सचिन को औकात दिखाने रचा गया राजस्थान में नाटक !

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कांग्रेसियों और गांधी परिवार को बहुत बुरा लगता है, जब समीक्षक,आलोचक यह कहते हैं कि सोनिया-राहुल-प्रियंका की राजनीतिक समझ अपेक्षित रूप से कमजोर है। वे अपनी तरफ से कोई भी महत्वपूर्ण फैसला लेने में सक्षम नहीं हैं। उन्हें हर कदम पर सलाहकार की जरूरत होती है और वे अपनी समझ और स्वार्थ से राय देते हैं। राजस्थान की राजनीति जिस तरह से यकायक उकड़ू बैठ गई,उसके पीछे यही बात है। सतह पर नजर आ रही कांग्रेस की कलह अपरिपक्व राजनीति की एक और मिसाल बन चुकी है। जानकार यह कह रहे हैं कि अध्यक्ष तो अभी-भी अशोक गेहलोत ही बनेंगे। वह तो सचिन पायलट को उसकी औकात दिखाने के लिये यह नाटक खेला गया, जिससे संदेश जाये कि राजस्थान के अधिसंख्य कांग्रेस विधायक तो उसे चाहते ही नहीं तो उसे मुख्यमंत्री कैसे बना दिया जाये? यदि वाकई ऐसा ही हुआ है तो यह इस सदी का सबसे बड़ा राजनीतिक मजाक कहलायेगा।


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कितनी विचित्र बात है कि पहले अशोक गेहलोत को कांग्रेस के अध्यक्ष पद का दावेदार बनाने की तैयारी होती है। फिर वे सोनिया और राहुल से मिलकर सहमति देते हैं। फिर सामने आता है कि वे अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों रहना चाहते हैं,जो आलाकमान को पसंद नहीं। फिर दिग्विजय सिंह राहुल की यात्रा छोड़कर दिल्ली जाकर सोनिया से मिलते हैं। फिर गेहलोत भी दिल्ली,केरल की परिक्रमा कर जयपुर लौटते हैं। वहां कांग्रेस के पर्यवेक्षक पहुंचते हैं। तब गेहलोत समर्थक करीब 90 विधायक विधानसभा अध्यक्ष को संयुक्त पत्र में इस्तीफा सौंप देते हैं, जिसका साफ आशय यह होता है कि गेहलोत नहीं तो वे भी नहीं । प्रकारांतर से सचिन पायलट किसी कीमत पर नहीं । पर्यवेक्षक दिल्ली लौटकर गेहलोत को तो पाक-साफ करार देते हैं, लेकिन खाना-पूरी के लिये तीन बकरे ढ़ूंढ लिये जाते हैं। तब एक बार फिर संदेश दिया जाता है कि अध्यक्ष तो अशोक गेहलोत ही बनेंगे। वह तो सचिन पायलट को बताना था कि विधायक उन्हें मुख्यमंत्री देखना नहीं चाहते ।

सचिन को औकात दिखाने रचा गया राजस्थान में नाटक !

कांग्रेस आलाकमान और अशोक गेहलोत को यदि ऐसा करना भी था तो उसके दूसरे ऐसे अनेक तरीके थे। मसलन, अशोक गेहलोत ससम्मान मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते। विधायक दल का नेता आलाकमान की देखरेख में विधायक ही चुनते, जो पायलट तो नहीं होते। गेहलोत अध्यक्ष पद का निर्वाचन पत्र दाखिल करने पर ध्यान लगाते। आम तौर पर विधायक उसे ही नेता चुनते हैं,जो बताया जाता है। यूं तो विधायकों की पसंद को मुख्यमंत्री न बनाने की परंपरा भी रही ही है। मप्र में 1980 में अजुर्नसिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था, जबकि विधायकों ने शिवभानुसिंह सोलंकी को नेता चुना था। आठ-दस विधायकों के दम पर सचिन पार्टी छोड़कर चले भी जाते तो न तो सरकार गिरा सकते थे, न भाजपा के सहयोग से सरकार बना सकते थे। कांग्रेस भी उन्हें आश्वस्त कर सकती थी कि अगले चुनाव में यदि कांग्रेस बहुमत लाती है तो उन्हें ही मुख्यमंत्री बनाया जायेगा। इतना तो आलाकमान भी जानता ही है कि राजस्थान में आम तौर पर लगातार दो बार किसी दल की सरकार नहीं बनती रही है। मुझे लगता है, सांप भी मर जाता और लाठी भी सलामत रहती। जनता और मीडिया में जो तमाशा मचा,उससे आसानी से बचा जा सकता था।

क्या यह वाकई राजनीतिक खेल है या नासमझी,हठधर्मी,अपरिपक्वता की ऐसी मिसाल है, जो न पहले कभी सामने आई, न ही बाद में आसानी से मिलेगी। कांग्रेस ने इस पूरे मामले में हाल-फिलहाल तो अपनी इकन्नी कर ली। इस बीच कभी कमलनाथ तो कभी दिग्विजय सिंह दिल्ली बुलाये जाते हैं तो कभी नये नाम बाजार में छोड दिया जाते हैं। कांग्रेस है या किसी गांव की सहकारिता समिति या ग्राम पंचायत, जिसमें प्रत्याशी तो घूंघट वाली बनती है और कुर्सी पर साफे वाला बैठता है और गांव में रौब छोरा जमाता है। इतनी लाचारगी एक राष्ट्रीय और प्राचीन दल के लिये अफसोस की बात है।

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यूं देखा जाये तो कांग्रेस का अध्यक्ष कौन बने, यह कांग्रेस की ही चिंता और चयन का विषय होना चाहिये, लेकिन भारतीय लोकतंत्र की खासियत और खसलत भी यही है कि जिसे कोई लीजे-दीजे नहीं वो भी फटे में पैर डालने को बेताब रहता है। ऐसा इसलिये कि इससे देश में लोकतंत्र की मजबूती और कमजोरी का पता चलता है। यह ठीक वैसा ही ही है, जैसा क्रिकेट मैच के वक्त चाय-पान के खोमचे पर टीवी में प्रसारण देखते हुए प्रत्येक दर्शक विशेषज्ञ की भांति टिप्पणी करते हुए बताता है कि फलां ने यह बाल छोड दी होती तो आउट नहीं होता। इसलिये कांग्रेस के कर्ता-धर्ताओं को आंतरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिये जहां चुनाव का प्रहसन खेलना जरूरी है, ,वहीं जनता के बीच संदेश देना भी आव‌श्यक है कि वे पारदर्शी तरीके से चयन करेंगे, जिसमें परिवारवाद और चाटुकारिता को जगह नहीं होगी, बल्कि सर्वथा योग्य को ही प्राथमिकता मिलेगी। अभी तो कांग्रेस इस तरह का संदेश देने में विफल रही है।

फिर वही सवाल कायम है कि आगे क्या ? इस पर से काफी हद तक परदा 30 सितंबर की शाम तक उठ जायेगा और 8 अक्टूबर को तो परिदृश्य पूरी तरह स्पष्ट हो ही जायेगा। यहां गांधी परिवार के नजदीकी लोगों की तरफ से एक बात दमदारी से कही जा रही है कि कुछ भी हो जाये, गांधी परिवार तो इस बार अध्यक्ष पद स्वीकार नहीं करेगा। अब यदि गेहलोत को ही जिम्मेदारी दे दी तो यकीनन यह कांग्रेस का वजन कम करेगी। यूं भी वे उम्र और स्वास्थ्य के मद्देनजर बेहतर विकल्प तो कतई नहीं थे। दिग्विजय सिंह को आगे करना, हिदुओं को पूरी तरह से कांग्रेस से दूर करने का शर्तिया सामान जुटाना होगा। वैसे देखा जाये तो देश भर में समान रूप से लोकप्रिय और कांग्रेसियों के बीच ही स्वीकार्य तो कोई नाम नजर नहीं आता। बेशक,कमलनाथ उम्दा विकल्प हो सकते थे, किंतु हर बार वे मध्यप्रदेश छोड़ने से साफ इनकार कर चुके हैं। फिर वे भी स्वास्थ्य के लिहाज से राष्ट्रीय स्तर की जिम्मेदारी लेना नहीं चाहेंगे। उन्हें अभी तो मप्र में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस याने अपनी बेहद संभावनायें नजर आ रही हैं। वे एक बार फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिये आश्वस्त हैं तो अवसर भी देख रहे हैं।

इसलिये मानकर चलिये कि कोई चमकदार नाम तो कांग्रेस के पास नहीं है। तो फिर अशोक गेहलोत ही क्या बुरे हैं? यूं भी रबर की मोहर बनकर ही अध्यक्ष को रहना है तो सीधे गांधी परिवार को बागडोर थाम लेना चाहिये, क्योंकि इस दिखावे से जनता को तो फर्क पड़ने वाला नहीं और कांग्रेसियों को वैतरणी पार करने के लिये गांधी नाम की पतवार हमेशा लगती रही है।