परम्परा और पर्व : क्या कहता है, भुजलिया / कजलिया पर्व !
डॉ. विकास कुमार शर्मा
यह भी बताऊँगा, लेकिन पहले आप ये बताओ कि वीर आल्हा- ऊदल को जानते हैं या नही? और न जानते हो तो जरा ये पँक्तियाँ पढ़िए।
एक को मारे, दुई मर जाएं,
तीजा खौफ खाए मर जाए!
मरे के नीचे जिंदा घुस रहे,
ऊँपर लाश लिए सरकाय!
बड़े लड़ैया महोबा वाले,
जिनसे हार गई तलवार!
गढ़ महोबा के आल्हा ऊदल,
जिनकी मार सही न जाए!
किसी ने इसे अतिशियोक्ति पूर्ण अलंकार का उदाहरण माना तो किसी ने अपने पूर्वजों की वीरगाथा। लेकिन कुछ भी मान लेने से आल्हा- ऊदल की वीरता तनिक भी कम होने वाली नही है। जितना मजा इन पंक्तियों को पढ़कर आया, इससे हजार गुना अधिक इसे सुनकर आयेगा।
आप सभी को वीरता और शौर्य के प्रदर्शन का पर्व भुजलिया/ कजलिया पर्व की हार्दिक शुभकामनायें..। अब पेश है भुजलिया या कजलिया की कहानी, मेरी जुबानी…
भुजलिया वास्तव में किसानों के द्वारा आने वाली फसल के लिए बीजों के अंकुरण को जाँचने परखने की एक प्राचीन कृषि वैज्ञानिक परंपरा भी है। यह रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया जाने वाला एक पारंपरिक उत्सव है। छिंदवाड़ा में यह विशेष रूप से मनाया जाता है। इस दिन छिंदवाड़ा में क्षेत्रीय अवकाश होता है। लेकिन इस त्यौहार की तैयारी शुरु होती है, छटमी तिथि से, छटमी (नाग पंचमी के दूसरे दिन) के दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को पलाश या माहुल पत्तों से बने हुये ढोने में भरकर उसमें गेहूं बो दिया जाता है, और अंधेरे स्थान पर ढक कर इन्हें रख दिया जाता है। अंधेरा भी बांस के बने बड़े डलिए/ टोकरे को उल्टा ढककर ऊपर कपड़ा डालकर बनाया जाता है। इनमे सबसे खास बात यह है कि महिलाओं की संख्या के बराबर डोने और पुरुषों की संख्या के बराबर दाढ़ी (लंबे पोंगली के आकार के दोने) वाले दोने भरे जाते हैं।
गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक पानी दिया जाता है। साथ ही अच्छे से देखभाल की जाती है। जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी। कजलिया की अच्छी ग्रोथ का अर्थ है फसल अच्छी होगी, और खराब ग्रोथ का अर्थ है, इस वर्ष फसल खराब होगी। चूँकि इस बार भुजलिया का विकास बहुत बढ़िया हुआ है तो किसानों के चेहरे प्रसन्न हैं। रक्षाबंधन के दिन एक उगे हुये दोने को निकालकर इसकी भी पूजा की जाती है, एवम इस पर रक्षा सूत्र बांधा जाता है। जो किसानों द्वारा फसलों व पेड़ो पर रक्षासूत्र बांधकर प्रकृति रक्षण की परंपरा का प्रतीक है।
ग्रामीण क्षेत्रो में भुजलिया को पूजा स्थल से निकालकर घर के द्वार पर स्थित झूले में झुलाते हैं। फिर ढोल नगाड़ों के साथ ग्राम के प्रधान/ पटेल/ मुकद्दम के घर पर एकत्र होते हैं। सभी के एकत्रित हो जाने के बाद इसे खूटने के लिये नदी या तालाब ले जाया जाता है।
इसके अलावा एक कहानी बुन्देलखंड की धरती से जुड़ी हुई है- कहा जाता है कि आल्हा की बहन चंदा श्रावण माह से ससुराल से मायके आई तो सारे नगरवासियोंं ने कजलियों (अंधेरे में उगाये गेहूं/ जवारे) से उनका स्वागत किया था, तब से ही कजलिया/ भुजलिया मनाया जाने लगा।
इन सबके अलावा एक और सत्य कथा बहुत प्रचलित है, जिसका मंचन भी आल्हा (रामलीला की तरह) के रूप में किया जाता है। हमारे छिंदवाड़ा में भी प्रतिवर्ष आल्हा ऊदल की वीरता का चित्रण कलाकारों द्वारा किया जाता है, फिर उनकी सेना की झांकी नगर में निकाली जाती है, और अंत मे युवतियों द्वारा कजलियों को नदी या तालाब से खूँट कर ले आया जाता है। और दोने वहीं विसर्जित कर दिये जाते हैं। इसकी कहानी जुड़ी हुई है, महोबा की राजकुमारी चन्द्रावली से। जब वे कजलिया सिराने नदी तट पर गयी थी, तब दिल्ली के राजा पृथ्वीराज उनका अपहरण करने अपनी सेना की टुकड़ी के साथ आ पहुँचे, तब आल्हा- ऊदल मलखान ने अपने साथियों के साथ वीरता पूर्वक लड़ते हुये पृथ्वीराज की सेना को परास्त कर दिया, फिर जीत के बाद खुशी के मारे युवतियों ने कजलिये को अपने नाखूनों से खूँट लिया और अपने साथ नगर ले आईं, तब से ही भुजलिया/ कजलिया खूटने की प्रथा चल पड़ी।
आल्हा- ऊदल की वीरता आज भी पूरे भारत मे आल्हा संगीत के रूप में सुनी और गायी जाती हैं।
ध्यान रहे कि मैहर वाली शारदा माँ के परम भक्त आल्हा ऊदल में 2 हाथियों के बराबर बल था, ऐसी कहानियाँ गांव देहात में अब भी सुनाई जाती हैं।
कजलिया या भुजलिया खूँटकर (उंगलियों से तोड़ना) युवतियाँ घर ले आती हैं। फिर घर के सभी सदस्य इसे एक दूसरे को देते- लेते हैं। सभी छोटे बड़ो का आशीर्वाद लेते हैं और बड़े छोटों केके कान में भुजलिया लगाकर लंबी उम्र का आशीर्वाद देते हैं। हम उम्र लोग भुजलिया का आदान प्रदान करके एक दूसरे के सुख दुख बाँटते हुये गले मिलकर इस त्यौहार को मानते हैं।।
लेकिन हम किसानों के हिसाब से देखा जाये तो भुजलिया को इस नजरिए से देखना पड़ेगा। लाइये आपके सारे गम, तकलीफे मुझे दे दीजिये और बदले में मेरी सारी खुशियाँ आप रख लीजिये। बिल्कुल यही मतलब है, भुजलिया के आदान प्रदान का…। इसी कारण अगर पूरे कुटुंब या रिश्तेदारी में किसी का स्वर्गवास हो जाता है, तो पूरे सामाजिक लोग व पड़ोसी उस परिवार में भुजलिया देने जाते हैं। इससे उस दुखित परिवार का हाल चाल भी जान लिया जाता है, और यदि उन्हें किसी प्रकार की कोई समस्या होती है तो सब मिलकर परिवार की उपयुक्त मदद भी कर आते हैं।
किसान परिवार आपस में भुजलिया का आदान प्रदान करके यह सन्देश भी देते हैं कि कभी कोई विपरीत समय आया तो मेरी उपज याने दाल तुम ले लेना, तुम्हारा चावल में ले लूंगा, ऐसा ही किसी का मक्का, किसी का गेंहू…. आदि, आदि। जब तक किसान परिवार में यह त्यौहार पनप रहा है, किसान परिवारों में आदान- प्रदान की रीति भी प्रचलन में बनी रहेगी। असल मायने में भाईचारे, और सयुक्त होने का एहसास दिलाता है यह भुजलिया का त्यौहार। अब मैं नासमझ तो इस त्यौहार का बस इतना ही मतलब समझ पाया, आप क्या समझे बताइये तो जरा….
धन्यवाद
डॉ. विकास कुमार शर्मा
वनस्पति शास्त्र विभाग
शासकीय महाविद्यालय चौरई,
जिला छिन्दवाड़ा (म.प्र.)