

रविवारीय गपशप: आपने ना देखे,ना सुने होंगे ऐसे बिरले दानदाता
आनंद शर्मा
समाज और देश के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो ये जरूरी नहीं कि आपको बड़ा अफ़सर या राजनेता ही बनना पड़ेगा , आप जहाँ और जैसे भी हैं सकारात्मक योगदान दे सकते हैं । मैंने अपने सेवाकाल में ऐसे अनेक उदाहरण देखे हैं , जहाँ बिना किसी शोर शराबे के लोग जरूरतमंदों की मदद करने में लगे हुए हैं ।
मैं ग्वालियर में परिवहन विभाग में उपायुक्त प्रशासन के पद पर पदस्थ था और रेसकोर्स रोड पर रहा करता था । एक दिन सुबह सुबह एक सज्जन मुझसे मिलने आए और कुछ खाद्य सामग्री दान में देने का आग्रह करने लगे । मैंने पूछताछ की कि इसका आप क्या करोगे , तो उन्होंने कहा कि एक मंदिर के पास वे निःशुल्क भोजन का शिविर चलाते हैं । मैंने कहा ठीक है आप कल सुबह आ जाना और उसी दिन शाम को मैं अपनी पत्नी के साथ चुपचाप उस बतायी जगह पर गया तो पाया मंदिर के समीप सड़क के किनारे लाइन से बैठे लोग सर पर छाता लगाये भोजन कर रहे हैं । हम संतुष्ट हुए और दूसरे दिन जब वे बंगले पर आए तो मेरी श्रीमती जी ने अनाज की बोरी के साथ खाने के तेल की व्यवस्था भी कर दी । जब वे जाने लगे तो मैंने पूछा कि छाता लगा के आप भोजन क्यूँ कराते हो तो वे बोले “ अरे साहब इनमें कई लोग ऐसे हैं जो अच्छे घरों के हैं , पर ना जाने किस मजबूरी में वे यहाँ भोजन करने आते हैं इसलिए शर्मिंदा ना हों तो छाते की आड़ कर देता हूँ । समाज की विडंबना पर हैरान हम दान का ये सिलसिला ग्वालियर से तबादला होने तक जारी रखे रहे ।
मैं जब विदिशा में कलेक्टर था तो एक दिन दोपहर में अधपकी उम्र के एक सज्जन मिलने आए और कहने लगे कि कुरवाई तहसील रोड पर एक जर्जर शासकीय मकान , जो पहले कभी राजस्व निरीक्षक निवास हुआ करता था , उन्हें अस्थायी तौर पर इस्तेमाल करने के लिए दे दिया जाए । मुझे ऐसे निवेदन पर आश्चर्य हुआ और मैंने इसका प्रयोजन पूछा तो वे कहने लगे “ साहब मैं पिछले माह ही शासकीय स्कूल के शिक्षक के पद से रिटायर हुआ हूँ , और घर में भगवान की दया से खेती बाड़ी भरपूर है , बाल बच्चे भी सब अपनी अपनी नौकरी में लगे हैं । मेरे पास कोई काम नहीं है तो मैं तहसील रोड पर सड़क किनारे बैठ कर आने जाने वाले ऐसे लोगों की मदद कर देता हूँ जिन्हें शासकीय योजनाओं का सहारा नहीं मिल पाता है , यदि आप ये मकान का सहारा कर दो तो इसकी परछत्ती में बैठ जाया करूँगा मदद चाहने वालों को मेरा ठिकाना भी पता लग जाएगा ।” मैं अचरज से भरा उन्हें देखता ही रह गया , फिर मैंने अपने तहसीलदार साहब से कह उन्हें वांछित जगह पर बैठने की इजाजत देने को कह दिया ।
राजगढ़ जिले में जब मैं कलेक्टर हुआ तो एक दिन एक सरकारी स्कूल के प्राचार्य मेरे पास आए और कहने लगे “सर मेरे स्कूल के बच्चों ने पूरे जिले में अच्छे नंबरों से परीक्षा पास की है और इस अवसर पर मैंने उनके प्रोत्साहन के लिए एक समारोह रखा है , आप आयेंगे तो बच्चों को अच्छा लगेगा ।” मैंने तारीख़ नोट कर ली और अगले सप्ताह नियत दिनांक पर शाला में जा पहुँचा । प्राचार्य महोदय ने जब मुझे शाला का भ्रमण कराया तो मैं चकित रह गया । एक ग्राम का शासकीय विद्यालय साफ़ सफ़ाई से लेकर कक्षाओं में रखरखाव में जैसे किसी पब्लिक स्कूल सा कलेवर पहने था । साफसुथरी ड्रेस में बालिकाएं और स्कूल की दीवारों पर महापुरुषों के विवरण सहित चित्र । मैंने चलते चलते देखा तो दो-एक कक्षाओं में बच्चे जमीन पर टाटपट्टी पर बैठे थे , मैंने कारण जानना चाहता पता चला बाक़ी का फर्नीचर भी प्राचार्य ने निजी प्रबंध से ही जुगाड़ किया है और इस बाक़ी की कसर वे मेरे ज़रिए पूरा करना चाह रहे थे । मैंने अपने साथ चल रहे जिला शिक्षा अधिकारी से इस बाबत पूछताछ की तो उन्होंने कहा “ सर हम माध्यमिक शिक्षा मिशन प्रस्ताव भेज देंगे , आप किसी को फोन कर देंगे तो मिशन वाले शायद कुछ कर दें , वरना लाइन में कई स्कूल हैं । भ्रमण के बाद मैंने कार्यक्रम में बच्चों को पुरस्कृत किया उसके बाद प्राचार्य माइक पर आये , मेरा धन्यवाद किया और कहा “कलेक्टर साहब ने अपने स्कूल के फर्नीचर के लिए शासन को लिखने को कहा है उम्मीद है जल्द कुछ होगा पर तब तक मैं सामने बैठे सभी अभिभावकों और ग्रामजनों से कहना चाहता हूँ कि हमें भी इसमें योगदान देना चाहिए और इसके लिए मैं ख़ुद अपनी ओर से अभिभावक समिति को कुछ राशि देना चाहता हूँ “। इसके बाद वे मेरे समीप आए और मेरे हाथों में एक चेक थमा दिया । मैंने चेक पर भरे अंकों को देखा तो मुझे यकीन नहीं हुआ , वो चेक पचास हज़ार रुपयों का था । मैंने हैरानी से पास बैठे विधायक जी की ओर देखा और पूछा एक मिडिल स्कूल का टीचर इतना दान दे रहा है ? वे मेरा असमंजस समझ गए , और कहने लगे “ अरे आप चिंता ना करो , ये पाटीदार मास्टर जी के घर खूब जमीन जायज़ाद है , मास्टरी तो वो शौक से करे है “ । मैंने मंच से ऐसे शिक्षक को प्रणाम किया और जितना बन पड़ा कुछ अपना भी योगदान दिया और फिर सामने बैठे लोगों में तो दान देने की झड़ी लग गई और मेरे विदा होते होते शाला की उस कक्षा के फर्नीचर की व्यवस्था बिना मिशन की सहायता के हो चुकी थी ।