Satish Kaushik : मस्तमौला सतीश का आलू के पराठे और दिल्ली में बसता था दिल! 

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Satish Kaushik

Satish Kaushik : मस्तमौला सतीश का आलू के पराठे और दिल्ली में बसता था दिल! 

सतीश कौशिक अब हमारे बीच नहीं हैं। ये बात विश्वास करने वाली तो नहीं, पर सच यही है। इस सच पर विश्वास तो करना पड़ेगा, क्योंकि ईश्वर के विधि-विधान के सामने कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। कल तक लोगों ने जिस सतीश कौशिक को शबाना आजमी और जावेद अख्तर की होली पार्टी में रंग खेलते और मस्ती में देखा था, आज वही सतीश इस दुनिया से विदा हो गए। वे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा और फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के पूर्व छात्र थे। उन्होंने थिएटर में अपना करियर शुरू किया था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे एक्टर थे, डायरेक्टर थे, कॉमेडियन थे और राइटर भी थे। लेकिन, यहां तक पहुंचने में उन्होंने लंबा संघर्ष किया। उनको सफलता आसानी से नहीं मिली।

मैंने उनके संघर्ष को सफलता की हर सीढ़ी पर देखा है। मेरी उनसे पहली मुलाकात 1989 में राजा बुंदेला की जरिए हुई थी। दोनों उस समय मुंबई के यारी रोड पर एक फ्लैट में साथ रहते थे। वही मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। बेहद मोटा शरीर जो कहीं से एक्टर की कद काठी तो नहीं लगता था।

लेकिन, बात करने का अंदाज बेहद दिलचस्प। मैंने उन्हें घर से बाहर निकलते समय दरवाजे के पीछे लगे गणेश जी के फोटो के सामने शरणागत होकर प्रणाम करते देखा, तो आश्चर्य हुआ। वे गणेश जी के भक्त हैं या नहीं यह तो नहीं पता, पर बाद में राजा बुंदेला ने बताया कि वे जब भी घर से निकलते हैं, गणेश जी को ऐसे ही प्रणाम करते हैं।

उसके बाद सतीश कौशिक से कई बार मुलाकात हुई और हर बार उनको सफलता की नई सीढ़ी चढ़ते देखा। एक डायरेक्टर के रूप में उन्हें सबसे ज्यादा उत्साहित ‘तेरे नाम’ की सफलता पर देखा था।

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सतीश कौशिश ने क़रीब 35 साल के एक्टिंग करियर में कई हिट फिल्मों में काम किया। इनमें जाने भी दो यारों, जमाई राजा, साजन चले ससुराल, चल मेरे भाई, हमारा दिल आपके पास है, मिस्टर इंडिया, मिस्टर एंड मिसेज़ खिलाड़ी, ब्रिक लेन और उड़ता पंजाब जैसी कई फिल्में हैं।

उन्होंने कई यादगार किरदार जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता। 1987 में आई फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ में उन्होंने कॉमेडी किरदार ‘कैलेंडर’ निभाया था। यह उनका पहला ऐसा रोल था, जिसने उन्हें लोकप्रियता दी। गोविंदा, अनिल कपूर और जूही चावला की फिल्म ‘दीवाना मस्ताना’ में सतीश का ‘पप्पू पेजर’ किरदार था। इसमें उनके डायलॉग इतने ज़्यादा अनोखे थे कि आज भी याद हैं।

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गोविंदा के साथ ‘साजन चले ससुराल’ में गोविंदा के साथ सतीश की जोड़ी जबरदस्त थी। वे इसमें उनके म्यूज़िकल साथी ‘मुत्थू स्वामी’ बने थे। गोविंदा के साथ उन्होंने फिल्म में खूब कॉमेडी की थी। अमिताभ और गोविंदा के साथ आई फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ में शराफत अली का उनका किरदार इन दो बड़े कलाकारों की टक्कर का था। उनका डायलॉग ‘कसम उड़ान छल्ले की …’ कभी भुलाया नहीं जा सकेगा।

सतीश कौशिक धार्मिक थे, ये कई बार दिखाई दिया। उनके दफ़्तर में भी वैष्णो देवी की तस्वीर रखी थी। उसके पीछे ‘तेरे नाम’ का एक पोस्टर था और ‘जाने भी दो यारों’ के लिए जीती गई एक ट्रॉफी भी। एक बार उन्होंने बताया था कि ‘जाने भी दो यारो’ के लिए जब मैंने डायलॉग लिखे, तब पता नहीं था कि इस फिल्म को इतना क्लासिक दर्जा मिलेगा। दरअसल, हमने वही किया जो जो एनएसडी या एफ़टीआईआई में सीखा था। सतीश कौशिक भले ही कामयाब डायरेक्टर बन गए थे, पर उनका दिल कॉमेडी में ही बसता था। उनका कहना भी था कि मैं तो फिल्मों में कॉमेडियन बनने ही आया था। मुझे महमूद और जॉनी वॉकर बेहद पसंद थे। मुझे अपने आप पर भरोसा भी था कि इनकी तरह मैं भी लोगों को हँसा सकता हूँ। डायरेक्टर तो बाद में बना, पर मेरा पहला प्यार तो कॉमेडी ही है।

सतीश कौशिक खाने-पीने के बेहद शौकीन थे। उनको दिल्ली का खान-पान बहुत अच्छा लगता था। खासकर आलू के पराठे। राजा बुंदेला ने भी एक बार बताया था कि सतीश रात को 2 बजे भी आलू के पराठे खाने से परहेज नहीं करते! ऐसे ही खाने की वजह से उनका वजन भी बढ़ता गया। वे अकसर सुनाते थे, कि जब मैं दिल्ली के एनएसडी में था, तो पुरानी दिल्ली या पहाड़गंज के होटलों का खाना ही ज्यादा खाते थे। क्योंकि, इन होटलों में ऊपर से देसी घी डालकर दिया करते थे। अभी भी वे यहां का खाना नहीं छोड़ते थे। दिल्ली के खाने के साथ उन्हें दिल्ली भी बहुत पसंद थी। शायद दिल्ली से उनकी मोहब्बत ही थी, जो आखिरी वक़्त में उन्हें दिल्ली खींच लाई और उन्होंने आख़िरी साँस भी यहीं ली।

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कोई शायद उनका ये दुःख कभी समझ नहीं पाया कि वे अपने दो साल के बेटे की मौत से बेहद दुखी थे। शादी के 9 साल बाद 56 साल की उम्र में पिता बनना भी एक चमत्कार ही था। बेटे के जन्म ने उन्हें बहुत ऊर्जा दी थी, पर उनकी ये ख़ुशी दो साल ही रही। इसके बाद बेटी वंशिका आकर उनका दुःख थोड़ा कम तो किया, पर बेटे जानू के दुःख से वे कभी उबर नहीं सके थे। अब उनके परिवार में पत्नी शशि और वंशिका ही हैं।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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