समय और स्थान के साथ धर्मशास्त्रों (Scriptures) में बदलाव आवश्यक है;
मंडन मिश्र ने शास्त्रार्थ के दौरान आचार्य शंकर से कहा कि वैदिक धर्म का वास्तवित प्रचार तब होगा जब हवन और अग्निहोत्र से आकाश धूमिल हो जाएगा, वेदमंत्रों के स्वरों से दिशाएँ गुंजायमान हो उठेंगीं। तब आचार्य शंकर ने उत्तर दिया था कि यज्ञ, हवन, मंत्र आदि तो मन को शुद्ध करने के साधन मात्र हैं। यह साधन हैं जिनके माध्यम से साध्य (लक्ष्य) प्राप्त करना है। यह स्वयं साध्य नहीं हैं। तब मण्डन मिश्र ने प्रतिप्रश्न किया कि क्या आर्यों की प्राचीन प्रथाओं का पालन किये बिना वैदिक धर्म का पुनरुद्धार हो सकेगा।
इस पर आचार्य का उत्तर था कि – ‘’साधन तो देश और काल के साथ बदलते रहते हैं। समय तो गंगा की धारा है जो एक बार समतल पर उतरने के बाद फिर पहाड़ों पर वापस नहीं जाती। समय के साथ संस्कार बदलते रहते हैं पर मूल वस्तु है आत्मा। यदि वैदिक धर्म की आत्मा नहीं बदलती तो साधनों का रूप कुछ भी हो वैदिक धर्म उन्हीं की नींव पर अमर रहेगा’’। प्रश्न यह है कि वैदिक धर्म की यह आत्मा क्या है और शरीर क्या है जिसके माध्यम से यह आत्मा अभिव्यक्त होती है?
पहले वैदिक धर्म की आत्मा की बात करें। व्यक्ति चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक वह यह तो मानता है कि कोई ऐसा तत्त्व है जिसके होने पर ही जीवन होता है और जिसके चले जाने पर मृत्यु हो जाती है। नास्तिक मानते हैं कि यह तत्त्व संसार की भौतिक स्थितियों जैसे विभिन्न रसायनिक क्रियाओं के कारण पैदा होता है परंतु अभी तक विज्ञान इसे खोज नहीं पाई है। यदि खोज लिये होते तो प्रयोगशालाओं में ‘चेतना’ बनाकर मृतकों में डालकर उन्हें जीवित कर देते। वहीं आस्तिक मानते हैं कि पूरी सृष्टि ब्रह्म से पैदा हुई है और वही ब्रह्म चेतना के रूप में कण-कण में प्रकाशित हो रहा है। इसी चेतना के मूल स्रोत – ब्रह्म – का स्वभाव ही अध्यात्म है – अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मम् उच्यते (गीता 8.3)।
वेदों में ब्रह्म के इसी स्वभाव का वर्णन मंत्रों के रूप में किया गया है। ब्रह्म का स्वभाव सदैव से है, एक सा है और सदैव रहेगा इसीलिए इस ज्ञान के वाहक वेद भी अनादि, अनन्त हैं। यह ज्ञान स्वमेव उद्भूत है, किसी व्यक्ति ने बौद्धिक रूप से लिखा नहीं है इसलिए वेद अपौरुषेय हैं, अपरिवर्तनीय हैं। ईश्वरीय ज्ञान की मूर्ति होने के कारण वेद को ईश्वर का रूप कहते हैं – वेदो नारायण: साक्षात् (स्कन्दपुराण)। वेदों के इस दार्शनिक ज्ञान की व्याख्या उपनिषदों और ब्रह्मसूत्रों में की गई है। वेदों में वर्णित ब्रह्म तत्त्व ही वैदिक धर्म की आत्मा है।
अब हम वैदिक धर्म के शरीर पर विचार करें। वेदों के दार्शनिक सिद्धांत आम लोगों की समझ से परे थे। आम लोगों के मन-मस्तिष्क में वैदिक सिद्धांतों को बिठाने के लिए ऋषियों ने पुराण और इतिहास ग्रंथ रचे जिनमें सरल कथाओं के माध्यम से जीवनमूल्य समझाए गए। इन ग्रंथों को पढ़कर या सुनकर बौद्धिक रूप से जो समझा जाता है वह केवल जानकारी है, अनुभूति नहीं। वह मार्ग बताती है जिससे साक्षात्कार में मदद मिलती है परंतु केवल मार्ग जानने से मंजिल पर नहीं पहुँचा जा सकता। उसके लिए तो मार्ग पर चलना पड़ेगा।
इसीलिए ऋषियों ने हजारों वर्षों के ज्ञान और साधना की परम्परा के आधार पर जीवनचर्या के ऐसे नियम बनाए कि साधारण लोग वेदों के जटिल दार्शनिक सिद्धांतों को समझे बिना भी उन्हें जीवन में चरितार्थ कर सकें और संसार में सुख-समृद्धि (अभ्युदय) से जीवन बिताकर अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति (नि:श्रेयस) कर सकें। इन्हीं नियमों (डू एंड डोन्ट) के ग्रंथ धर्मशास्त्र कहलाते हैं। धर्मशास्त्र, वेदों के अर्थ का व्यवहारिक विस्तार है – श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृति:।
इन ग्रंथों को भी वेदों के समान ही श्रद्धा व महत्व दिया जाता है। श्रुति अर्थात् वेद और स्मृति अर्थात् धर्मशास्त्र दोनों को ही भगवान् की आज्ञा माना गया है– श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञै (वाधूलस्मृति 189)।
गीता में कहा है कि कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्धारण के लिए शास्त्र ही प्रमाण हैं – तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ (गीता 16.24)। सभी धर्मशास्त्र (इनमें स्मृतियॉं ही मुख्य हैं), श्रुति (अर्थात् वेद) की अनुगामिनी होती हैं – स्मृति श्रुत्यनुगामिनी। अर्थात् यह तभी तक मान्य हैं जब तक वह वेद की मूल धारा के अनुकूल हों। धर्मशास्त्रों के माध्यम से ही वैदिक सिद्धांत व्यवहार में क्रियान्वित होते हैं। अत: इन्हें धर्म का शरीर कह सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर, मन, बुद्धि, स्वभाव, रहन-सहन के आधार पर अद्वितीय है इसलिए सबके लिए एक से नियम लागू नहीं हो सकते। इसलिए ऋषियों ने व्यक्ति के स्वभाव, निवास की भौतिक परिस्थितियों और समाज की दशा के आधार पर अनेक धर्मशास्त्रों का निर्माण किया। इन धर्मशास्त्रों में श्रौतसूत्र, गुह्यसूत्र और स्मृतिग्रंथ आते हैं। इन धर्मशास्त्रों का निर्माण करनेवाले ऋषियों के नाम पर इनके ग्रंथों के नाम हैं जैसे मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, आपस्तम्बगुह्यसूत्र, कात्यायन श्रौतसूत्र आदि। इनमें स्मृतियॉं ही मुख्य हैं। इन धर्मशास्त्रों में व्यक्तियों और राजा के कर्तव्य, दण्ड विधान, न्याय का तरीका, सम्पत्ति का विभाजन, कर संग्रह की व्यवस्था, अपराधों का प्रायश्चित्त, व्रत, दान, जप, तप, तीर्थयात्रा, वर्णों और चारों आश्रमों के धर्म, विशेष धर्म, गर्भाधान से अंत्येष्टि तक के संस्कार, दिनचर्या, पंचमहायज्ञ, भोजनविधि, शयनविधि, स्वाध्याय, यज्ञ-यागादि, सदाचार-शौचाचार, खानेयोग्य और न खानेयोग्य पदार्थों का विचार आदि विषय लिये गये हैं।
जिस प्रकार संसद और विधानसभाएँ समय और स्थान की जरूरतों के अनुसार नए-नए कानून बनाते हैं, पुराने कानूनों में परिवर्तन करते हैं परंतु यह सब संविधान की सीमाओं के भीतर ही होता है । इसी प्रकार समय और भौगोलिक परिस्थितयों के साथ स्मृतियों का स्वरूप विविध प्रकार का हो सकता है परंतु उनके अर्थ वेद के अनुकूल होना आवश्यक है।
वैदिक काल में स्वअनुशासन था और धर्मशास्त्रों के रचयिता निर्माता ऋतम्भरा प्रज्ञा प्राप्त ऋषि थे। इन ग्रंथों पर शस्त्रार्थ होता था। इससे यदि कोई त्रुटि भी होती थी तो उसका परिमार्जन हो जाता था और वेदों के अनुरूप होकर ही शास्त्र लोक में प्रचलित होता था। वेद के अनुसार सृष्टि ब्रह्म से उद्भूत है और कण-कण में चेतना के रूप में ब्रह्म प्रकाशित है, इसी ब्रह्म का साक्षात्कार करना हर मनुष्य का लक्ष्य है। इसलिए समाज में ऊॅच-नीच, भेदभाव आदि का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। इसलिए प्रारंभ में शास्त्र भी मानवमात्र के बीच समता के उद्घोषक थे।
बाद में सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तनों के दौर में यह अनुशासन समाप्त हो गया और सनातन के नाम पर अनेक मतों, पंथों का प्रचलन प्रारंभ हो गया। इसी समय अज्ञानता या स्वार्थ के कारण अनेक गुमनाम लेखकों ने धर्मशास्त्रों में अनेक बातें घुसा दीं जैसे स्त्री और शूद्रों का शिक्षा का निषेध, भेदभाव, छुआछूत आदि। यह वेदों की मूल अवधारणा के विपरीत है। परंतु इसे देखने वाला कोई नहीं था। समाज ने इन बातों को धर्म का भाग मान लिया और यहीं से पतन की शुरूआत हुई।
भारत के धार्मिक जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव मनुस्मृति का रहा है और वर्तमान में सर्वाधिक विवाद भी इसी पर है। एक पक्ष इसे धर्म की आधारशिला बताता है तो दूसरा पक्ष इसकी होली जलाने का पक्षधर है। वास्तविकता दोनों ही अतियों के बीच में है। मनुस्मृति के प्रारंभ के 58 श्लोक ही मनु के हैं इसके बाद के भृगु के। स्पष्ट है एक स्मृति के अनेक लेखक हैं भले ही वह किसी एक के नाम से प्रचलित हो। इन बाद के श्लोकों में ही स्त्री और शूद्रों को शिक्षा से वंचित करना, भेदभाव, असमानता आदि के श्लोक आए हैं।
मनुस्मृति के कुछ आपत्तिजनक अंश जैसे दंड विधान, संपत्ति का बँटवारा, शिक्षा का अधिकार, असमानता आदि तो संविधान बनने और विभिन्न विषयों पर कानून बनने के साथ ही निरर्थक हो गये। अब उनके अनुसार जीवन जीने पर जेल जाने की नौबत जा जाएगी। वेद के सिद्धांतों के प्रकाश में मनुस्मृति का परीक्षण करें और भेदभाव, असमानता आदि वेद के विपरीत अंशों को छोड़ दें तो शेष आधी से अधिक मनुस्मृति आज भी प्रासंगिक है और धर्म के अनुरूप जीवन जीने का मार्ग बताती है। मनु ने स्वस्थ समाज की रचना के उद्देश्य से व्यक्तियों को उनकी स्वाभाविक प्रकृति के आधार पर (ध्यान दें जन्म के आधार पर नहीं) चार वर्णों में बॉंटा, व्यक्तियों की आयु व आध्यात्मिक क्षमता के आधार पर चार आश्रमों -ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास- में बॉंटा, 16 संस्कार बताए और चार पुरुषार्थों के अंतर्गत धर्म के नियंत्रण में अर्थ और काम का भोग करते हुए मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। भला इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है?
समाज जड़ नहीं है। वह सतत गतिशील व परिवर्तनशील है। समय के साथ, सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक प्रगति होती है और समाज में रहने और जीवन यापन के तरीके, विचार बदलते हैं। उसी के अनुसार समाज के नियम कानून भी बदलना चाहिए। इसलिए स्मृतियाँ भी स्थाई सत्य नहीं हैं वह समय-समय पर बदलती रही हैं और बदलना भी चाहिए। परंतु हजारों वर्षों में नये विचारों के उदय और विज्ञान-तकनीकी के विकास से जीवन की प्राथमिकताएँ, राजनैतिक-सामाजिक स्थितियाँ, रहन-सहन, वाणिज्य-व्यवसाय आदि पूर्णत: बदल गये परंतु हमने स्मृतियों का पुनरीक्षण नहीं किया। अब समय आ गया है कि हम वैदिक धर्म की आत्मा को बचाने के लिए इस पर विचार करें।