Travel Diary 6 : जहां भगवान शिव ने प्रथम तांडव किया, उस ॐ पर्वत के दिव्य दर्शन

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छठा दिवस-

Travel Diary 6 : जहां भगवान शिव ने प्रथम तांडव किया, उस ॐ पर्वत के दिव्य दर्शन

महेश बंसल, इंदौर

कई वर्ष पूर्व एक पर्वत की बर्फीली ढलान पर उकेरे “ॐ” के दिव्य चिन्ह की तस्वीर देखी थी —
मन में बिजली-सी कौंधी थी —
“प्रभु से बड़ा चित्रकार कौन हो सकता है?”

तभी से यह इच्छा मन में बस गई थी — उस अद्भुत ॐ पर्वत के साक्षात दर्शन की।इस भावना के साथ, जब यात्रा का अवसर आया, तो मैंने विशेष रूप से एक टी-शर्ट बनवाई — जिस पर ॐ पर्वत की छवि अंकित थी।उसी भावपूर्ण वस्त्र में, आज सुबह 7:30 बजे, थोड़े विलंब से हमारा कारवां नाभीढांग के लिए रवाना हुआ।तीन बार परमिट की जांच हुई।
पहली जांच चौकी पर सुरक्षा कर्मियों ने हिदायत दी — गरम टोपी, ऊनी कपड़े पहनें, ज्यादा घूमे-फिरे नहीं,
क्योंकि ऑक्सीजन की कमी हो सकती है।

कहीं पगडंडी, कहीं बहते पानी से गुजरती हमारी गाड़ियाँ —
फिर भी मन निडर, उत्साहित और शांत था।मानो कोई अदृश्य शक्ति हमें आश्वस्त कर रही थी —
“चलो, तुम सही दिशा में हो।”और पहुंचे – नाभीढांग (समुद्र तल से लगभग 4,000 मीटर)

🕉️ “यह वही है…”

उस सुबह हवा में कुछ विशेष था। ठंड की किरकिराती लहरों के बीच, रास्ते में ही जैसे किसी ने आकाश से एक मन्त्र फूँका हो —और फिर हमारी दृष्टि ठहर गई सामने पर्वत पर।बर्फ की उस सफेद चादर में, एक आकार था —
साफ़, पूर्ण और दिव्य।कोई ने बताया नहीं, कोई ने समझाया नहीं — पर सब जान गए, यह ॐ है।
ॐ — जिसे बोलने से पहले मौन चाहिए,सुनने के लिए भीतर एक रिक्त स्थान चाहिए।हल्की सी धूप में कारवां पहाड़ के रास्ते में मंजिल के पूर्व रूक गया।पता नहीं मंजिल तक पहुंचने पर बादलों की ओढ़नी से पूर्ण ॐ दिखाई दे – न दें …
अतः जी भर के इस दृश्य को मन में बैठा लें।विलम्ब से प्रस्थान करने का मलाल भी नहीं रहा। जी भरकर तस्वीरें ली, भगवान को धन्यवाद ज्ञापित किया।मंजिल की ओर कारवां बढ़ चुका था।

स्वागत द्वार से दिव्यता का प्रवेश

थोड़ी ही देर में हम नाभीढांग के पार्किंग स्थल पर पहुँचे।
वहाँ से लगभग 100 मीटर की सहज चढ़ाई पर एक लोहे का स्वागत द्वार बना है,
जहाँ लगी घंटी, भगवा ध्वज और तिरंगा,
मानो स्वयं शिव-पार्वती का आशीर्वाद लेकर हवा में लहरा रहे थे।

स्वागत द्वार के मध्य से
ॐ पर्वत का स्पष्ट और सटीक दर्शन हो रहा था — एक नहीं अपितु दो ॐ दिख रहे थे। चश्मा उतारकर साफ किया, फिर भी दो ॐ ही दृष्टिगोचर हो रहे थे।कोई भ्रम नहीं, कोई कल्पना नहीं —यह प्रकृति द्वारा साक्षात अंकित आध्यात्मिक संकेत था।यह प्रतीत हो रहा था मानोहिमालय के वक्ष पर ध्यानमग्न ऋषियों की चेतना इस “ॐ” के रूप में प्रकट हुई हो।वह कोई आकृति नहीं, एक अनुभूति थी.

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यह जानने की इच्छा हुई —
क्या यह केवल बर्फ की आकृति है?
या फिर सृष्टि का सबसे पुरातन नाद,
जो आज भी इस पर्वत पर अमर है?

यहाँ एक छोटे से चबूतरे पर स्थानीय शिवलिंग स्थापित था,
बिना किसी दिखावे के, अति शांत।
हमने साथ लाई पताकाएं वंदनवार रूप में बांधीं,
सीढ़ियों पर बैठकर कई श्रद्धालु ध्यान, भजन और साधना में लीन थे।
एक अधूरा निर्माण कार्य भी वहां था,
जो किसी भगीरथ प्रयास का प्रतीक जान पड़ा।

ॐ पर्वत – लोकश्रुति और आध्यात्मिकता

ॐ पर्वत का कोई शास्त्रीय उल्लेख नहीं,
पर इसकी लोकश्रुतियाँ और यात्रियों की अनुभूतियाँ इसे दिव्यता प्रदान करती हैं।

एक मान्यता है कि —
सृष्टि के प्रारंभ में जब कोई शब्द नहीं था,
तो ब्रह्मांड में पहली ध्वनि निकली — ॐ
वही आदि नाद, वही ऊर्जा —
जिसने सृष्टि की रचना की।

वेदों में कहा गया है:
“ॐ इत्येतदक्षरं इदं सर्वम्” –
(ॐ ही सब कुछ है)।

ऐसा माना जाता है कि
ऋषि अगस्त्य ने इस पर्वत पर मौन तप किया,
और उनकी साधना से प्रसन्न होकर
प्रकृति ने स्वयं ॐ को इस पर्वत पर अंकित कर दिया।

एक अन्य जनश्रुति है कि
जब भगवान शिव ने प्रथम तांडव किया,
तो डमरू की हर ध्वनि में “ॐ” की गूँज थी —
और उसी गूँज का अंश इस पर्वत पर जड़ित हो गया।

ॐ पर्वत का प्रत्यक्ष उल्लेख तो शास्त्रों में नहीं मिलता, परंतु ‘दिव्य ॐ चिन्ह युक्त शिखर’ का वर्णन कई तंत्र और योग ग्रंथों में है। माना जाता है कि यहाँ से योगियों को विशेष दिव्य ऊर्जा प्राप्त होती है।

जब प्रकृति भी साथ देती है

हम ॐ पर्वत के सामने लगभग दो घंटे रुके रहे —
और संयोग ऐसा कि पूरे समय
बादलों ने एक बार भी छवि को नहीं ढका।

मानो प्रकृति भी श्रद्धालुओं की भावनाओं का आदर कर रही हो।

 

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मन को तृप्त कर, आंखों में आभार और हृदय में संतोष लिए
हमने ॐ पर्वत को कोटि-कोटि प्रणाम किया
और लौट चले।

कालापानी – काली माता मंदिर

(समुद्र तल से लगभग 3,600 मीटर)

वापसी में हम रुके —
काली माता के पावन मंदिर में,
जिसे कालापानी या काली मंदिर कहा जाता है।

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यहीं से काली नदी का उद्गम होता है —
पर्वत से रिसते जल के एक छोटे कुंड से निकलकर
यह जल आगे जाकर नदी बनता है।

यहाँ एक विशाल त्रिशूल,
शिव–पार्वती की मूर्तियाँ,
और सामने की ओर वेदव्यास गुफा है —
जहाँ यह माना जाता है कि
वेदव्यास जी को माँ काली ने मंदिर निर्माण का निर्देश दिया था।

इस मंदिर की देखरेख ITBP (इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस) करती है —
यह केवल एक धार्मिक स्थान नहीं,
बल्कि श्रद्धा, सुरक्षा और संस्कृति का संगम है।

हमने आचमन किया, प्रणाम किया —
और नाभी की ओर लौट चले।

विदाई के क्षण

नाभी पहुँचकर दोपहर का भोजन लिया,
और फिर धारचूला के लिए निकल पड़े।

यहाँ आकर तीन दिन साथ रहे स्थानीय वाहन और उनके सारथियों से भावभीनी विदाई हुई,
और पंतनगर से आए अपने पहले वाहन और सारथियों से दूसरे दिन प्रातः में फिर से मिलन हुआ।

एक शिखर यात्रा पूर्ण

अब शेष 6 दिन की यात्रा देवभूमि उत्तराखंड का अवलोकन है।

आदि कैलाश और ॐ पर्वत —
दोनों ही हमारे जीवन की यात्राओं से परे,
एक अंतर्मन की यात्रा के पड़ाव थे।

इन दर्शन ने हममें केवल श्रद्धा ही नहीं,
बल्कि विनम्रता, मौन और चिरंतन शांति का बीज बो दिया।

(क्रमशः…)

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महेश बंसल, इंदौर

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