डॉ. प्रणव देवेन्द्र श्रोत्रिय की दो लघुकथाएँ

अमूल्य निधि (लघुकथा)

डॉ. प्रणव देवेन्द्र श्रोत्रिय

सोनल-“रजनी पुराने बर्तन अच्छे से साफ कर देना।”
“दीदी अचानक इन बर्तनों की याद क्या आ गई ?”
“कुछ नहीं दीपावली की सफाई में घर का पुराना सामान भी हट जाये तो अच्छा है।” दूर बैठी मालती माँ बीच में ही पढ़ना छोड़कर बोली- ” सोनल ऐसी क्या आफत आ गई जो घर के बर्तन बेच रही हो ? रुपयों कीसमस्या हो तो मुझसे कहो।”
सोनल – “ऐसी बात नहीं है माँ जी, घर में बर्तन कई वर्षों से बेकार पड़े हैं,सिर्फ जगह घेर कर बैठे हैं ऐसे में इनको बेचना ही उचित होगा।”
” बहू तुम्हारी यह सोच रही तो जल्द ही हमें भी वृद्धाश्रम भेज दोगी।”
” कभी नहीं, आप और पापाजी हमारी अमूल्य विधि है, माँ जी,आप दोनों के कारण ही हम सभ्य समाज में बड़े पदाधिकारी है। दोनों का आशीर्वाद मिलता रहे, हमारे लिए यही काफी है।
मालती-“सदा यू ही खिलखिलाती रहो।” आज माँजी के मस्तक पर संतोष की झलक साफ दिख रही थी।

देहरी लघुकथा

Pittu

गंगाबाई मोहल्ले में खेल रहे बच्चों को डांट कर भगा रही थी, “कालू ,मोहन चलो हटो यहां से, बहुत समय हो गया बदमाशी करते- करते जाओ और घर पर पढ़ाई करो।”
शांता- “क्यों बच्चों के पीछे अपना सिर खपाती हो थोड़ा खेल ही तो रहे हैं,इन्हें भी अपना बचपन खुशी से बिताने दो।”
गंगाबाई -“क्यों ना कहूं बच्चों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है क्या? बच्चों को छोटे से बड़ा किया है, मैं इनकी भलाई चाहती हूँ” कहते हुए वह साहूकार के यहां काम करने चली जाती है।
“आज देर कैसे हो गई?”
“मालिक रास्ता खराब था।”
“ठीक है आज अपना काम जल्दी खत्म कर देना।”
जी कहकर वह अपना कार्य करती रही। शाम का समय हो गया था। सेठ जी ने उसे बुलाकर मिठाई और रुपए दिए।
उसने भी शुभ दीपावली कहकर घर की राह ली। यहाँ आकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गई झोपड़ी की देहरी के आसपास दीपक जगमग आ रहे थें। वह कुछ सोचती है उसके पहले ही मोहल्ले की बाल मंडली ने आ घेरा और खुशी से कहा “शुभ दीपावली दादी”। गंगाबाई की खुशी का ठिकाना ना रहा।उन्होंने सभी बच्चों को प्यार से मिठाई खिलाई।

डॉ. प्रणव देवेन्द्र श्रोत्रिय

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