मीडिया में पूंजीपति घराने और सत्ता  की भूमिका नई नहीं

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मीडिया में पूंजीपति घराने और सत्ता  की भूमिका नई नहीं

एक बार फिर हंगामा। मीडिया में कारपोरेट समूह और सत्ता की राजनीति के प्रभाव को लेकर सोशल मीडिया तथा अन्य मंचों पर विवाद जारी है | न्यूज़ चैनल एन डी टी वी कंपनी को अडानी ग्रुप द्वारा ख़रीदे जाने पर एक वर्ग आशंका व्यक्त कर रहा है कि यह काम सत्ता के इशारे पर हो रहा है , क्योंकि यह चैनल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और उसकी सरकार की नीतियों कामकाज पर निरंतर अभियान सा चलाते दिखता रहा है | कुछ अति प्रगतिशील लोग इसे मीडिया में पूंजीपतियों के समूहों द्वारा प्रभावित होने के खतरे की आवाज उठा रहे हैं | लेकिन क्या भारत में पहली बार औद्योगिक व्यापारिक समूह मीडिया में प्रवेश कर रहा है ? असली पृष्ठभूमि का अध्ययन किया जाए तो यही तथ्य सामने आएगा कि आज़ादी के बाद से बिड़ला , डालमिया , गोयनका , टाटा जैसे बड़े समूह मीडिया और राजनीति से जुड़े रहे हैं | नब्बे के दशक से अम्बानी समूह भी मैदान में आ गया | इसी तरह मोदी के समर्थन  और विरोध को लेकर मीडिया में विभाजन पर भी क्यों आश्चर्य होना चाहिए ? क्या पहले सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रधान मंत्रियों और सरकारों के प्रबल समर्थन और विरोध वाला मीडिया या संपादक नहीं थे ?

इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली, मुंबई, कोलकाता में बिड़ला, गोयनका, डालमिया-जैन परिवारों के मीडिया संस्थानों का दबदबा और कुछ हद तक टाटा समूह और ट्रस्ट के प्रभाव वाले प्रकाशन का असर था। दिलचस्प बात यह थी कि ऐसे बड़े पूंजीपति और उनके मीडिया संस्थान कभी सत्ताधारी कांगे्रस पार्टी और सरकार के शीर्ष नेताओं के करीब रहे और कभी सबसे बड़े विरोधी बनकर उभरे। इनमें रामनाथ गोयनका और उनके इंडियन एक्सप्रैस को सबसे अग्रणी कहा जा सकता है। यों रामनाथ गोयनका को सत्ता से टकराने वाले बड़े सेनापति के रूप में याद कराया जाता है, लेकिन असलियत यह है कि वह स्वयं कांगे्रस पार्टी की आंतरिक राजनीति के भागीदार भी थे। नेहरु युग से वह कांगे्रस नेतृत्व की खींचातानी मंे सक्रिय भूमिका निभाते रहे। लाल बहादुर शास्त्री के बाद मोरारजी देसाई के बजाय इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनवाने के अभियान में शामिल रहे। फिर कुछ वर्षों के बाद घोर विरोधी बनकर मोरारजी देसाई और जयप्रकाश नारायण के साथ सक्रिय राजनीति तथा अपने अखबारों का उपयोग करते रहे। गोयनका स्वयं लोक सभा के चुनाव भी लड़े। इस दृष्टि से इंदिरा गांधी और उनके समर्थक एक्सपै्रस की पत्रकारिता को पूरी तरह निष्पक्ष नहीं मानकर राजनीतिक पूर्वाग्रहों पर आधारित एवं सत्ता विरोधी ठहराते रहे।

गोयनका के विरोधाभासी कदमों का अहसास बहुत रोचक है। जब वह नेहरु के करीबी थे, तो उन्होंने उनके एसोसिएटेड पे्रस लिमिटेड के अखबार नेशनल हेराल्ड के लिए लखनऊ में करीब दो लाख रुपये की प्रिटिंग प्रेस उपहार में दे दी। फिर उनके दामाद फिरोज गांधी को एक्सपै्रस के प्रबंधन में नौकरी दे दी। फिरोज गांधी आधे दिन एक्सपै्रस में काम करते और बाद में संसदीय कामकाज करते। इसका लाभ यह हुआ कि उन्होंने संसदीय कार्यवाही के उचित प्रकाशन पर अखबारों को विशेषाधिकार हनन की कार्रवाई से बचाने का ‘निजी विधेयक’ संसद में रखा। फिरोज गांधी ने नेहरु से पारिवारिक रिश्तों के बावजूद अपनी सरकार की गड़बड़ियों के विरुद्ध आवाज उठाई। दूसरी तरफ बीमा कंपनयों पर नियंत्रण के लिए बीमा संशोधन विधेयक लाने में अहम भूमिका निभाई। इससे डालमिया बीमा कंपनी जांच-पड़ताल के घेरे में आ गई। मूंधड़ा समूह को सरकार से अनुचित लाभ मिलने का मुद्दा उठाने से वित्त मंत्री टी.टी. कृष्णमाचारी रामनाथ गोयनका के मित्र थे, नाराज होकर गोयनका ने फिरोज गांधी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असली हमले सत्ताधारियों के साथ बड़े मालिकों द्वारा हाते रहे हैं। बहरहाल, इंदिरा गांधी ने मुश्किल के दिनों में अपने पति फिरोज गांधी को नौकरी देने का अहसान हमेशा याद रखा। गंभीर मामलों और सीधे टकराव के बावजूद इमरजेंसी में गोयनका की गिरफ्तारी जैसे कदम नहीं उठाए गए। इसी तरह बाद में संजय गांधी की दुर्घटना में असामयिक मृत्यु पर गहरी संवदेना देने के लिए गोयनका भी पहुंचे। गोयनका ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के प्रारंभिक सत्ताकाल में उनका समर्थन किया।

नेहरु इंदिरा परिवार से संबंधों के बावजूद राजनीतिक धारा अपने अनुकूल नहीं होने के कारण गोयनका और एक्सपै्रस समूह ने 1973-74 से इंदिरा सरकार की कुछ विफलतओं तथा भ्रष्टाचार के मामलों के विरुद्ध अभियान छेड़ दिया। गोयनका ने श्रीमती गांधी द्वारा नीलम संजीव रेड्डी के बजाय वी.वी. गिरि को राष्ट्रपति बनवाए जाने से भी खफा थे। ललित नारायण मिश्र-तुलमोहन राम भ्रष्टाचार कांड, गुजरात और बिहार में महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को लेकर एक्सपै्रस के तेवह गर्म होते चले गए। इसका असर दिल्ली तथा प्रादेशिक राजधानियों के अखबारों-पत्रिकाओं पर भी देखने को मिला। गुजरात के नव निर्माण आंदोलन में युवाओं की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इसी तरह बिहार मंे छात्र युवा संघर्षवाहिनी को जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व मिल गया। जयप्रकाश जी के अभियान के समर्थन के लिए रामनाथ गोयनका ने इंडियन एक्सपै्रस के अलावा साप्ताहिक अखबार ‘एवरीयेन्स’ और हिंदी में ‘प्रजानिति’ शुरू किए। गांधीवादी पत्रकार अजीत भट्टाचार्य को अंगे्रजी तथा दिनमान के संस्थापक संपादक अज्ञेय को हिन्दी साप्ताहिक का संपादक नियुक्त किया गया। दोनों बुद्धजीवी सैद्धांतिक आधार पर तीखी टिप्पणियों से पाठकों को सत्ता की गड़बड़ियों के विरोध की आवश्यकता निरुपित करते रहे।

जनता पार्टी बिखरने और इंदिरा गांधी की वापसी, राजीव गांधी के अभ्युदय, वी.पी. सिंह, नरसिंह राव, इंदर कुमार गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के सत्ता काल तक मीडिया अलग-अलग खेमों के साथ या विरोध में खड़ा दिखने लगा। बदलती उदारवादी अर्थव्यवस्था के साथ मीडिया विचारधाराओं की अपेक्षा बैलेन्स शीट की चिंता करने लगा। सत्ताधारियों से अधिकाधिक लाभ पाने की होड़ हो गई। मतलब अब सत्ताधारी मीडिया की चैखट पर नहीं अधिकांश बड़े मालिक और संपादक सरकार के दरवाजे पर दस्तक देने लगे। कुछ क्षेत्रीय प्रकाशन इसके अपवाद हैं। उन्होंने अपनी तटस्थता, निष्पक्षता बरकरार रखी। इसे प्रेम-नफरत रिश्तों का दौर कहा जा सकता है। यानी अवसर, लाभ-हानि के साथ सत्ता और मीडिया के रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे।

इस पृष्ठभूमि में एक और बिजनेस समूह के मीडिया जगत में प्रवेश पर कष्ट क्यों होना चाहिए ? कोई अख़बार या न्यूज़ चैनल वित्तीय संकट में आने पर बिकता है और नया प्रबंधन नए पुराने स्टाफ को रखकर नए लक्ष्य रखता है तो इससे देश विदेश में मीडिया का प्रभाव और भारत की छवि ही बनेगी | सत्ता के पक्ष विपक्ष की स्वतंत्रता पर भी किसीको आपत्ति नहीं होनी चाहिए | लेकिन मीडिया की आड़ में अवैध व्यापार , कमाई और संदिग्ध विदेशी फंडिंग होने पर तो कानूनी कार्रवाई उचित ही कही जाएगी | लोकतंत्र में अमृत मंथन होने पर जहर भी निकलता है तो उसे पीने के बजाय नष्ट करना भी जरुरी होगा |

( लेखक आई टी वी नेटवर्क – इंडिया न्यूज़ और आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )