
महाकुम्भ पर मठों और शंकराचार्यों की राजनीति की झलक भी दिलचस्प
आलोक मेहता
प्रयाग में इस बार महाकुम्भ की शुरुआत शानदार और अखाड़ों के बीच किसी विवाद के बिना हुई | लेकिन कुछ राजनीतिक पार्टियों और नेताओं ने कुम्भ के नाम पर भी सत्तारूढ़ भाजपा और राज्य सरकार के विरुद्ध बयानबाजी की | इसमें कोई शक नहीं कि कुम्भ के पहले या शाही स्नान ( इस बार अमृत स्नान का नाम मिला ) के लिए ‘ पहले हम ‘ पर बड़े विवाद और संघर्ष हुआ करते थे | उज्जैन के सिंहस्थ कुम्भ को लेकर 1968 – 69 में अखाड़ों के बीच इतना गंभीर विवाद हुआ कि अखाडा समूह ने 68 में और दूसरे समूह ने 69 में कुम्भ आयोजित करवाए | संयोग से उसी वर्ष से मैंने पत्रकार के रुप में कुम्भ मेले में अखाड़ों के महंतों संतो से बात कर उनकी गतिविधियों पर लिखना शुरु किया था | इसलिए मुझे हमेशा लगता है कि साधु-संत घर परिवार और मोह माया त्याग कर वैराग्य अपनाते हैं , फिर भी उनके बीच झगडे क्यों होते हैं ? साधु-संतों की सबसे बड़ी संस्था अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद से लेकर अलग-अलग अखाड़ों के साधु-संतों में जंग छिड़ी रहती है | किसी की लड़ाई पद और कुर्सी को लेकर है तो कोई अखाड़े में वर्चस्व को लेकर मोर्चा खोले रहते हैं | पिछले वर्षों के दौरान शंकराचार्य के पदों और वर्चस्व को लेकर भी सार्वजनिक विवाद आए | यही नहीं कुछ मठों और शंकराचार्यों ने सत्तारुढ़ कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी के समर्थन और विरोध से समाज में अजीब सी उलझन पैदा की है | वेदों में राजनीति और सत्ता का विस्तृत उल्लेख है , लेकिन साधु संतों , शंकराचार्य की भूमिका सत्ता व्यवस्था को केवल सलाह देने की है | भृतहरि जैसे अनेकों राजा बाद में ऋषि बने , सन्यासी हुए | लेकिन सन्यासी किसी वेद पुराण में स्वयं सत्तारुढ़ होने का उल्लेख नहीं है |
अखाड़े एक तरह से हिंदू धर्म के मठ कहे जा सकते हैं। शुरू में केवल चार प्रमुख अखाड़े हुआ करते थे, लेकिन वैचारिक मतभेद की वजह से उनका बंटवारा होता गया और आज 13 प्रमुख अखाड़े हैं। कुंभ अखाड़ों का ही होता है। कुंभ आयोजित करने की मुख्य वजह आध्यात्मिक और धार्मिक विचार-विमर्श होती थी।
अखाड़े अपनी-अपनी परंपराओं में शिष्यों को दीक्षित करते हैं और उन्हें उपाधि देते हैं। कुंभ में आमलोग पुण्य कमाने पहुंचते हैं तो वहीं साधुओं का दावा है कि वो गंगा को निर्मल करने के लिए आते हैं | माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने सदियों पहले बौद्ध धर्म के बढ़ते प्रसार को रोकने के लिए अखाड़ों की स्थापना की थी। बाद में कुछ महंतों ने वर्चस्व के लिए शास्त्र से नहीं मानने वालों को उन्हें शस्त्र से मनवाने के प्रयास किए ।संतों के खूनी संघर्ष की सबसे बड़ी घटना वर्ष 1760 में हरिद्वार कुंभ में संतों के बीच संघर्ष में नागा संन्यासियों ने 1800 वैष्णव संन्यासियों को मार दिया था। अखाड़ों के विवाद खत्म करने के लिए अखाड़ा परिषद् गठित हुआ, जिसकी व्यवस्थाओं को अब सभी अखाड़े मान्यता देते हैं। इतिहासकार यह भी मानते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी में बारह बरस में मिलने वाले धर्माचार्यों को जब लगा कि उन्हें बीच में भी एक बार एकत्र होना चाहिए तो छह बरस पर अर्ध कुंभ की परंपरा की नींव पड़ी। 1954 के कुंभ में मची भगदड़ के बाद, टकराव और अव्यवस्था को टालने के लिए अखाड़ा परिषद की स्थापना की गई, जिसमें सभी 13 मान्यता-प्राप्त अखाड़ों के दो-दो प्रतिनिधि होते हैं, और आपस में समन्वय का काम इसी परिषद के जरिए होता है।यूनेस्को ने भी कुंभ मेले को वैश्विक सांस्कृतिक धरोहर घोषित कर दिया है। यूनेस्को के अनुसार यह महोत्सव व्यापक और शांतिपूर्ण है और इसका आयोजन भारत के इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में किया जाता है। इस दौरान भारत में पवित्र नदी के किनारे पूजा अर्चना की जाती है। यह धार्मिक महोत्सव सहिष्णुता और समावेशी प्रकृति को प्रदर्शित करता है और इसमें बिना किसी भेदभाव के लोग हिस्सा लेते हैं।
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद में दो गुट बन चुके हैं | वहीं जूना अखाड़े से जुड़े कुछ संतों ने अपना नया अखाड़ा पांच दशनाम श्रीसंत गुरुदत्त अखाड़ा बना लिया है | इसी तरह से किन्नर अखाड़ा के बावजूद किन्नरों का भी दूसरा अखाड़ा बनगया |. श्री पंचायती उदासीन बड़ा अखाड़ा के कुछ संत भी एक-दूसरे पर तमाम आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहे हैं |13 अखाड़ों में सबसे बड़ा अखाड़ा जूना अखाड़ा है | इसमें सबसे ज्यादा साधु-संत हैं. साधुओं की संख्या लाखों में होने के कारण जूना अखाड़ा का महत्व संख्या बल के आधार पर बढ़ जाता है | ज्यादा संख्या होने के कारण जूना अखाड़ा में भी महामंडलेश्वर और संतों के बीच विवाद हो जाते हैं. ऐसे ही कुछ संतों को जूना अखाड़े ने बाहर किया तो उन लोगों ने मिलकर एक नए अखाड़े का गठन कर लिया |
दूसरी तरफ अद्वैत परम्परा का प्रवर्तक आदिगुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा और प्रसार के लिए देश की चार दिशाओं में चार पीठ की स्थापना की थी |आदिशंकर ने ही ओडिशा (पूर्व) में गोवर्धन मठ, कर्नाटक (दक्षिण) में श्रृगेरी मठ, द्वारका (पश्चिम) में शारदा मठ और बद्रिकाश्रम (उत्तर) में ज्योतिर्मठ की स्थापना की थी|सनातन परंपरा में इन मठों के प्रमुखों को शंकराचार्य कहा जाता है. | आदिगुरु शंकर की ओर से बनाई गई इस परंपरा में शंकराचार्य के पद को लेकर विवाद होते रहे हैं| शंकराचार्यों पर परंपरा का उल्लंघन करने के आरोप लगे| इसके अलावा इस शक्तिशाली पदों पर एक से अधिक संतों का दावा रहा. ब्रह्मलीन हुए जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती दो पीठ बदरिकाश्रम की ज्योतिर्मठ और द्वारका के श्रृंगेरी मठ के प्रमुख थे. | जबकि परंपरा के अनुसार सभी पीठों की देखरेख अलग-अलग शंकराचार्य करते हैं. स्वामी स्वरूपानंद 1973 में ज्योतिष मठ (वदरिकाश्रम) के शंकराचार्य तो थे. वह साल 1982 में वो द्वारका पीठ के शंकराचार्य भी बन गए थे | स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती 1982 से दो पीठों के शंकराचार्य बने रहे | उन्होंने भी अपने उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी थी | इसके अलावा कई और शक्तिपीठ के प्रमुख भी शंकराचार्य कहा जाता हैं. तमिलनाडु के कांची कामकोटि पीठ के प्रमुख को भी शंकराचार्य का दर्जा मिला है | हालांकि आदि शंकर ने जिन चार मठों की स्थापना की थी, उसमें कांची कामकोटि पीठ का नाम नहीं है. इस आधार पर कांची कामकोटि पीठ के शक्तिपीठ होने को लेकर काफी विवाद हुआ. चार प्रमुख मठ यानी द्वारका, ज्योतिष, गोवर्धन और श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य तमिलनाडु के कांची कामकोटि पीठ को आदि पीठ नहीं मानते हैं. हालांकि बाद में इस पीठ के प्रमुख शंकराचार्य कहलाने लगे | आदि शंकर के हिंदू अद्वैत परंपरा वाले चार मठ चार वेदों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसे गुजरात में द्वारकाधाम में बने शारदा मठ में सामवेद को रखा गया है. इस मठ के सन्यासी अपने नाम के बाद ‘तीर्थ’ और ‘आश्रम नाम का विशेषण लगाते हैं. ओडिशा (पूर्व) के गोवर्धन मठ का मूल ऋग्वेद है और इस मठ के सन्यासी अपने साथ ‘आरण्य’ विशेषण लगाते हैं. दक्षिण में रामेश्वरम् में स्थित श्रृंगेरी मठ के साथ यजुर्वेद जुड़ा है और इस मठ के सन्यासी सरस्वती, भारती, पुरी सम्प्रदाय नाम विशेषण लगाते हैं.| उत्तराखंड के बदरिकाश्रम का ज्योतिर्मठ के मूल में अथर्ववेद है. | इस पीठ के सन्यासी अपने नाम में गिरी, पर्वत और सागर विशेषण का प्रयोग करते हैं |
स्वामी स्वरूपानंद की इच्छा के अनुसार, स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती को ज्योतिषपीठ बद्रीनाथ और स्वामी सदानंद सरस्वती को द्वारका शारदा पीठ के प्रमुख बनाने की घोषणा की गई | वाराणसी के श्री विद्या मठ और ज्योतिष पीठ बद्रीनाथ की जिम्मेदारी संभालने वाले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती को उनके उत्तराधिकारी के तौर पर बद्रीनाथ के ज्योतिष पीठ का प्रमुख घोषित किया गया | जबकि स्वामी सदानंद को द्वारका ज्योतिष पीठ का प्रमुख बनाया गया | काशी में शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के आदेश पर बड़े-बड़े आंदोलन की रूपरेखा खींचकर उसे आगे बढ़ाने वाले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के सबसे करीबी शिष्य माने जाते है |
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के रहने वाले स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का पुराना नाम उमाकांत पांडेय था | काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्र राजनीति में सक्रिय होते हुए उन्होंने कम उम्र में ही सन्यास ग्रहण कर लिया और वाराणसी के श्री विद्या मठ पहुंचकर ब्रह्मचारी की शिक्षा ली थी | यहां पर उनका नाम ब्रह्मचारी आनंद स्वरूप रखा गया था, लेकिन बाद में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती से उन्होंने दंडी शिक्षा ग्रहण की और उनका नाम स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती रखा गया |
स्वामी स्वरूपानंद से शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह उनके सबसे करीबी शिष्यों में शामिल हो गए | यही वजह है कि जब 2008 में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने गंगा सेवा अभियान की घोषणा की तो वाराणसी में स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने इस आंदोलन की रूपरेखा तैयार की और 112 दिनों तक काशी में अनवरत आमरण अनशन चलता रहा | जिसमें स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने भी अन्न जल त्याग कर जिद पकड़ ली और गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने और उसको साफ सुथरा करने की मांग लेकर आमरण अनशन पर बैठ गए |हालत बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल ले जाया गया, जहां स्वामी स्वरूपानंद के निर्देश पर उन्होंने अनशन खत्म किया | इसके अलावा वाराणसी में राम मंदिर को लेकर छेड़े गए आंदोलन की पूरी रूपरेखा भी उन्होंने ही तैयार की.| हर घर स्वर्ण को लेकर आंदोलन करते हुए घर घर से सोने का कलेक्शन करके राम मंदिर निर्माण से पहले रामलला के लिए स्वर्ण मंदिर बनवाने का काम भी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के सांनिध्य में ही संपन्न होने का दावा किया गया | इसके अतिरिक्त जब वाराणसी में श्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का निर्माण शुरू हुआ था और मंदिर तोड़े जाने के बाद का विरोध हो रहा था. उस वक्त स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती नहीं इस आंदोलन की रूपरेखा तैयार कर विरोध दर्ज कराते हुए अनशन शुरू किया था..स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के पिछले कुछ बयानों को देखें तो वे धर्म से परे मामलों में काफी बेबाक रहे हैं. लेकिन उनके इस बेबाकपन को, दूसरे शब्दों में कहें तो राजनीतिक सक्रियता को भाजपा विरोध के रूप में देखा जा रहा है | अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारियां जोरों पर थीं. मंदिर के अभिषेक समारोह में शामिल होने के लिए हजारों वीआईपी और धार्मिक लोगों के अलावा अविमुक्तेश्वरानंद के पास भी निमंत्रण आया था, लेकिन उन्होंने इसको अस्वीकार कर दिया. उन्होंने ‘अधूरे राम मंदिर’ के अनावरण पर आपत्ति जताई थी, और कहा कि आधे-अधूरे मंदिर का उद्घाटन करना धर्म के खिलाफ है |अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए जब ट्रस्ट बनाया गया, तब से लेकर मंदिर के बनने तक अविमुक्तेश्वरानंद की नाराजगी दिखती रही | वे नाराज रहे कि उनको ट्रस्ट का सदस्य नहीं बनाया गया | उत्तराखंड के केदारनाथ मंदिर से 228 किलो सोना गायब होने का आरोप लगाकर विवाद खड़ा कर दिया | अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् और निरंजनी अखाड़ा के अध्यक्ष रवींद्र पुरी ने इस मामले पर जवाब दिया |. उन्होंने कहा कि अविमुक्तेश्वरानंद के पास अगर सोना चोरी का सबूत है तो उन्हें पुलिस या कोर्ट को सौंपे. उन्होंने कहा था कि अगर उनके पास प्रमाण नहीं है तो सुर्खियों में बने रहने के लिए अनर्गल बयानबाजी न करें.अविमुक्तेश्वरानंद ने दिल्ली के बुराड़ी में बन रहे केदारनाथ मंदिर की प्रतिकृति (डुप्लीकेट मंदिर) पर भी नाराजगी जताई थी |स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद शुरू से धार्मिक और राजनीतिक दोनों ही मामलों में सक्रिय भूमिका निभाते दिखे हैं | पिछले कुछ सालों में उनका रुख सत्ता विरोधी रहा है, और वे विपक्ष के एक समर्थक के रूप में नजर आए हैं | दिलचस्प बात यह है कि स्वामी स्वरूपानंदजी को महत्व देने वाले स्वामी करपात्रीजी ने नेहरु इंदिरा युग में कांग्रेस का कड़ा विरोध किया था और एक पार्टी तक बनवा दी थी | लेकिन सत्ता और समय का खेल है कि पहले स्वरूपानंदजी और फिर अविमुक्तेश्वरानंद कांग्रेस के समर्थन और हिन्दू विचारों वाली प्रमुख भारतीय जनता पार्टी तथा प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे हैं | यह बात अलग है कि द्वारका के शंकराचार्य स्वामी सदानंद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति सम्मान और सर्थन देते दिख रहे हैं |