justice & Law : भारतीय कानून में शपथ की परम्परा और चुनौती! 

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न्याय और कानून : भारतीय कानून में शपथ की परम्परा और चुनौती! 

शपथ लेने की परम्परा देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। हमारे संविधान ने भी इसे मान्यता दी है। हमने फिल्मों में देखा है कि न्यायालयों के नाटकीय दृष्यों में गवाहों से जोर-शोर से शपथ दिलवाई जाती है। लेकिन, शपथ पर बाकायदा कानून है तथा झूठी शपथ लेने वालों पर सजा के प्रावधान भी है। शपथ लेने की परम्परा भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। भारतीय शपथ अधिनियम 1873 लगभग सौ साल पुराना है। शपथ को हमारे संविधान ने भी मान्यता दी है। भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेद इसे मान्यता देते हैं। यह सही है कि एक भला आदमी बगैर शपथ लिए भी सच कहता है तथा एक बुरा आदमी शपथ के बाद भी ‘सच’ नहीं बोलता है। लेकिन इससे यह आशय नहीं लगाया जाना चाहिए कि शपथ का कोई मतलब नहीं है। कहीं न कहीं शपथ एक व्यक्ति को नैतिकता के आगोश में तो लेती ही है। शपथ लेने की परम्परा हमारे देश में मुगलों के जमाने से ही विद्यमान थी। अंग्रेजों ने इसे कानून स्वरूप भी दिया। अंग्रेजों ने इंडियन ओथ एक्ट, 1873 लागू किया। इसके पूर्व शपथ का कानूनी स्वरूप नहीं था तथा यह राजदरबारों की एक प्रथा मात्र थी।

हाल ही में गुवाहाटी हाईकोर्ट ने 14 नवम्बर को शपथ अधिनियम, 1969 के विरूद्ध भगवान के नाम पर शपथ लेने के खिलाफ एक अभिभाषक की एक लोकहित याचिका खारिज कर दी। फजलुज्जमां मजूमदार नाम के एक अभिभाषक ने यह याचिका प्रस्तुत की थी। उनका कहना था कि उनका ईश्वर के अस्तित्व में कोई विश्वास नहीं है। उन्होंने अधिनियम की धारा 6 को चुनौती दी। यह प्रावधान फाॅर्म 1 को निर्धारित करती है। इसमें एक गवाह को ईश्वर के नाम पर शपथ लेने की आवश्यकता है। याचिकाकर्ता ने कहा कि एक धर्मनिरपेक्ष, उदार और वैज्ञानिक सोच वाला नागरिक होने के नाते, वह अलौकिक शक्ति या अस्तित्व में बिल्कुल भी विश्वास नहीं रखते है।

उनकी मान्यताओं के अनुसार, भाईचारे और मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है। वह अपने निजी जीवन में किसी भी धार्मिक अनुष्ठान का पालन भी नहीं करते है। उन्होंने इस संबंध में गुवाहाटी हाईकोर्ट नियम को हटाने की मांग की। यह प्रावधान घोषणा कर्ताओं को शपथ दिलाने और पुष्टि करने को निर्धारित करता है। न्यायालय ने याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया कि कार्रवाई का कोई कारण नहीं है। न्यायालय ने कहा कि यह तर्क देने का कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है कि अनुच्छेद 25 और 26 के तहत याचिकाकर्ता के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है। कोर्ट ने कहा पूरी याचिका में इस तथ्य के बारे में कोई उल्लेख नहीं है कि याचिकाकर्ता कैसे प्रभावित होगा। न्यायालय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि वर्तमान याचिका में भी हलफनामा शपथ अधिनियम, 1969 के प्रावधान का पालन नहीं करता है। न्यायालय ने यह भी कहा कि इस याचिका में भी शपथ अधिनियम, 1969 के तहत प्रदान किए गए फॉर्म नंबर 1 का पालन किए बिना हलफनामे की अनुमति दी गई है।

विधि आयोग के कार्यों में से एक सामान्य आवेदन और महत्व के केंद्रीय अधिनियमों को संशोधित करने की सिफारिश करना भी है। भारतीय शपथ अधिनियम, 1873 इसी श्रेणी में आता है। यह एक छोटा अधिनियम है, जिसमें केवल 14 धाराएं हैं। लेकिन, यह एक महत्वपूर्ण अधिनियम है। सच्चाई बताने के लिए गवाहों का दायित्व इस अधिनियम से उत्पन्न होता है। अधिनियम की धारा 14 में किसी न्यायालय के समक्ष साक्ष्य देने वाले व्यक्ति या अधिनियम द्वारा प्राधिकृत व्यक्ति को शपथ और प्रतिज्ञान देने की आवश्यकता होती है।

भारतीय शपथ अधिनियम, 1873 रूप में कोई नया कानून नहीं बना है। सन् 1840 का अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम था। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अधिनियम के पारित होने से पहले ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार के कुछ पुराने विनियमों में यह आवश्यक था कि मुसलमानों को कुरान की और हिंदुओं को गंगा के पानी की शपथ लेनी थी। बाद में 1840 के अधिनियम ने शपथ के इन रूपों को समाप्त कर दिया और हिंदुओं और मुसलमानों को गंभीर प्रतिज्ञान पर साक्ष्य देने में सक्षम बनाया। बाद में सन 1840 के अधिनियम 5 के प्रावधानों को 1863 के अधिनियम 18 की धारा 9 द्वारा उच्च न्यायालयों तक बढ़ाया गया। इसके बाद 1872 का अधिनियम 6 आया।

इंग्लैंड में शपथ और प्रतिज्ञान पर कानून आम कानून और कुछ विधियों में पाया जाता है। शपथ दिलाने की शक्ति साक्ष्य अधिनियम, 1851 की धारा 16 में निहित है। शपथ अधिनियम, 1909 शपथ का रूप और इसे प्रशासित करने की प्रक्रिया निर्धारित करता है। शपथ अधिनियम, 1961 के तहत सन 1888 अधिनियम के प्रावधानों को उस व्यक्ति पर लागू किया जाता है, जिसे उसके धार्मिक विश्वास के अनुसार उचित तरीके से शपथ दिलाना उचित रूप से व्यावहारिक नहीं है। शपथ अधिनियम, 1911 शपथ दिलाने के रूप और समारोह में अनियमितताओं के संबंध में कुछ बचत प्रावधान करता है। अंत में शपथ और साक्ष्य (विदेशी प्राधिकरण और देश) अधिनियम, 1963 इंग्लैंड के बाहर किसी देश में उपयोग के लिए साक्ष्य प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड में ली जाने वाली शपथ से संबंधित है। पोप ने एक शपथ को एक या एक से अधिक व्यक्तियों के सामने किसी भी ईसाई द्वारा पुष्टि या खंडन के रूप में परिभाषित किया है, जिनके पास सत्य और अधिकार की खोज और उन्नति के लिए भगवान को साक्षी के रूप में बुलाने के लिए इसे प्रशासित करने का अधिकार है। ईश्वरी दंड का भय ही शपथ के पीछे की भावना है।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं