वरिष्ठ पत्रकार डॉ राकेश पाठक की ख़ास ख़बर
नई दिल्ली। ऐतिहासिक लाल किले पर नए स्वरूप में साउंड एंड लाइट शो शुरू हो गया है। ‘जय हिंद’ नाम से शुरू हुए इस शो में किले के बहाने देश की आज़ादी की कहानी सुनाई, दिखाई जा रही है। लेकिन इस शो में न राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का नाम लिया जाता है और न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का। शो की स्क्रिप्ट तो लचर है ही प्रस्तुति भी कलात्मक दृष्टि से स्तरीय नहीं है।
दिल्ली के लाल किले में पांच साल बाद साउंड एंड लाइट शो ( ध्वनि एवं प्रकाश ) शुरू हुआ है। गृह मंत्री अमित शाह ने गत दस जनवरी को उदघाटन किया था। किले का रखरखाव और इस शो की जिम्मेदारी आजकल ‘डालमिया समूह’ के पास है। यह नया शो मॉन्यूमेंट मित्र ‘डालमिया भारत लिमिटेड’ और ‘सभ्यता फाउंडेशन’ ने तैयार किया है।
वैसे लालकिले पर इस तरह के शो की शुरुआत सत्तर के दशक में हुई थी।
यह नया शो कहने को ही साउंड एंड लाइट शो है, असल में इसके नाम पर एक नृत्य नाटिका (बैले) बना दी गई है।
शो की शुरुआत नौबतखाना के दरवाज़े से एक भीमकाय पुतले की आमद के साथ होती है। बेडौल से इस पुतले के पीछे से अमिताभ बच्चन की आवाज़ आती है जो ख़ुद को ‘समय’ कहता है। कभी खुद को ‘वक्त’ कहता है। छह सात आदमी इस पुतले को कठपुतली की तरह रस्सी से खींचकर चहलकदमी करवाते हैं। हास्यास्पद है कि काले कपड़ों वाले ये लोग अंधेरे में भी साफ़ साफ़ दिखाई देते हैं। पुतले के पीछे छुपने की इनकी कोशिश नाकाम ही रहती है।
यह ‘समय’ या वक्त ही दीवाने-आम और फिर दीवाने-ख़ास में सत्रहवीं सदी से आज़ादी तक का इतिहास सुनाता है। इसमें मुगल बादशाह शाहजहां के वक्त से लेकर आज़ादी के दिन तक का ब्यौरा समाया हुआ है।
कहानी के बीच में चलते फिरते कलाकारों को बड़े बड़े जोकरनुमा मुखौटे पहना कर बतौर बादशाह, बेगम पेश किया जाता है। पचासों कलाकार नृत्य प्रस्तुत करते हैं। नादिर शाह के आक्रमण और पानीपत की लड़ाई में मंच से मैदान तक दर्जनों कलाकार तलवारबाजी करते कूद पड़ते हैं। मानो यह साउंड एंड लाइट शो नहीं ‘जाणता राजा’ जैसा कोई महा नाट्य हो।
आसपास की इमारतों पर लेज़र के माध्यम से दृश्य भी आते जाते रहते हैं जिनका मंच पर प्रस्तुत हो रहे दृश्य या घटना से तालमेल भी ठीक से नहीं बैठता।
अमिताभ के अलावा बाक़ी जितने स्वर हैं वे भी अति नाटकीयता और कृत्रिमता का शिकार हैं। सिर्फ़ बूढ़े बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के लिए जिसकी आवाज़ इस्तेमाल की गई है वह जरूर लरजती हुई है। बाक़ी चाहे शाहजहां हो या उसकी बेटी जहां आरा एक भी चरित्र के साथ ‘नरेशन’ मुगलिया अंदाज में नहीं है। ऐसा लगता है कि नौसिखिया वॉइस ओवर आर्टिस्ट से स्क्रिप्ट पढ़वा भर दी गई है।
दिल्ली के बार बार उजड़ने, बसने की कहानी जब 1857 की क्रांति तक पहुंचती है तो बहादुरशाह जफर से लेकर लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे आदि का ज़िक्र होता है।
काश यह ज़िक्र भी होता कि भूख लगने पर अंग्रेजों ने बहादुर शाह के सामने उसके बेटों के कटे हुए सिर थाल में रख कर पेश कर दिए थे…काश कि बूढ़े बादशाह का अंग्रेज अफ़सर के सामने दिया गया वो फख्र से भरा बयान होता कि…
‘..हिंदुस्तान के बेटे अपने वतन के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के सामने इसी अंदाज़ में आया करते हैं…।’
अगर अमिताभ की थरथराती हुई आवाज़ में ये डायलॉग गूंजता तो लाल किले की बूढ़ी प्राचीर भी भावुक होकर भीग जाती। काश..!
शो बनाने वालों और उसकी स्क्रिप्ट लिखने वालों की मंशा (असल में कुमंशा) तब सामने आती है जब 1857 से लेकर 1947 में आज़ादी मिलने की कहानी सुनाई जाती है।
यहां कहानी सीधे सन 1941 में पहुंच जाती है और आज़ाद हिंद फ़ौज के साथ नेताजी सुभाषचंद्र बोस का उल्लेख होता है। नेता जी का भाषण सुनाया जाता है।
सन 47 तक की कहानी में न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नाम लिया गया और न उसके नेतृत्व में चले राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का।
एक घंटे के शो में न तो आज़ादी के महानायक महात्मा गांधी का नाम लिया गया और न नेहरू, पटेल, आज़ाद का। न शहीदे- आज़म भगत सिंह का और न चंद्रशेखर आज़ाद का।
गांधी की तस्वीर इक्का दुक्का मौके पर बस यूं ही चलते चलाते दिख जाती है।
उल्लेखनीय है कि पिछले पचास साल से चल रहे पुराने शो में गांधी, नेहरू का यथायोग्य ज़िक्र था जो अब इस नए शो में सिरे से गायब कर दिया गया है।
आज़ाद हिंद सेनानियों पर लालकिले में चले मुकदमे में सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज का नाम तो लिया गया लेकिन उनका मुकदमा लड़ने वाली कांग्रेस की डिफेंस कमेटी और उसमें शामिल वकीलों सर तेज बहादुर सप्रू, भूलाभाई देसाई, जवाहरलाल नेहरू आदि के नाम पूरी तरह गायब हैं।
पंद्रह अगस्त 1947 को संसद में पंडित नेहरू का भाषण चंद सेकंड में दिखा कर रस्म अदा कर दी गई है। हां सभी प्रधानमंत्रियों की तस्वीरें दिखानी थी इसलिए नेहरू से नरेंद्र मोदी तक की तस्वीरें एक स्लाइड में दिखा दी गई हैं।
आख़िर में नरेंद्र मोदी का लालकिले से दिया गया भाषण भी पर्याप्त समय तक दिखाया गया है।
शो के आखिर में रही सही कसर अमिताभ बच्चन ने राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ को किसी अलग ही सुर, लय, ताल में गाकर पूरी कर दी है। न जाने कौन सी धुन में अमिताभ ने इसे गाया है कि सावधान की मुद्रा में खड़े दर्शक चाह कर भी उनके सुर में सुर मिलाकर जन गण मन नहीं गा पाते।
यह शो हिंदी में शाम साढ़े छह बजे और अंग्रेजी में रात सवा आठ बजे से किले के भीतर नौबतखाना, दीवाने-आम और दीवाने-ख़ास के सामने प्रस्तुत होता है। आगे की दो कतारों पर बैठने का टिकिट 1500 रु और पीछे की छह कतारों में बैठने का टिकिट 500 रुपए प्रति व्यक्ति है।
#प्रसंगवश:
साउंड एंड लाइट शो क्या होता है यह जानना समझना हो तो कभी पोर्ट ब्लेयर(अंडमान) के पास Ross Island (नेताजी सुभाष द्वीप) पर होने वाले शो को देख लीजिए।
गुलज़ार की स्क्रिप्ट और उन्हीं की आवाज़ में ये शो इतना जीवंत बना है कि हर घटना आंखों के सामने साक्षात घटित होती दिखती है। ऐसे मौके भी आते हैं जब दृश्य और स्वर आपके रोंगटे खड़े कर देते हैं।
वैसे खजुराहो, ग्वालियर दुर्ग पर होने वाले साउंड और लाइट शो दिल्ली के इस शो से बहुत बेहतर बन पड़े हैं।
देश भर में पुरातात्विक महत्व के कई और स्थानों पर भी शानदार साउंड एंड लाइट शो होते हैं।