दिल्ली की वो फीकी गैर-सरकारी चाय का स्वाद!

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सच कहूँ तो दिल्ली जाना मुझे कभी भाता नहीं है। अक्सर होने वाले ट्रेफ़िक जाम, इन दिनों अक्सर फैल जाने वाले स्मॉग और मौसम में ठंड और गर्मी के अतिरेक! भला इन सबके चलते कौन अपनी मर्ज़ी से दिल्ली जाना चाहेगा! ख़ुशवंत सिंह के लिखे उपन्यास ‘दिल्ली’ को पढ़कर, जिसमें एक नपुंसक पात्र के ज़रिए ख़ुशवंत सिंह ने बड़ा दिलचस्प कथानक रचा था, मुझे तब भी ये समझ नहीं आया कि भला किस कारण से लेखक को दिल्ली से इतना सम्मोहन हो सकता है। ज़ौक़ के शेर को भी याद कीजिए :

‘इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़दरे सुख़न,
कौन जाए ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़ कर!’

ये उन्होंने दिल्ली के उस काल खंड में लिखा था, जब नादिर शाह और अब्दाली के हमलों से दिल्ली की हुकूमत हलाकान थी और लखनऊ और दक्कन के हैदराबाद में नई ताक़तें अपने पैर जमा रही थीं, तो न जाने किन कारणों से ज़ौक़ दिल्ली की मुहब्बत के गिरफ़्त में थे! लेकिन, सरकारी मुलाजिम होने के नाते आप इसे कितना ही नापसंद करो, दिल्ली शासकीय कामों से जाना ही पड़ता है! कभी न्यायालय सम्बन्धी तो कभी मीटिंग। इन सबसे परे यदि अपनी मर्ज़ी से दिल्ली जाने का अवसर आए, तो मेरी राय में दिल्ली जाने का सबसे मुफ़ीद समय है, नवम्बर और फ़रवरी के महीने! दिल्ली का मौसम इन महीनों जैसा ख़ुशगवार होता है फिर कभी नहीं रहता। यदि आप फ़रवरी माह में दिल्ली जा रहे हैं, तो राष्ट्रपति भवन, जो कभी वायसराय हाउस के नाम से जाना जाता था में स्थित मुग़ल गार्डन को देखने का मौक़ा मिल सकता है।
सन 1911 में दिल्ली दरबार के इस फ़ैसले के बाद कि राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाई जाए वायसराय के लिए एक नया भवन बनना शुरू हुआ। रायसीना पहाड़ी पर चार सौ एकड़ का क्षेत्र सुरक्षित किया गया और इंग्लेण्ड से प्रसिद्ध आर्किटेक्ट लुटियंस को इसके निर्माण के लिए बुलाया गया। बीस वर्षों में ये बनकर तैयार हुआ और सन 1931 में इसका उदघाटन हुआ। कहते हैं लेडी हार्डिंग ने लुटियंस से कहा था कि इससे लगा हुआ एक ख़ूबसूरत बग़ीचा भी बने, जो कश्मीर और आगरे में स्थित मुग़ल गार्डन जैसा ही सुंदर हो! लिहाज़ा राष्ट्रपति भवन से सटे 15 एकड़ क्षेत्र में विलियम मस्टो की देखरेख में क़रीब 1929 में ये बनकर तैयार हुआ। चार बाग़ की तर्ज़ पर बने इस बेहद सुंदर गार्डन में मुग़ल और इंग्लिश दोनों आर्किटेक्ट का सुंदर प्रयोग किया गया है। औषधीय पौधों से लेकर ट्युलिप तक अनेक पुष्पों से सज़ा ये बग़ीचा दरअसल अपने गुलाबों के लिए मशहूर है, जो संयोग से इन्हीं महीनों में खिलते हैं।
नौकरी के शुरुआती दौर में, जब दिल्ली जाना होता तो मध्यप्रदेश भवन और मध्यांचल (जो अब छत्तीसगढ़ भवन के रूप में जाना जाता है) से रुकने की ताकीद करने पर एक ही जवाब मिलता जगह नहीं है, एनओसी ले लो। एनओसी लेने पर आप दिल्ली की किसी भी होटल में रुककर उसका किराया टीए बिल में क्लेम कर सकते थे। पर, ये किराया भी भारी पड़ता था। ऐसे में किसी जानकार मित्र ने कहा की एनवीडीए के गेस्ट हाउस में कोशिश करने पर जगह मिल जाती है। मैंने अगली बार यही रास्ता आज़माया और सचमुच सस्ता, सुलभ और साफ़ सुथरा कमरा मिल गया। काम निपटाकर आराम से सोए, सुबह उठकर बेल बजाई तो ख़ानसामा का सहायक हाज़िर हो गया। मैंने चाय की दरयाफ़्त की, तो उसने पूछा सरकारी या ग़ैर सरकारी? मैंने सोचा रिज़र्वेशन तो नर्मदा विभाग के दोस्तों से बोल कर करवा लिया है, पर चाय और खाने का पैसा तो खुद देना चाहिए! लिहाज़ा मैंने कहा ग़ैर-सरकारी! थोड़ी देर बाद चाय आई तो पहले ही घूँट पर पाया कि ये तो फीकी चाय ले आया! मैंने बटलर से कहा भाई शक्कर क्यों नहीं डाली? वो बोला मैंने तो पूछा था सरकारी या ग़ैर-सरकारी तो आपने ही कहा था ग़ैर-सरकारी तब मुझे समझ आया की सरकारी से तात्पर्य शक्कर से था सरकारी से नहीं!