

रविवारीय गपशप:बचपन से आज तक यादों में बसे भोजन प्रसंग
आनंद शर्मा
घर से बाहर जाओ और मन का खाना मिल जाए तो आदमी की 99 प्रतिशत संतुष्टि हो जाती है । एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है कि आदि शंकराचार्य को वाराणसी में जब दक्षिण भारतीय भोजन की याद सताने लगी तो माँ अन्नपूर्णा ने उन्हें अपने हाथों से भोजन दिया था , और इसके बाद ही आदि शंकर ने अन्नपूर्णा स्त्रोतम की रचना की थी । आई.ए.एस. की नौकरी से रिटायरमेंट के बाद हम सेवानिवृत मित्रों ने इस प्रयोजन से एक ग्रुप बनाया है कि हम सपरिवार एक साथ विदेश भ्रमण पर जा सकें । जब पहली बार हम सब मिल कर आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की यात्रा पर गए , तो जाने से पहले कार्यक्रम बनाते वक्त बाहर कहाँ-कहाँ घूमेंगे के बाद जिस मुद्दे पर सबसे ज़्यादा चर्चा हुई वो ये था , कि उत्तर भारतीय भोजन कहाँ और किस तरह मिलेगा । हमारे मित्र एन.एस. परमार , जो सेवा निवृत आई.ए.एस. हैं तथा अभी भूमि सुधार आयोग में सदस्य हैं , एक बार अपने बचपन का किस्सा बता रहे थे , कि एक बार उनके माता-पिता उन्हें उनके भाई बहनों के साथ किसी रिश्तेदार के यहाँ लेकर गए । बात खाने की आयी तो माँ ने कहा नहीं-नहीं घर से खाकर आए हैं , आप रहने दो , फिर भी जब रिश्तेदार महोदय ने खाना परोसा तो सब खाने बैठ गए और फिर ऐसा खाया कि उन्हें तीन बार आटा माड़ना पड़ा । विदा लेते वक्त उनके पिता को मेजबान ने कहा कि और तो सब ठीक है पर बच्चों को भूखा घर से बाहर ले कर मत जाया करो । परमार साहब बोले वहाँ तो परांठे खा आए पर घर आ कर जो मरम्मत हुई वो अभी भी याद है ।
नौकरी में जब हमारा प्रमोशन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो गया , तो सभी मित्र इंडक्शन प्रोग्राम के लिए अलग अलग इंस्टिट्यू में भेजे गए । मध्यप्रदेश से हम नौ साथी ए.टी.सी. मैसूर ट्रेनिंग के लिए भेजे गए । थोड़े दिनों में ही दक्षिण भारतीय खाना खा-खा कर हम पक गए । कभी कभी शाम को उत्तर भारतीय रेस्तरां ढूँढ कर हम दिल भर लिया करते पर वो मँहगा शौक था । हमारे साथ श्री जे.के. जैन भी थे जो उस वक्त रायसेन कलेक्टर हुआ करते थे और ग़ज़ब की दिलचस्प शख़्सियत हैं । एक बार उन्हें मैसूर के पास जैन मुनि के प्रवास के कार्यक्रम में शरीक होने का निमंत्रण मिला । जनक अकेले नहीं जाना चाहते थे तो उन्होंने हम सब को साथ चलने को कहा और सबने एक स्वर में मना कर दिया , पर जब उन्होंने बताया कि कार्यक्रम का समापन भोजन से होगा , जो साथ में चल रहे इंदौर के रसोइए बनायेंगे तो नौ के नौ साथी साथ चलने राजी हो गए । छक कर भोजन उपरांत श्री एस.एन.रूपला जी ने संत महोदय का ऐसा महिमामंडन किया कि हम सब की तरफ़ से सुस्वादु भोजन का धन्यवाद ज्ञापित हो गया । कुछ दिनों बाद किसी सप्ताहांत की छुट्टियों में बैंगलोर जाने कार्यक्रम बना तो फिर हम मित्र जे.के. के साथ बैंगलोर जाने को इस लालच में लद लिए कि उनके भाई के यहाँ निश्चित ही उत्तर भारतीय व्यंजन मिलेगा ।
हम एक साथ जब उनके भाई साहब के यहाँ पूड़ी सब्जी खाने बैठे , तो भाभी जी को तीन बार आटा माड़ना पड़ा और बरबस मुझे परमार साहब का क़िस्सा याद आ गया । ये और बाद है कि हम बच्चे नहीं बचे थे , सो किसी ने ऐसी ज़बरदस्त भूख के लिए कोई उलाहना नहीं दिया और हम सब बार बार धन्यवाद देते अपने मैसूर हॉस्टल वापस लौट आए ।