ रुपए कमाने के लिए तरह-तरह की जुगाड़ करता था। आखिर में जब दही-हांडी के ऊपर रखा सौ का नोट अपने दांतों से पकड़ता है तो दर्शकों की बांछे खिल जाती थी। शम्मी कपूर की दूसरी फिल्म थी ‘उजाला’ जिसमें वह अपराधी रहते हुए सुधरने के लिए एक आश्रम में जाता है। आश्रम का संचालक उसे सौ रूपए देकर साथियों को कहता है कि इसकी ईमानदारी की परीक्षा के लिए इसे पैसे दे रहा हूं। अब देखना है कि यह पैसा वापस लेकर आता है या पैसा लेकर भाग जाता है। फिल्म का खलनायक गुंडा राजकुमार उसके हाथ से सौ का नोट लेकर भाग जाता है। शम्मी कपूर उस नोट की खातिर अपनी जान तक लड़ा देता है। आखिर में जब राजकुमार उसे चाकू मारकर उसके हाथ में सौ का नोट देकर भाग जाता है तो दर्शक तालियां पिटने लगते है।

संजय खान और बबीता की एक फिल्म आई थी जिसमें ओमप्रकाश की दस लाख की लॉटरी खुल जाती है। तब वह दस लाख में बंगला, गाडी सहित ढेर सारी चीजें खरीदने के बावजूद रईस बना रहता है। आज इतना सामर्थ्यवान बनने के लिए सौ करोड़ रुपए भी कम लगते हैं। फिल्म ‘शोले’ में अमिताभ और धर्मेन्द्र भी पांच, दस हजार रुपए कमाने के लिए जगदीप की मदद से खुद को पुलिस के हवाले करते हैं और जेल से छूटने के बाद अपना हिस्सा लेने आते हैं। गबन विषय पर चाहे साधु और शैतान, दीवार या ‘गबन’ जैसी चाहे जितनी फिल्मे बनी हो, उनमें गबन की राशि दो-चार हजार से ज्यादा नहीं होती थी। लेकिन, आज जमाना बदल गया है। फिल्मों में रईस मां-बाप के सुर भी अब करोड़ों से कम की बात नहीं करते। तब हॉलीवुड की फिल्म ‘हाऊ टू स्टील ए मिलियन डॉलर’ देखकर भारतीय दर्शक चकरा सा गया था कि क्या इतना पैसा भी होता है!

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भारतीय करेंसी के अवमूल्यन के साथ ही फिल्मों के शीर्षक भी प्रभावित हुए है। पहले रुपए की तो छोड़िए पैसों की भी बहुत कीमत होती थी। तब फिल्मों के शीर्षक भी पैसों तक सीमित होते थे। उस दौर में बनी फिल्में पैसा, चार पैसे, पैसा ही पैसा, पैसा बोलता है, ससुरा बड़ा पैसे वाला, पैसा वसूल, पैसा या प्यार और पैसा या पैसा यही कहानी कहता है। जब पैसे की कीमत घटी तो रूपए की बाते होने लगी तो आमदनी अट्ठनी खर्चा रुपैया, सबसे बड़ा रूपैया बना। रूपया कुछ और चढ़ा तो फिल्म ‘दस लाख’ बनी और देव आनंद ने ‘सौ करोड़’ बनाकर इसकी कीमत बढा दी। कुछ लोग जिन्हें पैसा बोलने में शर्म आती है उन्होंने ‘मनी’ के बाद ‘मनी मनी’ और ‘अपना सपना मनी मनी’ जैसी फ़िल्में बनाई। हिंदी सिनेमा के गीतकारों ने देश के इस धीमे-धीमे बदलते रिश्ते को पैसे के साथ अच्छी बुद्धि और अनुग्रह के साथ वर्षों से खोजा है। श्रोता रोहन सिप्पी के ब्लफ़ मास्टर (2005) के रीमिक्स के गीत को याद करेंगे। ‘द होल थिंग इज देट के भैया सबसे बड़ा रुपैया’ पैसे की ताकत की बात करता है। दुनिया में कोई अपने माता-पिता के कारण नहीं, बल्कि पैसे के लिए पैदा होता है। बसु-मनोहारी द्वारा रचित, इस गीत को महमूद के मुखर कौशल से जीवन मिलता है, जिसके ढुलमुल तौर-तरीके गीत की भावना को प्रभावित करते हैं।

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संगीतकार रवि को भी पैसे से बहुत प्यार था। राजेन्द्र कुमार गीता बाली अभिनीत उनकी फिल्म ‘वचन’ (1955) में प्रेम धवन ने ‘एक पैसा दे दे ओ बाबू’ गीत लिखा था जो गरीब होने की हताशा और अपमान को रेखांकित करता है। मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ सरल लेकिन प्रभावी गीतों में करुणा को बढ़ाती है तेरी जेब रहे ना खाली, तेरी रोज़ माने दीवाली दिवाली इस गीत में आशा भोंसले रफी के साथ भिखारी बच्चे की आवाज के रूप में शामिल होती हैं। 1960 में प्रदर्शित ‘गर्ल फ्रेंड’ के गीत पैसे की कहानी को जाने माने गीतकार साहिर लुधियानवी ने लिखा था। यह गीत पैसे की कहानी इस बात की उत्पत्ति को ट्रैक करती है कि पैसा कैसे अस्तित्व में आया और इसकी यात्रा का अनुसरण करता है। क्योंकि, इसने लोगों के बीच असमानता पैदा की और अंततः मानवता को ही भ्रष्ट कर दिया। इस गीत में एक के बाद एक दोहे हैं। संगीत के बिना, वे एक उपदेश की तरह पढ़ते हैं।

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‘चार पैसे’ (1955) का गीत ‘छन छन बाजे रुपैया’ एक मजेदार गीत है, जिसे किशोर कुमार ने पर यादगार बनाया गया है। सरताज रहमानी के बोल बताते हैं कि पैसे से आपको एक सूट, एक बंगला मिल जाता है और आप का बाबू बन जाते हैं। संगीत बरेंद्र देव बर्मन का है, जिसे फिल्म में बीडी बर्मन के रूप में श्रेय दिया जाता है। इसे सचिन देव या राहुल देव बर्मन के साथ भ्रमित नहीं होना चाहिए। देव आनंद को भी पैसों से खास दिलचस्पी थी। इसलिए ‘अमरदीप’ में वे गाते हैं लेने से इंकार नहीं, देने को तैयार नहीं, इस दुनिया में कौन है ऐसा जो पैसों का यार नहीं। उनकी दूसरी फिल्म ‘काला बाजार’ का गीत ‘तेरी धूम हर कहीं तुझ सा यार कोई नहीं हम को तो प्यारे तू सब से प्यारा लई लई लई लई तेरी धूम’ … दुनिया की गाड़ी का पहिया तू चोर तू ही सिपहिया राजों का राजा रुपैया लई लई लई में पैसे की महिमा कही गई है। इसी नाम से बनी अनिल कपूर की फिल्म ‘काला बाजार’ में कादर खान गाते हैं ‘पैसा बोलता है’ एक व्यंग्यपूर्ण गीत है जो गायक नितिन मुकेश के मधुर स्वरों की बदौलत कानों पर हल्का है। राजेश खन्ना की फिल्म ‘रोटी’ में एक गाना था ‘नाच मेरी बुलबुल की पैसा मिलेगा।’ संजीव कुमार और लीना चंदावरकर की फिल्म ईमान का गीत पैसे को प्यार से ज्यादा जरूरी मानते हुए कहता है ‘पैसे बिना प्यार फिजूल है।’

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ज्वाला डाकू का गीत पैसा फेंक तमाशा देख भी पैसे के पावर की बात कहता है यह गीत 1968 की फिल्म ‘रूप रुपैया’ के गीत ‘रुपैया जहां है वहां है रूप’ है से मिलता जुलता है। ऐसे ही बोल राजेश खन्ना और मुमताज की फिल्म ‘दुश्मन’ के भी है जिसमें बाइस्कोप वाली मुमताज कहती है ‘देखो देखो देखो …. पैसा फेंको तमाशा देखो!’ ऐसा ही गीत 2006 की फिल्म ‘कृष’ और ‘जॉनी गद्दार’ में भी है। 2002 की फिल्म ‘वाह तेरा क्या कहना’ में गोविंदा कहता है ‘आई वांट मनी’ भी धन के आकर्षण को बढाता है। ‘कर्ज’ में ऋषि कपूर ‘पैसा हाय पैसा’ कहते हुए उसे मुसीबत मानते हैं, तो चलती का नाम गाड़ी का गीत पांच रुपैया बारह आना भी रुपए आने का हिसाब मनोरंजक अंदाज में पेश करता है। अक्षय कुमार भी ‘दे दना दन’ में कैटरीना से कहते हैं ‘क्यों पैसा पैसा करती है।’ यानी समाज से लेकर राजनीति और सिनेमा सभी दूर पैसे का ही बोलबाला है। सिनेमा की टिकट दरों पर भी पैसे के उतार-चढ़ाव का असर साफ दिखाई देता है। हर घर में कोई न कोई बुजुर्ग जरूर मिल जाएगा, जो कहेगा कि हमने तो दो आने, तीस पैसे, साठ पैसे बारह आने में फिल्में देखी है। उसी घर में युवा पीढ़ी भी मिल जाएगी जो हजार रुपए देकर रिक्लाइनर पर पैर पसारकर मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न बनाते हुए आज फिल्में देखती हैं।

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Hemant pal
हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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