मोरबी की मौतों ने मन को मार सा दिया है …
गुजरात के मोरबी की यह घटना है। झूलता पुल टूट गया और पुल पर पिकनिक मना रहे लोग डूबकर मर गए। 143 साल पुराने पुल ने करीब इतने ही लोगों की जान डकार ली। जान पुल ने नहीं, बल्कि इसके सर्वेसर्वा बने सिपहसालारों ने ले ली। पुल के मेंटेनेंस पर हाल ही में दो करोड़ रुपए खर्च हुए थे। पिछले छह महीने से बंद पड़े पुल को 26 अक्टूबर को गुजराती नववर्ष पर खोल दिया गया था। नगर निगम ने पुल की मजबूती की जांच भी नहीं की। सब कुछ कंपनी ने मनमाने ढंग से कर लिया। पत्रकार वार्ता कर पुल के शुरू करने का ऐलान भी किया, पर खबर नगर निगम के अफसरों और कर्ताधर्ताओं तक नहीं पहुंची। शायद आंखों में दवा डालकर पांच दिन गुजार दिए हों, जिससे अखबार पढ़ने के काबिल न रहे हों। कानों में रूई लगी हो तो सुन भी न पाए हों। और दिमाग भी काम न कर पा रहा हो, ताकि ऐसी किसी गतिविधि पर संज्ञान लेने का सोच सकते। टिकटों की मनमानी बिक्री से क्षमता से बहुत ज्यादा लोग पुल पर चढ़ गए, हादसा हो गया और लोग मर गए। अब होनी थी सो अनहोनी हो गई।
जांच होगी, मुकदमा चलता रहेगा। घटना के बाद मोदी का एक वीडियो वायरल हुआ। पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान एक सभा का प्रधानमंत्री मोदी का वह वीडियो, जिसमें वह उस समय पश्चिम बंगाल में हुए किसी हादसे का जिक्र कर रहे हैं। कह रहे कि पश्चिम बंगाल की सरकार की करनी का फल उसे भोगना पड़ेगा। वीडियो वायरल करने वालों का टारगेट गुजरात की भाजपा सरकार और खुद मोदी हैं। पर पश्चिम बंगाल के मतदाताओं ने भी हादसे और मौतों को दरकिनार करते हुए फिर ममता सरकार की ताजपोशी कर दी। और हो सकता है कि मतदाता गुजरात में भी फिर भाजपा सरकार की ताजपोशी कर दें। पर सवाल यह है कि हादसे के बाद जिस राज्य में जिस दल क सरकार हो, उन पर निशाना साधकर मामले की इतिश्री कर ली जाए। जिनके परिजन गए हैं, क्या उनके परिवार के लोग मातम मनाते रहें और पूरा देश अपने-अपने तरीके से पिकनिक मनाता रहे।
बात मोरबी और गुजरात की नहीं है। बात पश्चिम बंगाल और ममता सरकार की नहीं है। बात राजस्थान और अशोक गहलोत सरकार की नहीं है। बात पंजाब और मान सरकार की नहीं है। बात जगह-जगह के हादसों पर विपक्ष की प्रतिक्रियाओं के तात्कालिक वीडियो की नहीं है। बात तो भारत देश की है। बात तो अंजाम भुगत रही देश की सवा सौ करोड़ से ज्यादा आबादी की है। बात तो पैसों की बर्बादी के बाद असुरक्षा में जीने को मजबूर करदाताओं की है। बात तो उन निर्दोषों की है, जो बेवजह मरने को मजबूर हैं। यहां मरने वाले न कौरव दल के हैं और न पांडव दल के हैं। यहां मौत के महाभारत के दो पक्षों का हिस्सा बनकर जीवन और मौत, विजय और पराजय का स्वेच्छा से वरण करने का मानस किसी का नहीं है। यहां अलग-अलग नाम के शंख बजाकर और धनुष-बाण टंकार कर युद्ध की घोषणा नहीं होती। यहां तो हादसे होते हैं लापरवाही से और जानें जाती हैं बेकसूरों की।
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मातम मनाते हैं मृतकों के परिजन पर बाकी जिंदगी अपने तरीके से पटरियों, सड़कों और जहाजों में सामान्य तौर तरीकों से दौड़ती रहती है। कोई वजहों में जाने की जेहमत भी नहीं उठाता। और वजहें मालूम भी हों, तो उन पर कफन डालकर आगे बढ़ने में भी देर नहीं लगाता। क्योंकि सभी को मालूम है कि यहां पांडव और कौरव दल का सरोकार नैतिकता और अनैतिकता से कतई नहीं है। यहां पांडव और कौरव दल का मतलब ईमानदारी और भ्रष्टाचार से कतई नहीं है। यहां पांडव और कौरव दल का मतलब सज्जनता और दुर्जनता से कतई नहीं है। यहां तो अब सब कुछ मिला जुला सा है। खिचड़ी सी बन गई है, जिसमें चावल और दाल का अलग-अलग अस्तित्व नहीं बच पाया है। गुण-दोष की छंटनी नहीं की जा सकती। सुर और असुर की लकीर मिट गई है। अब तो जाकी रही भावना जैसी, वैसी मूरत देखते रहो और जब जो हादसा हो जाए सो उस पर भी वैसी ही प्रतिक्रिया देते रहो। उसमें कोई अपना शामिल हो तो सच में मातम मनाते रहो वरना झूठे आंसू बहाते रहो। इस हादसे में एक बात को बड़ी प्रमुखता से प्रचारित किया जा रहा है कि सांसद के एक दर्जन लोग शामिल थे। जानकारी तक यह ठीक है लेकिन इसके जरिए यह भी बताया जा रहा है कि हादसे में मातम मनाने को मजबूर सांसद भी है।
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बात इतनी सी है कि भारत में जो भी अच्छा होगा, उसकी अच्छाई हर भारतवासी के हिस्से में आएगी। भारत में जो बुरा होगा, उसकी बुराई भी हर भारतवासी के हिस्से में आएगी। कोई आज अनुभव करेगा, कोई कल भुगतेगा और कोई परसों, यह सिलसिला तो चलता रहेगा। पर यह पंक्तियां हमें आइना दिखाती हैं कि – करता था तो क्यों रहा ,अब काहे पछताय , बोया पेड़ बबूल का ,आम कहाँ से खाय…।
बात हमारे भारत देश की है, हर भारतवासी की है। सवाल और जवाब यही है कि हम जब जिम्मेदार बनेंगे तभी हम और हमारे लोग ऐसे हादसों से बचेंगे…। मोरबी की मौतों ने मन को मार सा दिया है … किसी का दम मां के गर्भ में ही निकल गया और कोई ना चाहते हुए भी बेमौत मर गया…!