कानून और न्याय: लड़कियों के बारे में कानून ही नहीं सोच भी बदला जाए

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सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में पुश्तैनी संपत्ति में बेटियों के समान अधिकार को मान्यता दी है। लेकिन बेटियों को उनके अधिकार मिल सके इसके लिए बेटियों तथा खासकर समाज को अपना सोच बदलना होगा। आशा की जानी चाहिए कि समाज कानून के इस बदलाव को व्यापक रूप से स्वीकार करेगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसले में पुश्तैनी संपत्ति में बेटियों के समान अधिकार को मान्यता दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस फैसले में सहदायिकी संपत्ति के हस्तांतरण से संबंधित कानून और साथ ही बेटियों पर हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में सन् 2005 में किए गए संशोधन के प्रभाव की विस्तृत व्याख्या की है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि शास्त्रीय हिंदू कानून में बेटी को संपत्ति में सहभागी नहीं बनाया गया है। सन् 2005 में संविधान की भावना के अनुसार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन के साथ यह अन्याय समाप्त किया गया था। मूल हिंदू उत्तराधिकार कानून के इस फैसले में संयुक्त हिंदू परिवार प्रणाली, सहदायिकी और सहदायिकी संपत्ति जैसे मुद्दों की भी विशद व्याख्या भी की गई है।

हिंदू कानून के दो मुख्य स्तंभ हैं। एक तो मिताक्षरा और दूसरा दयाभागा। बंगाल को छोड़कर भारत के अधिकांश हिस्सों में मिताक्षरा कानून ही लागू है। महाराष्ट्र स्कूल उत्तर भारत में प्रचलित था, जबकि बाॅम्बे स्कूल, पश्चिमी भारत में प्रचलित था। दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में मरूमक्कट्यम, आलिया संताना और नंबूदरी कानून की प्रणालियां भी प्रचलित है। हिंदू परिवार में वे सभी व्यक्ति शामिल हैं, जो सामान्य रूप से एक ही पूर्वज के वंशज हैं और इसमें उनकी पत्नियां और अविवाहित बेटियां भी शामिल हैं। एक संयुक्त हिंदू परिवार पूजा में एक है और संयुक्त संपत्ति रखता है। संपत्ति के अलग होने के बाद परिवार संयुक्त नहीं रह जाता है। भोजन और पूजा में अलगाव को अलगाव नहीं माना जाता है। सन् 2005 से पहले हिंदू समुदाय में केवल बेटे, पोते और परपोते को शामिल किया जाता था। ये संयुक्त संपत्ति के धारक होते थे। सहदायिकी संपत्ति वह है, जो एक हिंदू अपने पिता, दादा या परदादा से विरासत में पाता है। दूसरों से विरासत में मिली संपत्ति को उसी के अधिकार में रखा जाता है। हालांकि उसे सहदायिकी का हिस्सा नहीं माना जा सकता है। सहदायिकी संपत्ति के मालिक संयुक्त होते हैं। सहदायिकी वारिस अपने अधिकार जन्म से प्राप्त करता है। सहदायिकी बनने का एक अन्य तरीका है गोद लेना।

कई राज्यों ने संपत्ति में बेटियों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए 1956 के अधिनियम में संशोधन किए। सन् 2005 के संशोधन में भी कई बदलाव किए गए। बेटी को जन्म से ‘‘अपने आप में‘‘ सहदायिकी बनाया गया। धारा 6 (1) के संशोधित प्रावधान के अनुसार संशोधन अधिनियम के प्रारंभ से बेटी को अधिकार प्रदान किया जाता है। धारा 6 (1) बेटी को जन्म से ‘अपने आप में’ और ‘बेटे के समान’ एक सहदायिकी बनाती है। धारा 6 (1) में मिताक्षरा सहदायिकी की अबाधित विरासत की अवधारणा है, जो जन्म के आधार पर है। धारा 6 (1) (इ) सहदायिक को संपत्ति में समान अधिकार प्रदान करता है ‘जैसा कि अगर वह एक बेटा होती तो’ होता। अधिकार जन्म से होता है और अधिकार उसी तरह से दिए जाते हैं जैसे कि सहदायिकी के मामलों में एक बेटे के रूप में होता है और उसे उसी तरह से सहदायिकी माना जाता है जैसे कि वह एक जन्म के समय एक बेटा हो।

सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदू उत्तराधिकार कानून 2005 की नई व्याख्या की है। इस व्याख्या से पैतृक संपत्ति में बेटियों की बराबरी का अधिकार स्पष्ट हुआ है। हालांकि इस नई व्याख्या के बाद भी यह सवाल बना रहेगा कि हमारे समाज की जो स्थिति है, उसमें क्या वास्तव में किसी बेटी को पैतृक संपत्ति में बराबरी की हिस्सेदारी आसानी से प्राप्त हो सकेगा? सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी नई व्याख्या में कहा कि सन् 2005 से पहले जन्मी बेटियों को भी संपत्ति में उस स्थिति में भी अधिकार होगा, यदि उनके पिता की मृत्यु कानून लागू होने से पूर्व हो गई हो। लेकिन अभी भी कुछ बाधाएं हैं। ये बाधाएं समाज की पैतृक एवं सामाजिक सोच से जुड़ी हुई हैं। अभी तो किसी कारणवश यदि शादीशुदा बेटी को मां-बाप के घर रहना पड़ जाए तो उसे पूरा परिवार बोझ समझता है। बेटियां खुद को अपराधी महसूस कर वहां मजबूरी में रहती हैं। आवश्यकता इस सोच को बदलने की है।

हमारे सामने इस स्थिति को सुधारने में तीन बड़ी बाधाएं दृष्टिगोचर होती हैं। पहला, हमारे समाज में अब भी बेटी और पिता दोनों के मन में यह धारणा बनी रहती है कि शादी के बाद बेटी पराई हो गई है। इसके बाद भाई, भाभियों या पिता से कुछ भी मांगने में उन्हें संकोच होता है। ऐसे में वह अपने अधिकार की बात को सहज ही नहीं रख पाएंगी। वैसे भी संपत्ति का बंटवारा अक्सर विवाद की वजह बनता है। ऐसे में बहन को भी बंटवारे में शामिल करना हमारे समाज को आसानी से स्वीकार नहीं होगा। दूसरा, हमारे ग्रामीण इलाके में शिक्षा और अपने हक के प्रति जागरूकता नहीं है। जो लड़कियां अपने मूल अधिकारों की समझ नहीं रखती, उनसे भला कैसे आशा की जा सकती है कि वह जरूरत पड़ने पर अपने पिता की संपत्ति में मिले कानूनी अधिकार का इस्तेमाल अपनी भलाई के लिए कर सकेगी। जो महिलाएं पति की प्रताड़ना एवं शारीरिक हिंसा सहन करती रहती है तथा पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का साहस नहीं कर पाती हैं और न ही उन्हें छोड़ पाती है भला वे अपने अधिकारों की लड़ाई अपने स्वजनों से लड़ पाएंगी, इसमें संदेह है।

तीसरा, पिता या भाई स्वयं अपनी संपत्ति में बेटी या बहन को हिस्सा देंगे, इसकी संभावना कम है। क्योंकि जिस सोच के तहत उनका लालन-पालन हुआ है वह सोच इतना उदार नहीं है कि महिला को कहीं भी अपने बराबर आकर खड़ा होने की अनुमति दे। पिता के पास वही रूढ़िवादी तर्क अब भी मौजूद होगा कि बेटी का हिस्सा ससुराल में होता है। लेकिन यदि बेटी ससुराल में प्रताड़ित होती है और उसके पास आर्थिक संबल नहीं होता है तब उसे क्या करना चाहिए, इस पर वे मौन हो जाते हैं। साथ ही यह भी प्रश्न है कि क्या हमारी बेटियां अपने भाईयों से कानूनी झगड़ा मोल लेना चाहेगी! दरअसल, कानून बनाने और उसे संशोधित करने से अधिक अहम है कि उसे हमारे समाज में लागू कैसे किया जा सकता है, इस पर चर्चा होना आवश्यक है। उचित तो यही होगा कि समाज की सोच बदलने की दिशा में तेजी से काम किया जाए।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं