लोक गीतों में होली: फागुन के दिन चार रे रसिया—-

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लोक गीतों में होली: फागुन के दिन चार रे रसिया—–

डॉ. सुमन चौरे

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जब बाग की क्यारियाँ खुदबखुद सज उठे, समझ लीजिए फागुन दस्तक दे रहा है। जब भौंरे बेहिचक बहुरंगी परिधानों वाले फूलों के कान में कुछ-कुछ कहने लगें और फूल बिना किसी नानुकुर किये उनके साथ खिलखिला कर झूम उठें तो समझ लीजिए फागुन आ ही गया। दूर कहीं गाँव की सरहद पर पलाश अपनी भगवा ध्वजा लहरा-फहराकर भले ही वैराग्य का गुर सिखलाता रहे, और उसे मुँह चिढ़ाती कोयल पिया मिलन के लिए पीयू-पीयू कर उठे, तो समझ लीजिए फागुन के पाँव जम गए हैं। वहीं आम, महुआ, करौंदा की छूती उन्मादी बसन्ती बयार गाँव की चौपाल के स्वर भी बदल दे, तो समझ लीजिये फागुन का उन्माद लोक जीवन में बस गया है –
फागुन के दिन चार रे रसिया…
फागुन के दिन चार
बारह मास में आगौ फागुन,
बारह बरस में आगौ जोबन,
जोबन के दिन चार रे रसिया,
फागुन के दिन चार रे रसिया,
फागुन के….

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फागुनी बासन्ती माह की गणना की जाती है उन्मादी माह के रूप में। इसी माह में आता है, आनन्द, उत्साह और उल्लास का लोकपर्व होली। गाँवों में माघ पूर्णिमा के दिन शुभ मुहूर्त में एक स्तंभ, जिसे होलीका ‘डांडा’ कहते हैं, गाड़ दिया जाता है। अन्य त्योहारों की तरह होलिका दहन से एक माह पूर्व इसकी तैयारी बड़ी जोर-शोर से होती है। और माघ पूर्णिमा से फागुन पूर्णिमा, पूरा माह ‘ढाक’ के साथ राधा कृष्ण की प्रणय कथाओं के गीतों के स्वर ग्रामीणंचलों में गूँजते रहते हैं। यूँ तो गाँवों में लकड़ी कण्डे की कमी नहीं होती है, फिर भी होली के लिये लकड़ी चुराना पारम्परिक सामाजिक कृत्य मानते हैं, होलिका दहन के लिये लकड़ी देना पुण्य का कार्य मानते हैं, और सदाशय प्रकृति के लोग बड़ी उदारता से यह दान देते हैं; किन्तु उत्साही नवयुवक और किशोर इस प्राप्ति से उतने संतुष्ट तथा प्रसन्न नहीं होते जितने कि किसी कृपण के घर से चुराई लकड़ी से तुष्ट होते हैं। फागुन पूर्णिमा को शुभ मुहूर्त में ग्राम मुखिया द्वारा होलिका दहन की परम्परा का निर्वाह किया जाता है। इसके साथ ही झाँझ-मृदंग की थाप से फाग गीत प्रारम्भ हो जाते हैं। पौ फटते ही धूल-गोबर-मिट्टी पानी से होली की धूमा चौकड़ी शुरू हो जाती है। इसे ही धुलैंडी, फाग कहते हैं। नगरीय संस्कृति में भले ही होली स˜ावना और मिलन की औपचारिकता का पर्व रहता है; किन्तु गाँवों में अभी भी होली का रंग आत्मिक प्रेम में रंगा गहरा और अनौपचारिक रहता है। फाग व फगुवा गीतों के स्वर से ग्रामीण जनजीवन मदमस्त हो उठता है। फाग गीतों का वर्ण्य विषय राधा-कृष्ण की प्रेम लीला ही रहता है। होली तो ब्रज की ही प्रसिद्ध है; किन्तु लोकांचल में तो होली का रंग ब्रज से ही रंगा रहता है। इन गीतों में मर्यादा और वर्जनाओं का कतई ख्याल नहीं रखा जाता। एक मैथिली गीत देखिए –

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ब्रज के बसइया कन्हैया गोआला….
रंग भरि मारय पिचकारी….
एइ पार मोहन लहँगा लुटत है…..
आई पार लुटथि सारी… मारे पिचकारी
राधा कृष्ण को प्रमुख नायक-नायिका मानकर लोक-नायक-नायिका अपने मन के उद्गार प्रकट करने में जरा भी नहीं झिझकते हैं। होली के गीत अत्यन्त मृदु व मिठास लिए होते है। संयोग शृँगार इन गीतों की आत्मा होती है।
एक मालवी नायिका अपने नायक से मिलन के लिये बड़ी ही आतुर है। किन्तु सास-नन्द के देख लेने के डर से वह अपने प्रियतम से कहती है कि मेरी सास को अटारी पर बिठा दो, नन्द को ससुराल पहुँचा दो, और ऐसा संभव न हो तो मुझसे चोरी छिपे होली खेल लो…….. बड़ी मीठी अरज है मालवी नायिका की –
श्याम म्हासे खेलो नी होरी,
सासू ननद से चोरी-चोरी
म्हारा सासुसा बहुतें-बरजें
जिन्ने बिठादो अटारी
म्हासे खेलोनी होरी
होली आमोद-प्रमोद के लिहाज़ से बड़ा ही लोकप्रिय पर्व है। इस अवसर पर सभी की एक जैसी ही दशा होती है। पारिवारिक रिश्तों में ‘देवर-भाभी’, ‘नन्द-भौजाई’, ‘साली-जीजा’, व ‘नन्दोई-सरहज’ की होली बड़ी ही चुटीली और रसीली होती है। वैसे तो बुन्देली फागें ‘ईसुरी’ की कृपा से कुबेर का खजाना बन गई हैं। फिर भी कुछ परम्परागत फागों में महिलाएँ अपने मनोभावों को व्यक्त करती हैं। एक नवविवाहिता अपने पीहर में है और फागुन माह आ गया है। फिर भला वह किससे कहे, उसे पिया मिलन की एक राह नज़र आती है।
वह अपनी भावज से एक बुन्देली गीत में कुछ इस तरह से अरज करती है –

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ए भौजी चलों तालों के वा पार,
ए भौजी उतई ठारै हमरे वीरना,
ए भौजी तुम भी टेर लेव नन्देउ अपना,
ए भौजी जबै होय रंग के फगुना।
किस प्रकार नवविवाहिता युवती ने प्रेम की एक कुंजी से दो ताले खोल लिये, और फिर होली तो मिल-जुलकर खेलने से ही आनन्द को लक्षगुणित कर देती है। संयोग शृँगार का तो हीरा पर्व है होली। किन्तु जिस नवविवाहिता के पति अगर परदेस में हों और वे न आ सकें तो फिर उस विरहणी को तो होली और भी जला देती है। वियोग शृँगार का एक भाव इस खड़ी बोली के लोक गीत में परिलक्षित होता है –
मोरी बीती जाय जवानी
बालम गये परदेस री
अरे होली न आवे दीवाली न आवे,
गाँठ में घना धेला गठावें फिर बैठके रोवे री,
मोरी बीती जाय जवानी री।
होली कैसा रंग रंगीला पर्व है कि यहाँ नायिका प्रणय मिलन के लिए इतनी उतावली हो उठी कि उसने नारी सुलभ लज्जा का आवरण तक उतारकर फेंक दिया। ऐसे अवसर पर रसीले नवयुवकों व रंगीले मिजाज वाले छैल-छबीलों की तो पूछो ही मत। वो तो इस उन्माद में इतने डूब जाते हैं कि फाग गवैयों के मध्य एक नारी पात्र ही बना लेते हैं। पुरुष को नारी का शृँगार कर सजाया जाता है और फिर टोली के मध्य रख उसके साथ नृत्य और छेड़-खानी करते-करते अश्लील हरकतें कर फाग की मदमस्ती का रस लूटते हैं। पाँच दिन तक फगुआ गायक-दल घर-घर जाता है। ऐसे ही महिलाओं की भी टोलियाँ होती हैं, जो फगुआ गाती हैं, उन घरों में विशेष रूप से जाती हैं जिनके घर विवाह, सन्तानोत्पŸिा, आदि ऐसे ही कोई मांगलिक कार्य सम्पन्न हुए हों। गृह-स्वामिनी द्वारा फिर फगुआ में गुड़, अनाज आदि दिया जाता है।
होली तो सार्वजनिक पर्व है, अगर राजा उसमें सम्मिलित न हो तो आनन्द अधूरा ही रह जाता है। ऐसा ही एक गीत है, जिसमें श्रीकृष्ण से प्रजा अरज करती है कि आप अपना मुकुट उतार कर रख दीजिए और फिर हमारे साथ होली खेलिए। मुकुट ही एक ऐसा प्रतीक है जिससे राजा व प्रजा में फर्क होता है। अगर कृष्ण के सिर पर मुकुट है, तो प्रजा के मन में मर्यादा, भय रहेगा और फाग का आनन्द अधूरा ही रहेगा। इस निमाड़ी फाग में यही भाव निहित हैं। बड़े साहस का कार्य है राजा के सिर से मुकुट उतारने की आज्ञा देना –
कान्हा धरो मुकुट खेलाँ होळई,
खेलाँ होळई, खेलाँ होळई,
कौन की भर डारी राधा पर रंगकारी,
कौन की भींज गई चुंदड़ हारी,
कान्हा न नाख्यो रंग कुसमल,
भींज रही राधा भोळई… खेला होळई,
इस प्रकार राजा और रंक के भेद को भी दूर करता, प्रेम स˜ावना का यह पर्व अनेकता में एकरूपता को प्रतिपादित करता है। जीवन को आनन्दित करती रंगपंचमी को विराम लेता है।

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