लोक विमर्श:भाषा की आत्मा ही नहीं, अस्थि-मज्जा भी हैं बोलियां

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लोक विमर्श:भाषा की आत्मा ही नहीं, अस्थि-मज्जा भी हैं बोलियां

भाषा और बोली के सामर्थ्य को लेकर चल रहे विमर्श में हरिवंशराय बच्चन जी की ‘सोन मछरी’ व ‘महुआ’ याद आ गया।

यदि विंध्यवासी हैं तो कभी न कभी ढिमरहाई लोकधुन जरूर सुनी होगी..।

दरअसल हमारी बोली का भूगोल वृस्तित है..नाम चाहे जो दें पर..विंध्य/बघेलखण्ड के अलावा..आधे महाकोशल (कटनी-सिहोरा) बाँदा, इलाहाबाद, प्रतापगढ़, फतेपुर, जौनपुर, एटा, मिरजापुर, इटावा हाथरस, फैजाबाद, लखनऊ के ग्राम्यांचल में लगभग एक सी बोली है..सिर्फ़ लहजे में उतना ही अंतर है जितना नागौद(सतना) और हनुमना, चाकघाट (रीवा) की बोली में…।

अँग्रेजों (ग्रियर्सन) का भाषाई सर्वे और बोलियों का नामकरण..फ्राड है..लेकिन हमारे हिंदी हृदय सम्राट लोग उसी को ब्रह्मवाक्य माने बैठे हैं…।

पढ़िए व गुनगुनाइए बच्चन जी का वह गीत जो हमारी ढिमरहाई लोकधुन में है….

सोन मछरी

स्त्री

जा, लाबा, पिया,नदिया से सोन मछरी।
पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी।
जा, लाबा, पिया, नदिया से सोन मछरी।
जिसकी हैं नीलम की आँखे,
हीरे-पन्ने की हैं पाँखे,
वह मुख से उगलती है मोती की लरी।
पिया मोती की लरी; पिया मोती की लरी।
जा, लाबा, पिया, नदिया से सोन मछरी।

पुरुष

सीता ने सुबरन मृग माँगा,
उनका सुख लेकर वह भागा,
बस रह गई नयनों में आँसू की लरी।
रानी आँसू की लरी; रानी आँसू की लरी।
रानी मत माँगो; नदिया की सोन मछरी।

स्त्री

जा, लाबा, पिया, नदिया से सोन मछरी।
पिया, सोन मछरी; पिया,सोन मछरी।
जा, लाबा, पिया, नदिया से सोन मछरी।
पिया डोंगी ले सिधारे,
मैं खड़ी रही किनारे,
पिया लेके लौटे बगल में सोने की परी.
पिया सोने की परी नहीं सोन मछरी।
पिया सोन मछरी नहीं सोने की परी.

पुरुष

मैंने बंसी जल में डाली,
देखी होती बात निराली,
छूकर सोन मछरी हुई सोने की परी।
रानी, सोने की परी; रानी, सोने की परी
छूकर सोन मछरी हुई सोने की परी।

स्त्री

पिया परी अपनाये,
हुए अपने पराये,
हाय! मछरी जो माँगी कैसी बुरी थी घरी!
कैसी बुरी थी घरी, कैसी बुरी थी घरी।
सोन मछरी जो माँगी कैसी बुरी थी घरी।

जो है कंचन का भरमाया,
उसने किसका प्यार निभाया,
मैंने अपना बदला पाया,
माँगी मोती की लरी, पाई आँसू की लरी।
पिया आँसू की लरी,पिया आँसू की लरी।
माँगी मोती की लरी,पाई आँसू की लरी।

जा, लाबा, पिया, नदिया से सोन मछरी।
पिया, सोन मछरी; पिया, सोन मछरी।
जा, लाबा, पिया, नदिया से सोन मछरी।

एक और लोकगीत सुने जो हमारे ही रेवांचल की प्रचलित धुन है..शादी-ब्याह में मंडप(मड़वा) तैयार करने के अउसर की…

महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के।
यह खेल हँसी,
यह फाँस फँसी,
यह पीर किसी से मत कह रे।
महुआ के
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के।

अब मन परबस,
अब सपन परस,
अब दूर दरस,अब नयन भरे।
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के।

अब दिन बहुरे,
अब जी की कह रे,
मनवासी पी के मन बस रे।
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के।

घड़ियाँ सुबरन,
दुनियाँ मधुबन,
उसको जिसको न पिया बिसरे।
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के।

सब सुख पाएँ,
सुख सरसाएँ,
कोई न कभी मिलकर बिछुड़े।
महुआ के,
महुआ के नीचे मोती झरे,
महुआ के।
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