आइये पढ़ते हैं , इंदौर लेखिका संघ ,इंदौर से कुछ कथाएं { दूसरी किश्त}

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आइये पढ़ते हैं , इंदौर लेखिका संघ ,इंदौर से कुछ कथाएं { दूसरी किश्त}

लघु कथा

रिश्तों की अहमियत

निशा चतुर्वेदी

कल्पना ने अपने पति से कहा , सुनो जी ……अगले महीने आपकी दोनों बहनों के ससुराल में शादी है और अब तो विवाह की तारीख भी नजदीक आ गई है ……दोनों दीदी के यहां हमें कपड़े लेकर जाना है…… मैं कल बाजार गई थी …..दोनों दीदी के लिए साड़ियां ,जीजाजी व बच्चों के लिए कपड़े व अन्य सामग्री लेकर आई हूं … यदि आपके पास वक्त हो तो देख लीजिए….. फिर मुझे उनकी पैकिंग भी करनी है…..। पति ने अपने काम पर से ध्यान हटाते हुए जवाब दिया ….ठीक है ,चलो आज देख ही लेते हैं ……जल्दी से तुम साड़ियां, कपड़े व अन्य सारा सामान ले आओ…. मेरी दोनों बहनों के ससुराल का मामला है …..यदि लेन-देन में कुछ भी गड़बड़ी हो गई तो मेरी दोनों बहने क्या सोचेंगी… फिर , बहने भी तो मायके से ही अपेक्षाएं रखती है… पिताजी के जाने के बाद अब मेरा कर्तव्य है कि अपनी दोनों बहनों की भावनाओं का ख्याल रखूं…… । पति ने भावुक होकर अपने मन की बात पत्नी कल्पना से बांटना चाही । कल्पना झट से दूसरे कमरे में गई और सारे पैकेट दोनों हाथों में उठा कर ले आई । वह एक-एक पैकेट पति को खोल कर दिखाने लगी । सारे पैकेट का सामान देखने के बाद पति ने यह आश्चर्य प्रकट करते हुए कल्पना से पूछा ….तुमने बड़ी दीदी के ससुराल वालों की साड़ियां , पेंट ,शर्ट्स , बच्चों के कपड़े व अन्य सामान तो काफी अच्छा और महंगा खरीदा है .. मगर छोटी दीदी के ससुराल वालों के लिए खरीदे कपड़े और सामान काफी सस्ता व हल्की क्वालिटी का क्यों खरीदा ? मेरी दोनों बहनों के बीच ऐसा भेदभाव क्यों ? थोड़ा उत्तेजित होकर पति ने गुस्से से कहा …..मेरे लिए तो मेरी दोनों ही बहने बराबर है… तुमने उनकी भावनाओं का भी ख्याल नहीं किया…. तुमसे मुझे यह उम्मीद नहीं थी …! अब तो पति का गुस्सा सातवें आसमान पहुंच गया था .. थोड़ा झिझकते , कल्पना ने अपने पति को समझाते हुए कहा … अरे आप मेरी बात भी तो सुन लीजिए… वह मेरी भी तो ननंद है…. मैं भी तो कुछ सोच समझकर सारा सामान लाई हूं …..चूंकि बड़ी दीदी और छोटी दीदी के स्टेटस व रहन सहन के तरीके में बहुत अंतर है … बड़ी दीदी का ससुराल संपन्न है… उनका स्टेटस ,उनके रहन-सहन का तरीका काफी हाई-फाई है … उन्हें हल्के और सस्ते कपड़े पसंद नहीं आएंगे ….सो , मैं …..अपना पक्ष रखते रखते कल्पना थोड़ी रुक गई……फिर कहने लगी ….लेकिन छोटी दीदी का ससुराल सामान्य है ….उनके रहन-सहन का तरीका भी सामान्य है …… हम उन्हें जो भी देंगे वह प्यार से स्वीकार कर लेगी ….तो क्या रिश्तों की अहमियत उनके स्टेटस व रहन-सहन को देखकर आंकी जाती है……?…… अब पति के तेवर और बदले हुए थे …..!! उन्हें कल्पना के सोच पर बड़ा अफसोस हो रहा था …..!!!!

Swati Tiwari की kahani :‘कोई परिचित’ 

वन्दना पुणतांबेकर

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हवेली के खूबसूरत गार्डन से मोगरे के फूलों की महक मीरा के कमरे को महका रही थी।
वह अपने आनेवाले भावी शिशु की कल्पना में लीन थी। हुकुमचंद राजस्थान जैसलमेर के एक प्रसिद्ध मिर्ची के व्यापारी अपने वैभव आन-बान और शान का गुबार उड़ाते हुए हवेली में दाखिल हुए। उनके कदमों की आहट से सबके दिल दहल जाते। जब वह हवेली में प्रवेश करते तो सिर्फ हवाएं और विंड चाइम की आवाज ही सरसराती।
अपनी मूछों को ताव देते हुए हुकुमचंद कमरे में प्रवेश कर पास पड़ी आराम कुर्सी पर बैठ गए। तभी झुमरी कांपते हाथों से ट्रे में पानी लेकर उनके सामने हाजिर हुई। पानी का ग्लास मुंह में उडेलते हुए रौबदार आवाज में बोले- मीरा कैसी है..?,हुजूर अपने कमरे में आराम फरमा रही हैं।,
ठीक है.., प्रताप का फोन आया था…? तब वह कपकपाती आवाज में बोली- जी हजूर….।,”क्या कहा…?, “कुछ नहीं…., बहुरानी को मायके भेजने का कह रहे थे, “किसलिए.. जो कहा गया है,उसी पर अमल करो।
जापा मायके में नहीं यही होगा,कोई जरूरत नहीं यहां क्या कम लोग हैं, जो मायके जाना चाहती है।
,नहीं हुजूर यह बात तो कुंवर प्रताप बाबू ने कही थी।
हुकुमचंद आंखों की तेवरिया चढ़ाकर बोले- हमारे यहां ऐसा कोई भी रिवाज नहीं है। बहू कहीं नहीं जाएगी, अब के फोन आया तो हमसे बात करने को कहना।
गिलास की ट्रे लिए झुमरी अंदर चली गई। अंदर आते ही दुर्गावती पूछ बैठी-क्या कह रहे थे मालिक..?,
मालकिन मैं ना जाऊं उनके सामने जो मन में आया वह कुछ भी बोल देते हैं।
प्रताप बाबू का अबकी फोन आऐ तो आप ही बात कर लेना। दुर्गावती अंदर तक सहम गई बहू मीरा की डिलीवरी होने वाली थी।
धीरे-धीरे दिन नजदीक आ रहे थे। उन्हें वह दिन याद आया।
जब वह इस घर में बहू बन कर आई थी। उनकी आंखों से झर- झर आंसुओं का सैलाब बह निकला माता रानी की कृपा से सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। पहली बार जब वह पेट से थी।
वह रात चलचित्र की तरह उनकी आंखों के सामने नजर आने लगी। जब डिलीवरी का समय आया तो हुकुमचंद के शब्द उनके कानों को छलनी कर गए।
बेटी हुई तो गढ़वा दूंगा। इस हवेली में पहला बच्चा मेरे वंश का चिराग ही आना चाहिए।
मैंने नाम भी सोच लिया है,कुंवर प्रताप ही होगा मेरे इस हवेली का मालिक।
हवेली की जापे वाली धाय मां ने अंदर आने का साहस लड़खड़ाते कदमों से किया था।
मेरे मन की व्यथा को समझते हुए उसने प्रेम भरे स्पर्श से अपने हाथों को मेरे माथे पर रखकर अपना आशीर्वाद भरा हाथ मेरे सिर पर फेरते हुए ऊपर देख दुआ मांगने लगी। ऊपर वाले की कृपा तुझ पर बनी रहे लल्ली उसकी अनुभवी बूढ़ी आँखे इस घर की रीतियों के कारण अनेकों कफन दफन होते हुए देख चुकी थी।
अपने वंश रुतबे और शोहरत की खातिर न जाने कितनी बलिया इस हवेली की मिट्टी में दफन हो चुकी थी।सदियों से इस हवेली का रिवाज था।कि प्रथम पुत्र ही होना चाहिए। दुर्गावती की आंखों में आंसुओं की धारा बह रही थी।धाय मां उसके पैरों के नजदीक बैठ एक मीठा सा भजन गुनगुनाने लगी। ताकि दुर्गा के मन का अवसाद थोड़ा कम हो जाए।कमरे में अंगीठी जला दी थी। पल-पल दुर्गा की प्रसव पीड़ा बढ़ती जा रही थी। वेदना से हवेली की दीवारों भी इस रुदन की आवाज से गूंज रही थी। रात गहरा रही थी चारों और के सन्नाटे से एक भयनुमा माहौल बन रहा
था।दिसम्बर की सर्द रात में दुर्गा का जिस्म पसीने से नहा रहा था। अंगूठी की आग उसे सहन नहीं हो रही थी। धाय मां उसके अंतिम दर्द का इंतजार कर उसके पैरों के करीब बैठी उसे सहला रही थी।अचानक वह अंतिम घड़ी आ गई।नन्ही किलकारी से सारी हवेली गूंज उठी। धाय मां ने देखा कि एक नन्ही सी कली मुट्ठी कसे उसके हाथ में आ गई। दुर्गावती अर्ध मूर्छा में ही किलकारी की आवाज सुन रही थी।वह प्रसव वेदना को भूल चुकी थी। धाय माँ ने उस नन्ही कली को उसके करीब लाकर उसकी कोमल मुठ्ठियों को उसके हथेली पर रखा कोमल मुट्ठीयों का स्पर्श पाकर वह अपना सारा दर्द भूल आंखें खोल उसे निहारने लगी। मखमली नरम मुलायम मुठ्ठियाँ अपने अंश की आकृति को देख हल्की सी मुस्कान उसके चेहरे पर बिखर गई।तभी हवेली के बरामदे से कदमों की आहट ने दोनों को बैचेन कर दिया।दोनों की सांसे धोगनी की तरह चल रही थी।धाय माँ अपने आँचल को मुँह में भर अपनी सांसो को रोकने का भरपूर प्रयत्न कर रही थीं।
हुकुमचंद के जूतों की आवाज अब उसके और करीब और करीब आ रही थी। हुकुमचंद ने दरवाजे के बाहर से ऊंची आवाज में पूछा- क्या खबर है धाय मां…?, नन्ही सी लड़की को दुर्गा के पास सुलाकर वह लड़खड़ाते कदमों से डरते सहमते दरवाजे तक पहुंची। दरवाजे पर दस्तक लगातार आ रही थी। दरवाजे को खुलते ही कांपते आवाज में बोली- जी हुजूर कन्या रत्न की प्राप्ति हुई है बधाई…..! उसकी जुबान लड़खड़ा रही थी। हुकुमचंद उसे एक और ढकेलते हुए कमरे में प्रवेश कर गए और धाय मां की ओर इशारा कर
तेज कदमों से बाहर चले गए। कुछ देर में दुर्गावती की बेटी उससे दूर.. रात के अंधेरे में उसकी किलकारियां धीरे-धीरे दूर जाती नजर आई ।दुर्गावती का रुदन अंतर्मन के अंदर उतरकर घुट गया। उनकी सांसे उखड़ जाने को बेताब थी।
धाय मां ने सिर पर हाथ रखकर कहां- यहां की रीत को आज तक कोई नहीं तोड़ सका हे लल्ली …, अपने आप को संभालो और जीना सीखो, नारी की यही व्यथा आंचल में दूध और आंखों में पानी कह अंगीठी को उसके करीब सरका दिया। दुर्गावती की शारीरिक वेदना से मन की वेदना बहुत ही असहनीय थी। वह खामोश निगाहों से कमरे में लगे अलीशान झुमरो की लाइट को एकटक निहार रही थी।झूमर की वैभवता जो ऊँचाई पर गर्व से झूम रहा था।वह उस झूमर से अपनी तुलना कर रही थी।
अचानक झुमरी की आवाज उसके कानों पर पड़ी।
क्या हुआ…. मालकिन….कहां खो गईं..?
प्रताप बाबू का फोन आ रहा है, फोन हाथ में पकड़े सामने झुमरी को खड़ा देख वह अपनी तंद्रा से बाहर आई। फोन हाथ में पकड़ कर बोली-हां बेटा बोल, मां बाबूजी को कहकर मीरा को मायके भिजवा दो, उसकी डिलीवरी वहीं होगी, यह मेरा आखिरी फैसला है,
मेरी अगले सप्ताह की फ्लाइट बुक हो गई है, बाबूजी मुझसे सहमत नहीं है, लेकिन अब और नहीं यह मेरा पर्सनल मैटर है, मैं इसमें किसी का भी इंटरफेयर नहीं चाहता।
अब इस घर में पुराने रीतियों को नहीं दोहराया जाएगा। मीरा और मेरा जो भी पहला बच्चा होगा वह हमारे लिए अनमोल उपहार होगा, कह दो बाबू जी को… !
कुंवर प्रताप के निर्णय से दुर्गावती को बहुत आत्मबल मिला। वह साहस से उठकर बरामदे से होते हुए मीरा के कमरे में गई।
मीरा गूगल पर छोटी-छोटी नन्हीं लड़कियों की फ्रॉक देख मुस्कुरा रही थी।वह उसके मन की भावनाओं को समझते हुए उसके सिर पर प्यार भरा हाथ रख आशीर्वाद देकर बोली- खुश रहो।
और बाहर बरामदे में आकर मीरा के मायके वालों को फ़ोन लगाने लगी। आप आकर मीरा को डिलेवरी के लिए ले जाओ में उसे तैयार रखूंगी।
उसने निर्णायक आवाज में कहा। हुकुमचंद दहाड़ उठे-यह मेरी हवेली के रिवाज नहीं…., दुर्गा मना कर दो। दुर्गा बोली- तुम्हारे मना करने का अब कोई मतलब नहीं यह प्रताप का ही निर्णय है।
हुकुमचंद तेज आवाज में कह रहे थे।कि इस हवेली का पहला मेहमान वंश चलाने के लिए पोता ही होना चाहिए,ये बात तुम कान खोलकर सुन लो बहु…..!
बरामदे में हुकुमचंद की गूँजती आवाज मीरा के कानों को पिघलते शीशे की तरह छलनी कर गई।वह बैठी थरथराने लगी। दुर्गा देवी बहू से बोली-“तुम डिलेवरी के बाद मायके से सीधे प्रताप के पास चली जाना इस हवेली में आलीशान समान भरा पड़ा हैं।संवेदनाएं नहीं…..
तुम्हें पहली बार जो भी होगा वह मेरे लिये अनमोल उपहार होगा। सास के निर्णायक शब्दों को सुन मीरा अलमारी से कपड़े निकालकर सूटकेस में भरने लगी।आज उसे सास में अपनी माँ का रूप दिखाई दिया।आज पहली बार मीरा ने अपनी सास का यह रूप देखा।आज वर्षो पुरानी रीत को मिटाने का एक नारी का साहस देख मीरा उत्साह से चहकने लगी।
तभी बाग की खुशनुमा बयार बरामदे में प्रवेश कर गई।चिड़ियों की चहचहाहट इतनी तेज हो गई।कि उस चहचहाहट ने हुकुमचंद के विचारों को मौन कर दिया।आज प्रकृति भी इस हवेली के प्रथम अनमोल उपहार के आने इंतज़ार करने लगी।चिड़ियों का कलरव एक खुशनुमा त्यौहार की प्रतीत हो रहा था।

आइये पढ़ते हैं , इंदौर लेखिका संघ ,इंदौर से कुछ कथाएं (pratham kisht )

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जीने की कला सबको सिखाती है गीता