
Silver Screen :हिंदी दर्शकों के सिर चढ़कर बोलने लगा दक्षिण का जादू
– हेमंत पाल
दक्षिण भारत की फिल्में हिंदी दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। इन फ़िल्मों की सशक्त कहानियां और भावनात्मक गहराई के कारण ये दर्शकों को काफी पसंद आती हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों की लोकप्रियता के कुछ कारण ये भी हैं कि साउथ की फ़िल्में जमीन से जुड़ी होती हैं। इनमें जीवन की सच्चाई दिखाई जाती है। साउथ की फिल्मों में कहानी के मुताबिक कलाकारों की अहमियत कुछ खास होती है। इन फ़िल्मों में लोककथाओं और आध्यात्म से जुड़े विषय दिखाए जाते हैं। इन फ़िल्मों में कहानियां मुख्य तत्व होती हैं। ये फ़िल्में तेलुगु, तमिल, मलयालम, और कन्नड़ जैसी भाषाओं में बनती हैं। कुछ सालों से हिंदी दर्शकों में भी साउथ फिल्मों का भारी क्रेज नजर आ रहा है। पिछले साल भी साउथ फिल्मों का बॉक्स ऑफिस पर दबदबा रहा। बाहुबली, पुष्पा-2, आरआरआर, कांतारा, कल्कि 2898 एडी और ‘हनुमान’ को बॉक्स ऑफिस पर काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला। कलेक्शन के मामले में भी ये कई बॉलीवुड फिल्मों पर भारी पड़ीं। दक्षिण भारतीय फिल्मों को टॉलीवुड, कॉलीवुड, सैंडलवुड, और मॉलीवुड जैसे नामों से जाना जाता है जैसे मुंबई फिल्म इंडस्ट्री को बॉलीवुड कहा जाता है।
हाल के वर्षों में हिंदी के दर्शकों में सबसे बड़ा अंतर उनकी पसंद को लेकर आया। वे औसत दर्जे की फिल्में देखना पसंद नहीं करते। उन्हें ऐसी कहानियां चाहिए जो उनके दिल के साथ दिमाग तक पहुंचे। यही कारण है कि साउथ का सिनेमा इस मामले में हिंदी से बहुत आगे निकल गया। जबकि, हिंदी के दर्शकों की अपेक्षा पर हिंदीभाषी सिनेमा खरा नहीं उतर पा रहा। ‘बाहुबली’ के बाद ‘आरआरआर’ और ‘पुष्पा’ सीरीज की फिल्मों ने इसे साबित कर दिया! याद करने पर भी याद नहीं किया जा सकता कि ऐसी कौनसी हिंदी फिल्म थी, जिसने बड़े वर्ग के दर्शकों को प्रभावित किया। मुगले आजम, शोले और ‘बॉबी’ तो अब तो अब मिसाल बनकर रह गई। उत्तर के दर्शकों को बाहुबली, आरआरआर, पुष्पा: द राइज़ या मंजुम्मेल बॉयज जैसी हैरतअंगेज प्रभाव पैदा करने वाली फिल्में ही रास आने लगी। हिंदी और और साउथ के सिनेमा के बीच कंटेंट के हिसाब से खाई चौड़ी होती जा रही है। हिंदी में में अक्सर कहानी से ज्यादा चमक-दमक और ग्लैमर पर फोकस किया जाता है। जबकि, साउथ फिल्म मेकर्स चमक-दमक को कहानी पर हावी नहीं होने देते। साउथ में कभी कहानी से समझौता नहीं किया जाता। वहां के फिल्मकार जानते हैं कि दर्शक एक्शन के साथ कहानी भी देखना चाहते हैं। साउथ के निर्माता दर्शकों की इस इच्छा को नजरअंदाज नहीं करते, जिसका बेहतर नतीजा उन्हें बॉक्स ऑफिस पर भी देखने को मिलता है।
हिंदी के दर्शक आज साउथ फिल्मों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्सुक है। हिंदी फिल्म की रिलीज पर दर्शक उतना उत्साहित नहीं होता, जितना वह साउथ की फिल्मों को देखना चाहता है। इसलिए कि जब हिंदी की कोई बड़ी फिल्म रिलीज होती है, तो हिंदी बेल्ट में तो कई जगह पर वह दर्शकों को प्रभावित कर लेती है। लेकिन, साउथ रीजन में हिंदी की फ़िल्में नहीं चल पाती। इसी से समझा जा सकता है कि साउथ की फिल्में अब रीजनल भाषा की फ़िल्में नहीं रही, बल्कि वे हिंदी के दर्शकों को भी उतना ही प्रभावित करती हैं। लेकिन, सवाल उठता है कि हिंदी की फिल्में साउथ में अच्छा कारोबार क्यों नहीं कर पाती। जबकि, साउथ की फ़िल्में हिंदी बेल्ट में आसमान फाड़ देती है। कुछ समय से साउथ की फिल्मों का दबदबा सिर्फ देश में ही नहीं, दुनियाभर में देखने को मिल रहा है। आश्चर्य इस बात का कि साउथ के जो हीरो चार राज्यों तक सीमित थे, वे देश के अलावा दुनियाभर में भी पसंद किए जा रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि साउथ के किसी एक डायरेक्टर या हीरो की ही फिल्म सफल हो रही है। दर्शक किसी बड़े सुपरस्टार के प्रभाव से ही साउथ की फिल्में नहीं देख रहे। कोई भी हीरो और डायरेक्टर हो, साउथ की फिल्मों को हर जगह पसंद किया जा रहा।
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इस रीजन की फिल्मों का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन इस बात का प्रमाण भी है। पुष्पा, पुष्पा-2, आरआरआर, बाहुबली और इस जैसी कई फिल्मों को हिंदी दर्शकों ने हाथों-हाथ लिया है। इन्हें इंतजार इस बात का रहता है कि कब कोई साउथ की नई फिल्म रिलीज हो और वे देखें। सिर्फ इसलिए कि साउथ की फिल्मों के कथानक में वो ताकत है, जो हिंदी के दर्शकों को प्रभावित करती है। इस बात को निःसंकोच कहा जा सकता है कि हिंदी के फिल्मकारों में एक ही लीक पर चलने की आदत है, जो साउथ में कहीं नजर नहीं आती। नए प्रयोग करने से साउथ के डायरेक्टर चूकते नहीं, पर उत्तर भारत में बनने वाली हिंदी फिल्मों में वो बात नहीं! यहां हीरो और हीरोइन को हमेशा खूबसूरत दिखाने की होड़ सी लगी रहती है, जबकि साउथ में इसका उल्टा है। इसका सबसे बड़ा सबूत है ‘पुष्पा’ जिसके स्मार्ट हीरो को काला और बदसूरत बनाने के लिए उसका मेकअप किया गया था।
यह भी सच है कि हिंदी के शाहरुख खान, सलमान खान और रणबीर कपूर जैसे बड़े कलाकारों की कई फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचाया। लेकिन, साउथ में इनकी कई फिल्मों को नकार दिया गया। यही वजह है कि आजकल हिंदी की कई फिल्मों में साउथ के किसी हीरो को शामिल करके फिल्मों को सफल बनाने की गारंटी बना ली जाती है। ‘ब्रह्मास्त्र’ और ‘कल्कि’ की सफलता से इसे आसानी से समझा जा सकता है। ‘आरआरआर’ में अजय देवगन और आलिया भट्ट मेहमान भूमिकाओं में आए, जबकि ‘केजीएफ-2’ में संजय दत्त और रवीना टंडन अच्छा खासा रोल नजर आया। साउथ के फिल्मकारों ने साबित कर दिया कि उनकी कहानी फिल्माने की कला से भी असाधारण फिल्म बनाई जा सकती है। दक्षिण की डब फिल्में हिंदी के दर्शकों को जमकर आकर्षित कर रही हैं। पारंपरिक दर्शकों को तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम सिनेमा की स्वीकार्यता बढ़ी है। सनी देओल, सलमान, शाहरुख और अक्षय कुमार की फिल्मों को पसंद करने वाले दर्शक महेश बाबू, रामचरण, यश, प्रभास, अल्लू अर्जुन, जूनियर एनटीआर के दीवाने हो गए।
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हिंदी के दर्शकों पर साउथ का जादू कब चला, इसे जांचा जाए तो याद आता है कि आठ साल पहले तेलुगू फिल्मकार एसएस राजामौली की फिल्म ‘बाहुबली: द बिगनिंग’ ने उत्तर भारत के हिंदी में जो धमाका किया था, उसका कोई तोड़ नहीं है। उसके बाद साउथ की फिल्मों की चमक उत्तर के हिंदी बेल्ट में तेज होती गई। ‘बाहुबली’ के बाद राजामौली की ही फिल्म ‘आरआरआर’ ने बॉक्स ऑफिस पर कमाई का रिकॉर्ड बना दिया। ‘केजीएफ’ सीरीज और ‘पुष्पा: द राइज’ ने भी अच्छी कमाई की। ‘केजीएफ’ और ‘पुष्पा’ की छोटी-सी कहानी को जिस तरह भव्य रूप में परदे पर पेश किया, वो भी कमाल ही है। इन फिल्मों में एक्शन सीक्वेंस और के सहारे कथानक रचा गया। इसी से समझा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों के मुकाबले दक्षिण की फ़िल्में आज के दर्शकों की नब्ज ज्यादा अच्छी तरह समझने लगी हैं। अब साउथ की हिंदी में डब फिल्मों को तालियां और सीटियां मिल रही है। ‘जय भीम’ जैसी फिल्म भी फिल्मों के गंभीर दर्शकों को पसंद आने लगी।