कहानी : दूर बहुत दूर

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कहानी: दूर बहुत दूर

नीलम सिंह सूर्यवंशी, इंदौर 

अर्पणा आज बहुत ही विचलित दिखाई दे रही थी, जैसे उसका किसी काम में मन ही नहीं लग रहा था। बार-बार उसकी निगाह दीवार पर लगी घड़ी पर जा कर ठहर जाती। उसकी सास ने पूछा, “क्या हुआ, बहू? तुम कुछ परेशान दिख रहीं हो?” अर्पणा ने उत्तर दिया, “नहीं, मम्मी, ऐसा कुछ भी नहीं है।” पर मन के भीतर तो जैसे भावनाओं का सैलाब उठ रहा था।

आज 14 फरवरी है, और आज के दिन ही तो रोहित से पहली बार मिली थी, और कितनी जल्दी रोहित के साथ शादी के बंधन में बंध गई थी, दोनों परिवार कितने खुश थे, सब कुछ अच्छा था; रोहित के साथ अर्पणा भी बहुत खुश थी। रोहित एक अच्छे इंसान, दोस्त और पति थे, पर किसे पता था कि नियति का खेल बड़ा विचित्र होगा! सिर्फ़ 6 वर्षों में ही रोहित उसे इस दुनिया में अकेला छोड़कर, खुद दूसरी दुनिया में चला जाएगा। अब तो रोहित को गए हुए भी 4 साल बीत चुके हैं, और रोहित की सारी जिम्मेदारियाँ अर्पणा के कंधों पर आ गई थीं। माता-पिता का ध्यान रखना हो, बच्चों का भविष्य हो या दुनियादारी – सब कुछ अब अर्पणा के ऊपर आ चुका था। फिर, खुद के अकेलेपन से भी तो खुद ही लड़ना था।

सास, सामाजिक बंधनों को बातों-बातों में जताती रहती थीं। किसी विधवा का हँसना-बोलना, बनाव-श्रृंगार करना अच्छा नहीं लगता – पति रहता है तो एक आड़ रहती हैं, और बिना पति के रहने पर लोग अर्थ का अनर्थ लगा देते हैं। सास क्या कह रही थीं, यह अर्पणा ने अच्छी तरह समझ लिया था और जब एक बार अर्पणा अपने मायके में किसी प्रोग्राम में शामिल होने गई थी, तब भी उसकी सास ने बहुत सी हिदायतें देकर कहा था, “देख, ज़्यादा हँसना नहीं, किसी आदमी से ज़्यादा बात मत करना, पूजा में सामने मत आना, पीछे ही रहना, और भी ना जाने क्या-क्या…”

वो रोज़ रात, अपनी किस्मत को कोसते हुए, रोहित को याद करके,साइड टेबल पर रखी किताब के अंदर सूखा हुआ गुलाब जो कभी रोहित ने उसको दिया था देख -देख कर रो-धो कर सो जाती थी, और सुबह उठकर अपने काम में लग जाती थीं। लेकिन आज अर्पणा का काम में भी मन नहीं लग रहा था। रोहित की याद तो आ ही रही थी, पर आज अनिमेष ने भी कहा था कि, “कल 14 फ़रवरी है और हम कल का दिन साथ में बितायेंगे।” अर्पणा ने हाँ तो कर दिया था, पर मन ही मन में अंतर्द्वंद चल रहा था।

एक वर्ष पूर्व, बच्चों के स्कूल में अर्पणा की मुलाकात अनिमेष से हुई थी। पहले एक-दूसरे से “हाय-हेलो” हुई, फिर नंबर एक्सचेंज हुए, कब बातें शुरू हो गईं, और धीरे-धीरे सुख-दुख साझा होने लगे – यह अर्पणा को खुद भी पता न चला। अर्पणा उसे मन ही मन पसंद करने लगी, और शायद अनिमेष भी। दोनों ही जानते थे, पर शब्द नदारत थे; सिर्फ़ एक एहसास ही था जो हर पल महसूस होता था ।

अर्पणा को अनिमेष ने बताया था कि, जब वो ग्रेजुएशन कर रहा था, तभी उसके पापा, किसी गंभीर बीमारी के कारण, इस दुनिया को छोड़कर चले गए थे। और अचानक उसके कंधों पर मम्मी और छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी आ गई थी। इसी के चलते उसने सोचा कि, पहले अपने भाई-बहनों की पढ़ाई और शादी कर दूं, तब मैं शादी करूंगा।

क्योंकि, ना जाने कि दूसरी लड़की मेरी परेशानी समझेगी या नहीं, और दूसरी बात, वो भी तो कुछ अरमान लेकर ही आएगी इस घर में। पता चला कि मैं समस्याओं से घिरा हुआ हूँ, और वो भी परेशान हो गई फिर उसकी भी तो अपनी जिंदगी होगी – यही सोचकर मैंने अब तक शादी नहीं की है। माँ बहुत दिनों से पीछे पड़ी रहती हैं, लेकिन अब तक मुझे ऐसी कोई मिली नहीं, जिसे मैं सोच पाऊं। पर अब लगता है, जल्द ही कोई मिल जाएगी, जो यही सभी बातें समझ कर मुझे अपना लेगी। उसकी बात सुनकर अर्पणा जैसे कहीं खो सी गई अपने अतीत में और वो गहरी सोच में डूब गईं और उसे समझ नहीं आया कि वह क्या कहे अनिमेष की बात पर । अर्पणा के दिमाग़ में यही सारी बातें बार-बार घूम रही थीं।

फिर, उसे रोहित की याद भी आ रही थी, और उसकी अपनी खुद की बनाई हुई बहुत सारी रेखाएँ, तमाम तरह की नसीहतें, रोहित का प्यार, दुनिया वालों की नजरें – सब कुछ आखों के सामने घूम रहा था। इसी बीच, उसका सारा काम समाप्त हो गया और मोबाइल फोन बजा; देखा तो अनिमेष का ही कॉल था। एक पल के लिए उसने अपनी सास की ओर नजरें दौड़ाई, फिर वो अपने कमरे में जाकर आलमारी खोली तो देखा रोहित का लाया हुआ सुंदर सा लाल रंग का सूट सामने ही रखा हुआ था उसे निकाला और देखकर जैसे ही अपने दिल से लगाया उसकी आँखो से झर-झर आँसू बहनें लगे , उसने सूट को वापस अलमारी में बहुत प्यार से रखकर पलँग पर आँख बंद करके निढाल सी बैठ गई ,तभी उसे ऐसा जैसे किसी ने धीरे से आकर कहा हो की “एक दिन तो अपने लिए भी जी सकती हो “और अर्पणा उठकर तैयार होकर ,एक गुलाब का फूल पर्स में रखती है , और कमरे से बाहर निकलकर कहती है” माँ ,मैं अभी आती हूँ।” और वह निकल जाती है …..।

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नीलम सिंह सूर्यवंशी,इंदौर