आज़ादी और लोकतंत्र के जश्न के साथ जुड़े अनुशासन के मुद्दे 

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आज़ादी और लोकतंत्र के जश्न के साथ जुड़े अनुशासन के मुद्दे 

 

लाल किले पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जब तिरंगा झंडा फहराने के साथ भारत की नई शक्ति और उज्जवल भविष्य पर देश – दुनिया को सम्बोधित करेंगे , तो हर सामान्य भारतीय का सिर और मन गौरवान्वित होगा | आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने और लोकतंत्र को बनाए रखने के साथ आर्थिक महाशक्ति का सपना साकार करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं | इस सन्दर्भ में मुझे देश के प्रतिष्ठित उद्योगपति और आर्थिक स्वप्नदर्शी जे आर डी टाटा द्वारा 1992 में भारत रत्न का सम्मान मिलने के बाद कही गई एक बात ध्यान में आती है | श्री टाटा ने कहा था कि ‘ मैं नहीं चाहता कि भारत आर्थिक महाशक्ति बने | मैं चाहता हूँ कि भारत एक सुखी देश बने | ” तब नरसिंह राव और मनमोहन सिंह आर्थिक नीतियों में बदलाव ला रहे थे | 30 वर्षों में बहुत कुछ बदला है | मोदी ने भी नौ वर्षों में आर्थिक क्रांति के कई बड़े निर्णय लिए हैं | लेकिन उन्होंने सम्पन्नता से अधिक सामान्य नागरिक को सुखी देखने को सर्वाधिक प्राथमिकता दी है | इसलिए समाज का एक वर्ग यह शिकायत करने लगता है कि यह सरकार तो समाजवादी कम्युनिस्टों से एक कदम आगे बढ़कर गरीबों को प्राथमिकता दे रहे हैं |

अमेरिका और चीन जैसे देशों के साथ प्रतियोगिता करते हुए इस बात को ध्यान देना जरुरी है कि भौतिक दृष्टि से कोई भी सफलता या उपलब्धी तब तक सार्थक नहीं होगी जब तक वह देश और उसकी जनता की आवश्यकताओं या हितों को पूरा न करे तथा उचित और ईमानदार ढंग से प्राप्त न की गई हो | बाजार में उछाल या भव्य शॉपिंग माल की ऊंचाइयों से सुपर पावर और सुखी भारत नहीं कहलाया जा सकता है | असमानता की खाई पाटना असली लक्ष्य रखना होगा | तभी तो अब लाल किले या सरकारी भवनों पर ही नहीं हर घर और हर नागरिक को तिरंगा फहराने का गौरव मिल रहा है | कश्मीर से कन्याकुमारी और गोवा से सुदूर नागालैंड – अरुणाचल तक तिरंगे की शान के साथ सड़क मार्गों से लेकर रेल और हवाई मार्गों से देश के लोग अधिकाधिक करीब आते जा रहे हैं |

आज़ादी का उत्सव मनाने के साथ सत्ता व्यवस्था , संसद , न्याय पालिका और सेना से बड़ी अपेक्षाएं होना स्वाभाविक है |लेकिन अधिकारों के साथ अपने कर्तव्यों का अहसास क्या जरुरी नहीं है ? संसद से लेकर सोशल मीडिया तक अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरूपयोग कर समाज में नफ़रत , हिंसा , विरोध के नाम पर भोले भाले लोगों को भड़काना क्या राष्ट्र द्रोह से कम है | अब संसद में सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी से लेकर सबसे नई आम आदमी पार्टी के नेता सदन में कैसी भाषा और व्यवहार का उपयोग कर रहे हैं ? पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गाँधी आधुनिक समाज और संस्कृति के समर्थक हो सकते हैं , लेकिन संसद में आँख मारना , फ्लाइंग किस ( चुम्बन ) लहराते आनंदित हों और उनकी पार्टी इसे सही ठहराए , क्या यह किसी अन्य लोकतान्त्रिक देश की संसद में भी उचित कहा जा सकेगा | पश्चिमी समाज में पारस्परिक भेंट के समय गाल पर चुम्बन को सामान्य कहा जाता है , लेकिन भारत की संसद या अदालत में ऐसा व्यवहार उचित कहा जा सकेगा ? अधीर रंजन चौधरी कभी अति वामपंथी माओवादी समर्थक रहे थे , लेकिन लोक सभा में कांग्रेस का नेतृत्व करते हुए जिस तरह प्रधान मंत्रीं के लिए निहायत अनुचित गालियों जैसी भाषा का उपयोग कर अट्टहास करते हुए क्या संसदीय गरिमा को नहीं गिरा रहे हैं ? महात्मा गाँधी का नाम लेकर अन्ना आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी के संजय सिंह ने 50 से अधिक बार राज्य सभा के सभापति के आसन के सामने नारेबाजी की , उनके साथी राघव बहल भी किसी नियम कानून को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हुए और उन्हें निलंबित किया गया | अब विशेषाधिकार समिति और आचार समिति इन तीनों सांसदों के मामलों पर विस्तार से विचार करेंगें | लेकिन मैंने एक पत्रकार के नाते 1972 से संसदीय कार्यवाही देखते लिखते ऐसे दृश्य नहीं देखे | इसलिए लोकतंत्र के लिए कलंक ही कह सकता हूँ |

आजकल कांग्रेस के नेता आज़ादी पर खतरे की बात कर रहे हैं | इसलिए 13 अगस्त 1954 को तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरु द्वारा सम्पादकों के एक कार्यक्रम में कही गई महत्वपूर्ण बात का उल्लेख उचित होगा | नेहरु ने कहा -” मेरा यह दृढ विश्वास है कि अमूर्त स्वतंत्रता जैसी कोई वस्तु नहीं होती | स्वतंत्रता दायित्व से सम्बद्ध है , चाहे वह राष्ट्र की स्वतंत्रता हो या व्यक्ति की स्वतंत्रता या समूह की स्वतंत्रता या प्रेस की स्वतंत्रता | इसलिए जब कभी हम स्वतंत्रता के प्रश्न पर विचार करें , तब हमें कर्तव्य के बारे में भी अनिवार्य रुप से विचार करना चाहिए , जो स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है | यदि इससे उत्तरदायित्व और प्रतिबद्धता जुडी हुई नहीं है तो स्वतंत्रता भी धीरे धीरे समाप्त हो जाती है |” आज़ादी के अमृत महोत्सव के समय प्रतिपक्ष अथवा कुछ लोगों का यह मातम अजीब है कि देश में लोकतंत्र ख़त्म हो गया , देश बर्बादी के कगार पर है , गरीबों के बजाय केवल दो चार उद्योगपतियों – व्यापारियों को अरबों रुपया दे दिया गया | गरीबी , बेरोजगारी की समस्या से कोई सरकार न इंकार कर सकती है और न ही उसके लिए बेबस हो सकती है | लेकिन गरीबी से सड़कों पर पड़े सैकड़ों लोग आपको संपन्न राष्ट्र अमेरिका के सेन फ्रांसिस्कों , न्यूयॉर्क , लास एंजिल्स में भी दिख सकते हैं |राहुल गाँधी जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर अम्बानी अडानी औद्योगिक समूहों को ही लाभ पहुँचाने के आरोप लगाते हैं , तो यह कैसे भूल जाते हैं कि कांग्रेस के सत्ता काल में ही ये उद्योगपति सफल होकर आगे बढे और आज भी उनके शासित राज्यों में करोड़ों की पूंजी वैधानिक तरीकों से लगा रहे हैं | अमेरिका में आर्थिक समस्याओं के लिए क्या ऐसे व्यापारिक समूहों को संसद में दोषी ठहराया जा रहा है ?

 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के उपयोग में सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका रही है | लेकिन भारत जैसे विशाल देश में अब भी आबादी का एक हिस्सा अंध विश्वास , कम शिक्षित और बेहद गरीबी से प्रभावित है | उसे भ्रामक प्रचार से उत्तेजित कर हिंसक उपद्रव में शामिल करने के लिए निहित स्वार्थी संगठन और विदेशी एजेंसियों के षड्यंत्र होते रहते हैं | मणिपुर में भयावह हिंसा और समस्या को और भड़काने तथा मिजोरम जैसे राज्य को चपेट में लाने के प्रयास सोशल मीडिया के बल पर हुए हैं | इसलिए चाहे राजनीति हो अथवा मीडिया , आजादी अभिव्यक्ति के अधिकारों पर एक हद तक सीमा रेखा तय करना आवश्यक है | सरकार और संसद ने इस उद्देश्य से नए नियम कानून का प्रावधान किया है | न्यायालय को भी इस तरह की सीमाओं को रेखांकित करना चाहिए | उम्मीद है कि इस बार 15 अगस्त पर लाल किले के भाषण में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी उपलब्धियों और भावी प्रगति की चर्चा के साथ आजादी और अभिव्यक्ति के अधिकारों पर गौरव के साथ देशवासियों को अपने कर्तव्यों के पालन , अनुशासन के लिए भी संकल्प लेने का आग्रह करेंगे |

Author profile
ALOK MEHTA
आलोक मेहता

आलोक मेहता एक भारतीय पत्रकार, टीवी प्रसारक और लेखक हैं। 2009 में, उन्हें भारत सरकार से पद्म श्री का नागरिक सम्मान मिला। मेहताजी के काम ने हमेशा सामाजिक कल्याण के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है।

7  सितम्बर 1952  को मध्यप्रदेश के उज्जैन में जन्में आलोक मेहता का पत्रकारिता में सक्रिय रहने का यह पांचवां दशक है। नई दूनिया, हिंदुस्तान समाचार, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान में राजनितिक संवाददाता के रूप में कार्य करने के बाद  वौइस् ऑफ़ जर्मनी, कोलोन में रहे। भारत लौटकर  नवभारत टाइम्स, , दैनिक भास्कर, दैनिक हिंदुस्तान, आउटलुक साप्ताहिक व नै दुनिया में संपादक रहे ।

भारत सरकार के राष्ट्रीय एकता परिषद् के सदस्य, एडिटर गिल्ड ऑफ़ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष व महासचिव, रेडियो तथा टीवी चैनलों पर नियमित कार्यक्रमों का प्रसारण किया। लगभग 40 देशों की यात्रायें, अनेक प्रधानमंत्रियों, राष्ट्राध्यक्षों व नेताओं से भेंटवार्ताएं की ।

प्रमुख पुस्तकों में"Naman Narmada- Obeisance to Narmada [2], Social Reforms In India , कलम के सेनापति [3], "पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा" (2000), [4] Indian Journalism Keeping it clean [5], सफर सुहाना दुनिया का [6], चिड़िया फिर नहीं चहकी (कहानी संग्रह), Bird did not Sing Yet Again (छोटी कहानियों का संग्रह), भारत के राष्ट्रपति (राजेंद्र प्रसाद से प्रतिभा पाटिल तक), नामी चेहरे यादगार मुलाकातें ( Interviews of Prominent personalities), तब और अब, [7] स्मृतियाँ ही स्मृतियाँ (TRAVELOGUES OF INDIA AND EUROPE), [8]चरित्र और चेहरे, आस्था का आँगन, सिंहासन का न्याय, आधुनिक भारत : परम्परा और भविष्य इनकी बहुचर्चित पुस्तकें हैं | उनके पुरस्कारों में पदम श्री, विक्रम विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, पत्रकारिता भूषण पुरस्कार, हल्दीघाटी सम्मान,  राष्ट्रीय सद्भावना पुरस्कार, राष्ट्रीय तुलसी पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार आदि शामिल हैं ।