जब 2014 में केंद्र में भाजपा सरका्र पदारूढ़ हुई तो कांग्रेस व अन्य मुस्लिम तुष्टिकरण समर्थक राजनीतिक दल जोर-जोर से बांग देने लगे कि भारत अब हिंदू राष्ट्र बना दिया जायेगा, जहां मुस्लिमों के लिये कोई जगह नहीं होगी या संघ और भाजपा मुस्लिमों को देश से निकल जाने या अलग देश बनाने को कहेंगे। आठ बरस का अच्छा-खासा समय बीत गया, लेकिन संघ-भाजपा के किसी तिनके बराबर हिस्से से इस तरह की कोई आवाज,मांग नहीं उठाई गई। इससे क्या संदेश निकलता है? संघ-भाजपा ऐसा कभी नहीं चाहते थे और उन्होंने कभी किसी भी मंच से या अपने चुनाव घोषणा पत्र में इस तरह की बात का जिक्र नहीं किया। तो मतलब साफ है-यह उन राजनीतिक दलों का साजिशाना अभियान है, जो वे देश के मुस्लिमों के मन में गहरे बिठा देना चाहते हैं, ताकि उनके दिल-दिमाग में यह जहर उतर जाये और वे भाजपा के खिलाफ लामबंद हो जायें और इन दलों के पक्ष में बने रहें। भाजपा- संघ ने मुस्लिमों के खिलाफ तो कभी कोई पहल नहीं की, किंतु सच तो यही है कि सम्भवतः इसी दुष्प्रचार की वजह से मुस्लिम समुदाय आज भी कांग्रेस,राष्ट्रवादी कांग्रेस, समाजवादी पार्टी,बसपा,तृणमुल कांग्रेस वगैरह की तरफ झुकाव बनाये हुए हैं।वैसे देखा जाये तो संघ नेतृत्व की ओर से तो हमेशा अखंड भारत की पैरवी की जाती है। इसका मतलब एक और पाकिस्तान का कीड़ा तो संघ-भाजपा विरोधियों के दिमाग में कुलबुलाता है।
अब हमें यह समझ लेना चाहिये कि कतिपय राजनीतिक दल जातिगत वैमनस्य बढ़ाने, तुष्टिकरण अपनाने और सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़े रहने पर ही अपनी ऊर्जा खर्च करते हैं। वे लोक कल्याण के नीतिगत तरीके अपनाकर अपना जनाधार बढ़ाने का सोचते ही नहीं । इन बीते आठ बरसों में देश के बहुसंख्यक समाज और अल्पसंख्यस समुदाय ने काफी हद तक इस बात को समझ लिया है। कुछ बरसोबरस का मानस, कुछ धार्मिक अड़चनें,कुछ अशिक्षा का दुष्प्रभाव और कुछ खुद की तरफ से खड़े किये गये दुराभाव का ही असर है, जो इस वर्ग को भाजपा की तरफ खिसकने नहीं देता। जिस दिन परिस्थितियां अनुकूल होंगी, वे अपनी मान्यतायें बदलने में देर नहीं करेंगे।
2014 में देश से कांग्रेस शासन की बिदाई के वक्त यह सोचा गया कि वह जल्दी ही खेल में वापसी करेगी। 2019 के चुनाव परिणामों ने उस संभावना पर जब पूर्ण विराम लगा दिया तब कांग्रेस ने अपने चिर-परिचित तुरुप के पत्ते को सामने कर दिया। वह है हिंदू-मुस्लिम की राजनीति।उसने शोर मचाया कि केंद्र में और जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां मुस्लिमों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। क्या भेदभाव किया जा रहा है, इसकी कोई प्रमाणित मिसाल किसी के पास नहीं है। सरकार द्वारा संचालित किसी भी योजना से उन्हें वंचित नहीं किया। नागरिक के तौर पर उनके किसी अधिकार में कटौती नहीं की गई। 20 करोड़ से अधिक आबादी के बावजूद उनका अल्प संख्यक दर्जा बरकरार रखा गया है।तो फिर कैसा भेदभाव किया जा रहा है ?
कुछ लोग दबी जबान कहते है कि भाजपा मुस्लिमों से पाकिस्तान जाने का कभी-भी कह सकती है।यह भी कि वे भारत से चले जायें, फिर कहीं भी जायें। मुझे लगता है, इससे अधिक गैर जिम्मेदारी पूर्ण और बचकानी बात और कुछ नहीं हो सकती। एक लोकतांत्रिक मुल्क में निर्वाचित सरकार द्वारा देश की आबादी के सातवें हिस्से जितनी कौम को देश छोड़ने का फरमान सुना दिया जाये, ऐसा तो किसी सूरत संभव ही नहीं । इस तरह की बातें करने वाले भूल जाते हैं कि 1947 के विभाजन के कारण और परिस्थितियां बेहद भिन्न थीं। सबसे प्रमुख बात तो यह कि इस तरह की बातें यकायक नहीं उबरी। यह भी कि भारत के नेतृत्व ने ऐसा कभी नहीं कहा। यह मांग तो मुस्लिमों के नेताओं ने ही उठाई और अंग्रेजों ने इसे हवा भी दी और माना भी। इसका खामियाजा उठाया लाखों सर्वथा बेक़सूर भारतीयों ने। वही नासूर बनकर अभी तक दिलों में उतर चुके अविश्वास और टकराव के जहर को असर रत्ती भर काम नहीं कर पाए हैं। सर सैयद ने 19वीं शताब्दी में ही दो राष्ट्र के सिद्धा्ंत की पैरवी कर दी थी।उच्च शिक्षित,कट्टर इस्लामी सैयद 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ब्रिटिश सरकार के न्यायाधीश थे और संग्राम को कुचलने को जायज ठहराया था। 1989 में अपनी मृत्यु से काफी पहले से वे अनेक इस्लामी संगठन खड़े कर चुके थे और सार्वजिनक रूप से मुस्लिमों के लिये अलग देश की पैरवी प्रारंभ कर चुके थे।मुस्लिम लीग 1940 से ही अलग देश पाकिस्तान को लेकर अभियान शुरू कर चुकी थी। बेशक,1857 के बाद से ही अंग्रेजों ने हिंदू-मुस्लिम नाम के पत्ते फेंटने प्रारंभ कर दिये थे, ताकि आजादी आंदोलन कमजोर पड़े और वे अपना राज जारी रख सकें। वे इसमें कामयाब रहे भी और 90 बरस बाद तक सत्ता बनाये रहे।
अंतत: जब 1947 में अंग्रेज इस देश से बिदा हुए भी तो विश्व के राजनीतिक इतिहास का ऐसा काला अध्याय लिख गये, जो इस ब्रह्मांड के कायम रहने तक स्याह ही बना रहेगा।अपनी धूर्त चाल के मुताबिक धार्मिक आधार पर देश के विभाजन के बावजूद मुस्लिमों को पूरी तरह से पाकिस्तान और हिंदुओं को संपूर्ण रूप से भारत में रखने की व्यवस्था नहीं की, बल्कि लाखों लाशें बिछ जाने के बावजूद इस मसले को दोनों कौम के लिये नासूर बनाकर छोड़ गये। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि भारत में काले अंग्रेजों ने अपने राजनीतिक स्वार्थ के चलते इस घृणित सिलसिले को जारी रखा, जबकि पाकिस्तान ने स्पष्ट नीति अपनाते हुए हिंदुओं को औकात में ही रखा। इतना ही नहीं तो वहां रहे अल्प संख्यक हिंदुओं को सतत अल्पतम करने पर जोर दिया और कामयाब भी हुए। पाकिस्तान में हुक्मरान हिंदुओं के साथ मुगलिया तौर-तरीके अपनाये रहे। वहीं भारत में वे तेजी से बहुसंख्यक होते गये।
आज जिन्हें भारत में हिंदू-मुस्लिम मसला गंभीर मोड़ पर खड़ा नजर आता है, वे अतीत को अनदेखा कर तात्कालिक स्वार्थ ही सामने रखते हैं। वे एकबारगी पाकिस्तान में अभी-भी हिंदुओं पर हो रहे अत्याचार,बलात्कार,लूट,हत्या,मंदिरों को ध्वस्त करने की अनगिनत घटनाओं पर नजर डालने की तकलीफ नहीं करते,क्योंकि पाकिस्तान में रह रहे हिंदू उनका वोट बैंक तो हो नहीं सकते। हालांकि संचार क्रांति के युग में तमाम ऐतिहासिक तथ्यों,गलतियों को सामने आने से रोका नहीं जा सकता। इसलिये नकली माल बेचने वाले परेशान हैं। बावजूद इसके एक बात हमें अपने दिल-दिमाग में दर्ज कर लेना चाहिये कि संघ-भाजपा की न पहले रही,न अब ऐसी कोई कोशिश है कि वे देश से 20 करोड़ मुस्लिमों को रवाना कर दें। ये दोनों कौम दूध-पानी की तरह मिली हुई है। कारोबार,सामाजिक तकाजे,लोक व्यवहार जैसे तमाम मुद्दे हैं, जिनमें परस्पर निर्भरता बनी हुई है। यह दोनों कौम के लिये और इस देश के लिये भी जरूरी है कि वे 21वीं सदी में दुनिया के नक्शे पर लगातार अपने कद को बड़ा कर रहे देश भारत को मजबूती देने के लिये साथ खड़े रहें। इतना ही नहीं तो धार्मिक तकाजों को निजी तौर पर प्राथमिक रखकर राष्ट्र को अग्रणी रखें याने धर्म से ऊपर राष्ट्र को मानें तो बड़े मसले हल हो सकते हैं।
(क्रमश:)